गुरुवार, 14 जनवरी 2010
मकरसंक्रांति और भंवरांत पर याद आ गए कुछ बीते पल~~~~~~~दीपक 'मशाल'
कैसे भी वो बचपन के दिन नहीं भुला पाता हूँ जब आज की ही तरह मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता था, हाँ क्षेत्रीय भाषा में हम लोग इसे 'संकरांत' कहते हैं. लेकिन सच कहूं तो संकरांत हमारे लिए बड़ी दुखदायी होती थी, वो इसलिए नहीं की त्योहारों से लगाव नहीं था... बल्कि इसलिए की ये मुख्यतः सर्दी का त्यौहार था और उसपे भी चोंचला ये की इस दिन सुबह से बुडकी अर्थात डुबकी(स्नान) का विशेष महत्व था और स्नान भी कहाँ नदियों में... जो आज भी होता है. अब सुबह ३-४ बजे के आसपास का मुहूर्त हुआ तो ये त्यौहार हमारे जैसे आलसी और नहाने के नाम पर बुखार चढ़ आने वाले बच्चों के लिए तो दुश्मन ही हुआ ना. हम बच्चे एक दूसरे से कहते फिरते की ''भाई आज तो नहा ले साल भर हो गया''. :)
लेकिन इस पर्व के अगले दिन पड़ने वाले 'भंवरांत' का हमें बेसब्री से इंतज़ार रहता, ये वो पर्व है जो संकरांत के अगले दिन पड़ता और इस दिन घोड़ों और गड़गड़ियों की पूजा होती थी, भाई सच्चे नहीं मिट्टी के(खिलौने) और उनके ऊपर छोटे छोटे कपड़े के झोले जिन्हें गोंद कहते थे रखे जाते...और वो भी घर में बने विभिन्न प्रकार के लड्डू(तिल, मूंग की डाल, चने, सेब, फूले या पोपकोर्न, आटे आदि के लड्डू) एवं मठरी, खुर्मी, सेव से भरे हुए. अब्बल तो हम भाई-बहिन में गोंद के आधिपत्य को लेकर झगडा होता था और उसके बाद बददुआ देते इन स्कूलवालों को कि भंवरांत पर्व के अगले दिन उन पूजा किये गए घोड़े और गड़गड़ियों को खींचने के लिए छुट्टी भी नहीं देते.जिस साल शनिवार को भंवरांत पड़ती, हम बड़े खुश होते की चलो कल इतवार को जम के अपने-अपने मिट्टी के ये खिलौने खींचते फिरेंगे. बताना जरूरी है की लड़कों के हिस्से घोड़े और लड़कियों के गड़गड़ियाँ आती थीं. गड़गड़िया एक अजीब सी संरचना वाला मिट्टी का खिलौना होता जिसका मुँह तो घोड़ी से मिलता-जुलता होता था लेकिन धड़ ऐसे होता जैसे कछुवे की पीठ को या किसी बड़ी कढ़ाही को उल्टा रख दिया गया हो और उसके बीचों-बीच एक छोटा सा घड़े जैसा कुछ. लड़के लड़की का भेदभाव इतना कि दोनों के खिलौनों के चक्के(गोल मिट्टी के पहिये) भी अलग संरचना के होते थे, वैसे उस समय तक ना तो हमें लड़के लड़कियों में अंतर समझ आते और ना ही उन पहियों में. हम भाई बहिन में आपस में ही शर्त लगती कि किसका खिलौना ज्यादा दिन चलेगा. असल मिट्टी के थे तो इसलिए कभी ना कभी उनका टूटना तय ही था(काश ये बात हर इंसां अपने दिमाग में रख पाता), लेकिन पहले कौन टूटे???? अक्सर मैं ही हारता क्योंकि घोड़े कि गर्दन जल्दी ही जरा सी टक्कर से धड़ से अलग हो जाती जब कि बहिन का खिलौना देखने में कछुवे कि तरह होने के साथ साथ उसी कि तरह मजबूत भी होता... कई बार तो यही झगड़ते कि लड़कियों को घोडा देना चाहिए और हमें गड़गड़िया. जिस साल मेरी परदादी ५० पैसे बचाने के लोभ में रंगीन के बजाए सादे घोड़े खरीदतीं हमें बड़ी कोफ़्त होती क्योंकि बाकी सब दोस्त और मोहल्ले के बच्चों के खिलौने रंगीन होते थे.
पूजा के बाद हमारी नज़र उन गोंदों पर भी टिकी रहती जिनका अभी पहले जिक्र किया था, क्योंकि उनमे भरी गई मिठाइयों को उठा के रख दिया जाता और सिर्फ वसंत पंचमी याने ठीक १५ दिन बाद खोला जाता था. अब इतना सबर था किसके पास, घर कि बाकी मिठाई ख़त्म हुई नहीं और हम लग जाते गोंद पर हाथ साफ़ करने. हालांकि हमारी आदतों से परेशान होके मम्मी उन्हें छुपा के रख भी देतीं थीं लेकिन हम भी जूनियर जेम्स बोंड( बाल पत्रिका नन्हे सम्राट का एक पात्र) से कम थोड़ेई थे.. :) बस अब तो जिंदगी कि रफ़्तार से भागती बस में बैठे कभी फुर्सत कि खिड़की में से पीछे मुड़ के उन छूट चुके पेड़ों रुपी बीते दिनों को देखने की कोशिश करते हैं और फिर मुस्कुरा के आगे की सड़क बनाने लगते हैं..
आप सब को मकरसंक्रांति पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं..
आपका ही-
दीपक 'मशाल'
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ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
जवाब देंहटाएंभले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी...
सकरांत पर बचपन के तुम्हारे किस्से बड़े अच्छे लगे, मुझे तो अभी तक मकर संक्रांति का मतलब खिचड़ी, सूर्य का उत्तरायण होना और पतंग उड़ाने तक का ही पता था...लेकिन तुमने और भी बढ़िया जानकारी दी...
(दीपक...आशा करता हूं लौट कर अपने काम में लग गए होगे...जाने से पहले उम्मीद कर रहा था फोन करोगे...लेकिन समझ सकता हूं वापसी में कितनी हड़बड़ रहती है...चलो अब तुम्हारे भारत यात्रा के संस्मरण तुम्हारी पोस्टों के ज़रिए जानते रहेंगे)
जय हिंद...
बेटा जी मैने तो आपसे ही सब जाना है कि मकर्संक्राँति के अगले दिन का पर्व । पंजाब मे तो इस तरह नहीं मनाया जाता। तुम सकुशल पहुंम्च गये हो इस पोस्ट से जाना। ाकेले रह कर तो बचपन की बहुत सी बातें याद आती हैं तुम्हारे पास तो खज़ाना भरा पडा है। लिखते रहो। तुम्हारी तबियत कैसी है ? मकर संक्राँति की बहुत बहुत शुभकामनायें आशीर्वाद्
जवाब देंहटाएंये पर्व त्योहार हमारे धरोहर हैं , इनका महत्व अगली पीढ़ी को समझाना जरूरी है । बहुत अच्छा वर्णन किया आपने ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लगा..आपकी यादों के गड़गड़िया नहीं नहीं उन घोड़ों में बैठकर उन बचपन की गलियों से गुजरना ... मैं तो भूल ही गयी थी कि हमारे यहाँ भी संक्रांति नहीं संकरात ही कहते हैं...किसी भी त्यौहार के आगमन पर लोग दरियादिली से अपनी यादों का पिटारा खोल देते हैं...और कितनी ही नयी नयी बातें पता चलती हैं...जबकि लगता था...अब तो हमें शायद सब कुछ पता है...पर अपने देश में इतने रंग समाहित हैं कि एक जन्म में सारे रंग पहचाने जाने मुश्किल...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लगे आपके बचपन के संस्मरण .... मकरसंक्रांति की शुभकामनाये
जवाब देंहटाएंये सुबह सुबह नहाने वाला प्रसंग बड़ा अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंबचपन के अच्छे संस्मरण।
संक्रांत की शुभकामनायें।
samay aur tippani dene ke liye aap sabka aabhari hoon..
जवाब देंहटाएंJai Hind...
ब्लॉग पर सजा यह पर्व संस्मरण बढ़िया रहा!
जवाब देंहटाएंtyoharon ko yaad dilata kamyab lekh
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