गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

कुछ अधूरा सा...

तुम्हारी
किताब के पन्नों ने
अक्सर
मेरा जिक्र किया होगा...
तुम्हारी
कविता के शब्दों ने
अक्सर
मेरा जिक्र किया होगा...
कभी आगे
तो कभी पीछे,
कभी शीर्षक
तो कभी सन्दर्भ में..
कभी मध्य में विलुप्त सा..
या तो कभी
उपसर्ग या प्रत्यय में..
कुछ अंश ही सही.......
या.. नहीं भी किया होगा
तो भी
कोई बात नहीं,
क्योंकि
इसके पीछे भी
कोई महत्वपूर्ण कारण रहा होगा..
जिसके पीछे भी
मैं ही
कहीं ना कहीं होऊंगा,
अगर नहीं तब भी
मैं खुश हूँ,
मगर काश.....
तुमने..
मेरे जीवन की पुस्तक ही
कभी खोली होती..
जिसमें कि हर....

दीपक मशाल

कीमत

रमा के मामा रमेश के घर में कदम रखते ही रमा के पिताजी को लगा कि जैसे उनकी सारी समस्याओं का निराकरण हो गया.
रमेश फ्रेश होने के पश्चात, चाय की चुस्कियां लेने अपने जीजाजी के साथ कमरे के बाहर बरामदे में आ गया. ठंडी हवा चल रही थी.. जिससे शाम का मज़ा दोगुना हो गया. पश्चिम में सूर्य उनींदा सा बिस्तर में घुसने कि तैयारी में लगा था.. कि चुस्कियों के बीच में ही जीजाजी ने अपने आपातकालीन संकट का कालीन खोल दिया-

''यार रमेश, अब तो तुम ही एकमात्र सहारा हो, मैं तो हर तरफ से हताश हो चुका हूँ.''

मगर जीजाजी की बात ने जैसे रमेश की चाय में करेले का रस घोल दिया, उसे महसूस हुआ की उस पर अभी बिन मौसम बरसात होने वाली है.. लेकिन बखूबी अपने मनोभावों को छुपाते हुए उसने कहा-

''मगर जीजाजी, हुआ क्या है?''

''अरे होना क्या है, वही पुराना रगडा... तीन साल हो गए रमा के लिए घर तलाशते हुए. अभी वो ग्वालियर वाले शर्मा जी के यहाँ तो हमने रिश्ता पक्का ही समझा था मगर..... उन्होंने ये कह के टाल दिया की लड़की कम से कम पोस्ट ग्रेज़ुएत तो चाहिए ही चाहिए. उससे पहिले जो कानपूर वाले मिश्रा जी के यहाँ आस लगाई तो उन्होंने सांवले रंग की दुहाई देके बात आई गई कर दी.''

''वैसे ये लड़के करते क्या थे जीजा जी?''

''अरे वो शर्मा जी का लड़का तो इंजीनिअर था किसी प्राइवेट कंपनी में और उनका मिश्रा जी का बैंक में क्लर्क..'' लम्बी सांस लेते हुए रमा के पिताजी बोले.

''आप कितने घर देख चुके हैं अभी तक बिटिया के लिए?'' रमेश ने पड़ताल करते हुए पूछा.

''वही कोई १०-१२ घर तो देख ही चुके हैं बीते ३ सालों में'' जवाब मिला.

'' वैसे जीजा जी आप बुरा ना मानें तो एक बात पूछूं?'' रमेश ने एक कुशल विश्लेषक की तरह तह तक जाने की कोशिश प्रारंभ कर दी.

''हाँ-हाँ जरूर''

''आप लेन-देन का क्या हिसाब रखना चाहते हैं? कहीं हलके फुल्के में तो नहीं निपटाना चाहते?'' सकुचाते हुए रमेश बोला.

''नहीं यार १६-१७ लाख तक दे देंगे पर कोई मिले तो..'' जवाब में थोड़ा गर्व मिश्रित था.

रमेश अचानक चहका-
''अरे इतने में तो कोई भी भले घर का बेहतरीन लड़का फंस जायेगा, जबलपुर में वही मेरे पड़ोस वाले दुबे जी हैं ना, उनका लड़का भी तो पिछले महीने ऍम.डी. कर के लौटा है रूस से... उन्हें भी ऐसे घर की तलाश है जो उनके लड़के की अच्छी कीमत दे सके.''

रमा के पिताजी को लगा जैसे ज़माने भर का बोझ उनके कन्धों से उतर गया..
मगर परदे के पीछे खड़ी रमा को इस बात ने सोचने पे मजबूर कर दिया कि यह उसकी खुशियों की कीमत है या उसके होने वाले पति की????

दीपक मशाल

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

संभावनाओं का संसार...**********दीपक मशाल

हर पल

इक सम्भावना है,

बीता नहीं..

आने वाला

कल

आने वाला पल..

हाँ वही पल

जिसका की

कभी अस्तित्व नहीं पता चला

किसी को भी..

कभी भी..

जबतक आता है वो

तो वर्तमान बन चुका होता है..

और फिर से

एक नया

आने वाला

कल बन जाता है..

वो

तो है महज़ एक

सम्भावना..

जिसे

किसी ने समझा नहीं

और न ही देखा है

उसका अस्तित्व...

क्योंकि

मृग मरीचिका है वह..

नहीं पता कि

क्या है वह पल..

जीवन है या

मृत्यु??

गम है या

खुशी??

फतह है या

शिकस्त??

या

वह जिसका कि

शायद...

वजूद भी नहीं..

न ही रहा उससे पहले अब तक..

बस यही सब बनाता है उसे..

एक संभावना

और इसीलिए है जाना जाता ये जग

संभावनाओं का संसार...

दीपक मशाल
chitra google se

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

महान बलिदान...........दीपक मशाल



इन ज़ख्मों को
हरा रखना मेरे दोस्त,
पीते जाना
इनका दर्द..
मेरी खातिर,
तब तक
जब तक कि मैं..
उन गोली,
बन्दूक,
खंजर और
तलवारों कि धारों को
मोथरा न कर दूं..
जिसने इनमे
भर दिया है गर्म लाल रंग..
और
तकलीफ का सागर...
मगर,
माफ़ करना मेरे दोस्त..
ये धार मैं
तुम्हारी खातिर नहीं
बल्कि उन मासूमों की खातिर
मोथरा करूंगा..
जिनको ये
आगे घाव दे सकते हैं,
तुम्हारा
इन घावों को
हरा रखना तो होगा
सिर्फ एक
महान बलिदान....

दीपक मशाल
चित्र साभार गूगल से

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

'बुद्धा स्माइल'@@@@@दीपक मशाल

'बुद्धा स्माइल'
यही रखा था नाम
परमाणु परीक्षण का...
महान हिन्दोस्तान ने,
मगर
क्यों मुस्कुराये बुद्ध?
ये रहस्य बन गया सदा के लिए...
क्या हमारी नादानी पर?
या मोक्ष के इस नए मार्ग पर
जो सीखा था हमने..
कीमती समय
और बहुत कुछ गँवा कर..
कितने बड़े -बड़े दिमाग
उलझाकर..
इस काम में खपा कर..
वैसे.....
बुद्ध मुस्कुराये थे तब भी
जब
सामने खड़ा था उनके
मदमस्त पागल हाथी..
जब खड़ा था अंगुलिमाल..
जब खड़ा था बाघ
और जब
सामने खड़ी थीं यशोधरा
राहुल को दान करने के वास्ते..
वो मुस्कुराये थे तब भी
जब हुआ था आत्मबोध,
बुद्ध मुस्कुराते थे
पीड़ा में भी
बुद्ध मुस्कुराते थे हर्ष में भी...
क्योंकि
दोनों थे सम उनको...
बस इसीलिए
ये बन गया
अज़ब रहस्य सदा के लिए
कि
व्हाई 'बुद्धा स्माइल'?

दीपक मशाल

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

आस्तीन के सांप...

आधुनिकता के
इस दौर में
पाश्चात्य सभ्यता के
अनुगमन कि होड़ में..
हम दौड़ रहे हैं...
अंधी दौड़ में...
बहुत आगे,
मगर पदचिन्हों पर किसी के..
हर बदलते पल के साथ,
कभी पतलून
बदल जाती है
बैलबोटोम में..
कभी पजामे में,
कभी जींस
तो कभी बरमुडे में...
सिर्फ जींस नहीं रोक सकती,
केवल धोती नहीं
बाँध सकती
इन भागते
फैशनपरस्तों के क़दमों को..
कुछ लोग जो
कईयों के
आदर्श है..
प्रेरित करते हैं
पूर्वजों सरीखे प्राकृतिक होने को भी..
मगर तुम
अपने कमीज़ की..
अपने कुरते की
या जो भी कहें इसे
अगली घड़ी में...
इसकी बाहें
इतनी न फैला लेना..
इतनी न बढ़ा लेना..
और ना ही इतनी चौड़ी करलेना
कि पल सकें उनमे
आसानी से
बिना परेशानी के..
आस्तीन के सांप...
दीपक मशाल

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

सबलों का शस्त्र ))))))))))))) दीपक मशाल

जो मज़हब का
मतलब,
जो धर्म का
मर्म...
सिर्फ
और सिर्फ,
त्रिशूल और
तलवार,
घात और प्रहार
समझते हैं...
वो कमज़ोर हैं
हर तरह से
और निहत्थे हैं आत्मास्त्र से..
वो
जला सकते हैं
देह को,
पर आत्मा को
छू भी नहीं पाते
और प्रेम जिला सकता है
आत्मा,
कहा है वासुदेव ने भी...
''नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि.. नैनं दहति पावकः...''
देह का है अंत
और
देहनाशक का भी..
है आत्मा अनंत
और
प्रेम भी..
बस यही कारण है
कि
बम
बुजदिलों का
और प्रेम
सबलों का शस्त्र है...

दीपक मशाल

रविवार, 13 दिसंबर 2009

खंडहर की ईंट

खंडहर की ईंट
कुछ कहती हुई सी लगती है,
उसी पुराने खंडहर की
जिसे ऐतिहासिक स्थल कहते हैं...
और देखते हैं रोज़
हज़ारों देशी और विदेशी पर्यटक...
हर किसी से
सूनी आँखों से
कुछ कहती हुई सी लगती है...
वो चाहती है बताना
क्या है असली इतिहास
जिसमे जोड़ी गयी है
कुछ झूठी कहानी भी...
उस कहानी को छोड़कर,
क्या है हकीकत
और क्या है फ़साना...
है हर पल की
सच्ची गवाह
वह ईंट
जो झूठी नहीं है..
अलग-अलग इतिहासों की तरह....
दीपक 'मशाल'

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