मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

शिखा वर्मा को पितृ-शोक-------- मसि-कागद

नई कलम- उभरते हस्ताक्षर ब्लॉग मंच की कवियत्री शिखा वर्मा "परी" ने अपना ग़म साझा किया हमारे साथवो ग़म मैं अपने पाठकों के साथसाझा कर रहा हूँ-

"धूप सी जमी है मेरी साँसों में, कोई चाँद को बुलाये तो रात हों" मुझे नहीं मालूम था कि इतना मजबूर कर देगा मुझे मेरा जीवन कि अपने हाथों से अपने पिता कि चिता को आग दूँगी और अपनी माँ से कहूँगी कि मैं तो जश्न में गयी थी।(जिस दिन पापा हम सब को छोड़ के गए उसी दिन मम्मी को , सात दिन अस्पताल में आई .सी. यूं. चेंबर में रहने के बाद छुट्टी मिली थी, और अब तक वो अपने पूरे होशो हवाश में नहीं हैं वो दिमाग की इक बीमारी से पीड़ित हैं और डॉक्टर ने मना किया है उनको इस घटना के बारे में बताने को )
पिता को खोने का ग़म करूँ या माँ को पाने का अहसास पता नहीं ये कौन सी परीक्षा है मेरी, आज पापा की कमी महसूस होती है जब जेब से पैसे निकल के कॉलेज भाग जाया करती थी, अपने जन्मदिन पर नया लेपटोप की जिद की थी। अपना मनपसंद भोजन बनवाने का मन होता था,पापा के साथ शान से गाड़ी में घूमती थी। और पूछती थी- "ये कौन सी जगह है पापा? " पुराने गाने पापा के साथ गुनगुनाते थे, उनके "कालू" कहने पर रूठ जाया करते थे और मन ही मन हँसते थे। वाकई पिता की याद को भुला पाना पानी में आग जलने का काम है।

11 दिसंबर 2010 मैंने अपने पिता को खो दिया, उनके हाथों का साया मेरे सर से हट गया। पापा की कमी का अंदाजा कोई लगा नहीं सकता, उनका प्यार से कहना "सूतू मेरा" कैसे भूल जाऊँ ? उनकी डांट, उनका प्यार, उंसी हिम्मत, पापा की हर एक बात मुझे अपनी सांस के साथ आती है। 21 वर्ष में अपने पापा को खो दिया मैंने, ऐसा ईश्वर ने मेरे साथ क्यूं किया? इस सवाल का जवाब ढूंढ रही हूँ मैं, मुश्किल है जवाब मिलना पर फिर भी उम्मीद है कि शायद किसी न किसी दिन जवाब मिलेगा।

मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया, बरबादियों का सोग मानना फिजूल था, बरबादियों का जश्न मनाता चला गया।

शिखा वर्मा "परी
( लेखिका इंजीनियरिंग के दूसरे वर्ष में अध्यनरत हैं )
 

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

जाने क्या है ये!!!!------------------------ दीपक 'मशाल'

उसे खुश रहने की दुआ मत दो
बेवफाई की ऐसी सज़ा मत दो
आँख सूजी है और सुर्ख भी है 
झूठे ही मुस्कुरा के विदा मत दो 

निशाँ जिस्म या ज़िहन के रहने दो  
जगह-जगह से इन्हें मिटा मत दो 

रोई है कदील रात भर जिसे सुन के 
वो कहानी पत्थरों को सुना मत दो 

काफी है इतनी शर्म से मर जाने को 
बेवफा को इससे ज्यादा वफ़ा मत दो 

किसी दर्द के लिए बचा के रख लो इन्हें   
ज़ालिम के जाने पे अश्क बहा मत दो 

थोड़ा तरस तो खाओ अपनी हालत पे 
'मशाल' ज़ख्मों को और हवा मत दो. 
दीपक 'मशाल'

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