बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

क्षणिका




जाने किस जद्दोजेहद में मर गया
परिंदा था सियासी ज़द में मर गया
हुआ जो भी ऊँचा इस आसमाँ से
अपने आप ही वो मद में मर गया
मशाल





मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

दो लघुकथाएं



1- चोर-सिपाही-वजीर-बादशाह 

चार पर्चियां बनाई गईं.. उन पर नाम लिखे गए
चोर, सिपाही, वजीर और बादशाह
उन्हें उछाला गया, चार हाथों ने एक-एक पर्ची उठाई. फिर उनमे से एक सीना चौड़ा करके गरजा
-बोल-बोल, मेरा वजीर कौन?
-मैं जहाँपनाह
-ह्म्म्म.. इन दोनों में से चोर सिपाही का पता लगाओ
वजीर दो मिनट सोचता रहा फिर बोला-
-जाने भी दीजिये हुज़ूर, दोनों अपने ही आदमी हैं... वैसे भी इनके हाथ तो सिर्फ कौडियाँ लगी होंगी, अशर्फियाँ तो महफूज़ ठिकानों में पहुँच ही चुकी हैं 

जिसका माल चोरी हुआ था वह खेल में शामिल हुए बिना ही चारों में से चोर ढूँढने की कोशिश में लगा था 
दीपक मशाल 

2- कौवा और गिलहरी 

कौवे और गिलहरी में फिर से करार हुआ. कौवे ने बीती बातें भूल जाने का निवेदन किया और गिलहरी ने तुरंत मान लिया, उसके मन में तो वैसे भी कोई मलाल था ही नहीं. पिछली बारी कौवे ने ना खेत जोते थे, ना बीज बोये, ना सिंचाई की और ना ही फसल काटी थी.. नतीजतन गिलहरी के सब कर देने के बाद भी कौवे की पकी-पकाई फसल तेज़ आंधी-पानी में बह गई थी. इस बार तय हुआ कि कौवा निठल्ला बन हरी डाल पर ना बैठा रहेगा... तय हुआ कि दोनों बराबर से मेहनत करेंगे.
समय आया तो गिलहरी ट्रेक्टर लेकर कौवे के पेड़ के नीचे पहुँची, अब हल से खेत जोतने वाले दिन तो रहे नहीं थे. गिलहरी को उम्मीद थी कि कौवा अब वही पुराना गीत ना अलापेगा कि 
-तू चल मैं आता हूँ, 
चुपड़ी रोटी खाता हूँ
ठंडा पानी पीता हूँ
हरी डाल पर बैठा हूँ..

लेकिन कौवे ने बिना हिले ही अन्दर से आवाज़ दी. भाई कुछ ना खाऊंगा-पीऊंगा लेकिन सच यही है कि आज सर में बहुत दर्द है, तुम आगे-आगे चलो मैं जरा दवा लेकर आता हूँ. गिलहरी को क्या फर्क पड़ना था, वो तो थी ही मेहनती.. थोड़े ही समय में अपना खेत जोत लिया... जब कौवा काफी देर तक ना पहुंचा तो दयावश उसका खेत भी जोत दिया.. थोड़ी देर और ट्रेक्टर चला लिया जब पिछली बार पसीना बहाकर जोत लिया था तो इसबार तो ट्रेक्टर था ही. 
वापस लौटते हुए देखा कि कौवा आँखें मींचे और मुँह खोले खर्राटे भर रहा था. गिलहरी ने तबियत का पूछा और अपने घर की राह देखी.
जब बुआई का वक़्त आया तो कौवे की टांग में दर्द पैदा हो गया, गिलहरी ने बिना तीन-पांच करे वह भी अपनी मर्जी से कर दिया. फिर यही कहानी कटाई के वक़्त भी दोहराई गई, कौवे को ना सुधरना था सो नहीं सुधरा.
इतिहास ने खुद को दोहराया और इस बार भी बारिश में कौवे की फसल बह गई और गिलहरी के गोदाम भरे रहे. 
एक दिन सुबह-सुबह गिलहरी के दरवाजे पर दस्तक हुई.. उसने पूछा 
-कौन है भाई?
जवाब आया 
-मैं हूँ कौवा 
-पुलिस
-वकील
-जज
एक-एक कर चार आवाजें गिलहरी के कानों में पड़ीं. बाहर से ही फरमान सुनाया गया कि जल्द से जल्द बाहर उनकी अदालत में हाज़िर हो क्योंकि उस पर कौवे की फसल हड़पने का आरोप था और मुकदमा चलाया जाना था.
गिलहरी आँख मलते हुए बाहर पहुँची तो पेड़ के नीचे अदालत लग चुकी थी. थोड़ी ही देर में गिलहरी काली चोंच, काले पंख और कर्कश स्वर वाले जीवों के बीच अकेली खड़ी थी. 
दीपक मशाल

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

मेरे प्रश्न



मेरे प्रश्न
तुम्हारे विरोध में नहीं
मगर अफ़सोस कि
नहीं कर पाते हैं ये समर्थन भी

ये प्रश्न हैं
सिर्फ और सिर्फ खालिस प्रश्न
जो खड़े हुए हैं
जानने को सत्य
ये खड़े हुए हैं धताने को उस हवा को
जो अफवाह के नाम से ढंके है जंगल

ये सर्दी, गर्मी, बारिश
और तेज़ हवा में डंटे रहेंगे
तब तक
जब तक इनके लिए
मुझ तक भेजे गए तुम्हारे उत्तर के लिए
नहीं हो जाते मजबूर
ये मेरे हाथ, मन और मष्तिस्क
देने को पूर्णांक

सनद रहे
कि ये प्रश्न इन्कार करते हैं
फंसने से
किसी छद्म तानों से बुने झूठ के जाल में
ये इन्कार करते हैं
भड़कने से
बरगलाए जाने से
बहलाए जाने से
फुसलाये जाने से

ये हुए हैं पैदा
सोच के गर्भ से

यूं ही नहीं...
इन्हें उत्पन्न होने को किया गया था निमंत्रित
जानने के हक के अधिकार के द्वारा

और ये अधिकार हुआ था पैदा
स्वयं इस सृष्टि के जन्म के साथ
भले ही तुम्हारे संविधान ने
तमाम लड़ाइयों के बाद ही
इसे दी हो मंजूरी

देखो नीचे खोलकर अपनी अटारी की खिड़की
प्रश्न खड़े हैं
करो पूर्ण उत्तर देकर युग्म
और समयावधि तुम्हें है उतनी ही
जिसमे कि ना जन्मने पायें प्रतिप्रश्न
न मेरे मन में
और न ही प्रत्यक्षदर्शियों के..
उतनी ही
जितने में कि
ना मिल पायें कुछ और स्वर
मेरे स्वर में..
दीपक मशाल


हिन्दी साहित्यिक मासिक पत्रिका सद्भावना दर्पण के सितम्बर अंक को पढ़ने के लिए इस लिंक का अनुसरण करें-
http://issuu.com/dipakmashal/docs/sadbhavnadarpanseptember-12_final


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