शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

श्री समीर लाल जी का हुक्म कौन टाल सकता है भला?!!!!!!!!!!!!!!!!!!दीपक 'मशाल'

ब्लॉगजगत में किसकी इतनी हिम्मत है जो श्री समीर लाल जी के आदेश का उल्लंघन करे भला, फिर मेरी बिसात ही क्या है? बित्ते भर का छोकरा हूँ... ऐसा कोई क्षेत्र भी तो नहीं जिसमें समीर जी का किसी अन्य से भी मुकाबला हो, चाहे वह ब्लॉग लेखन की कला हो, साहित्यिक ज्ञान हो, धनधान्य हो, प्रशंसक हों, पद हो, विनम्रता हो, सम्मान हो या कुछ और भी....
मैं नतमस्तक हूँ उनके आगे और उनके आदेश कि ''कुछ और अपनी पुरानी रचनाओं की छंटनी करके ब्लॉग पे लगाओ'' का पालन कर रहा हूँ और यहाँ पर एक ४-५ महीने पुरानी रचना है जो लगा रहा हूँ, क्योंकि उनका हुक्म कौन टाल सकता है भला?
इस रचना में एक ऐसी सोच का निरूपण है जो यदि हर व्यक्ति सोचे तो संसार को सुधारने के लिए किसी कानून की आवश्यकता ही ना रहे....
कल हिंद युग्म में सितम्बर २००९ की यूनीकविता के रूप में पुरस्कृत अपनी एक अन्य रचना आपके सामने रखूंगा.... समीक्षा और उत्साहवर्धन करें..  

मुझसे पूँछेगा खुदा











मुझसे पूछेगा खुदा,
क्या किया तुमने
जमीं पे जाके,
आदमी का तन पाके।
मैं तुझमे ढूंढता रहा
जगह अपनी,
और तू खुश था,
मुझे पत्थरों में ठहरा के।
अपनी सिसकियों के शोरों में,
आह औरों की
ना सुन पाए,
सपने बुने तो सतरंगी मगर,
अपने लिए ही बुन पाए।
जो लिया सबसे
तुम्हे याद नहीं
और देके थोड़े का हिसाब,
भूल नहीं पाए।
क्या करुँ मैं
बना के वो इन्सां,
काम इन्सां के जो,
कर नहीं पाए।
मैंने चाहा था,
तुम लिखो नसीब दुनिया का,
तुम रहे बैठे,
दोष अपने नसीब को लगा के।
याद मुझको तो किया,
किया मगर घबरा के।
बाँट के मुझको कई नामों में,
लौट आये हो ज़हर फैला के।
दीपक 'मशाल'
 चित्र साभार गूगल से प्राप्त.

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

मोक्ष::::::::::::::::::::::::::::::::::दीपक 'मशाल'

मोक्ष क्या है? लिखना तो बहुत कुछ चाह रहा था लेकिन पता नहीं क्यों आज मन बहुत व्यथित है और इसीलिए बिना किसी लाग लपेट के एक पुरानी कविता आपके सामने रख रहा हूँ.....  इनमें  सिर्फ वही भाव हैं, सिर्फ वही अंतर्द्वंद है जो कभी-कभी हर मन में चलता है की मोक्ष क्या है?

मोक्ष
परिक्रमा
करते थे प्रश्न,
अँधेरे मन के
कोटर के,
उत्तर कोई निकले सार्थक,
जिसको
हथिया के प्राप्त करुँ,
विचलित ह्रदय
संतृप्त करुँ।
किस राह को
मैं पा जाऊँ?
किसपे
कर विश्वास चला जाऊँ?
किसको भरूँ,
अंक में मैं,
जीवन-दर्शन या जग-पीड़ा?
करुँ नर-सेवा या
नारायण?
बनूँ किसका कर्त्तव्य-परायण?
चलूँ पथ
मोक्ष प्राप्ति का मैं,
या पीड़ा दीनों की हरूँ हरी?
गुँथा हुआ मैं
ग्रंथि में,
था अंतर्मन टटोल रहा बैठा।
सहसा घिर आये मेघा
आबनूस रंग चढ़े हुए,
गरजे,
बरसे,
कौंधी बिजली,
मुझे वज्र इन्द्र का याद हुआ,
त्याग दधीचि का सार हुआ।
तब ज्ञान हुआ जो
करनी का,
जीते जी मोक्ष प्राप्त हुआ।
दीपक 'मशाल'
चित्र- साभार गूगल से लिया गया.

बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

अरे भाई मैं मरने नहीं जा रहा हूँ###############........दीपक 'मशाल'

आप मानें या ना मानें हर व्यक्ति अपने जीवन में हमेशा सकारात्मक सोच नहीं रख सकता, कभी ना कभी हताश या निराश होके वो नकारात्मक सोच का लबादा ओढ़ ही लेता है. कई बार जानबूझ कर तो कई बार अनजाने में....
ऐसे ही एक बार मेरे मन में भी एक ऐसे व्यक्ति के बारे में लिखने का विचार आया... जो जीवन से थक सा गया है और मौत, जो की एक अटल सच्चाई है, को एक प्रेमिका की तरह आलिंगन के लिए तत्पर है...... लेकिन पिछली कविताओं के निकाले गये अर्थ(अनर्थ) की तरह इसका ये अर्थ मत निकाल लीजियेगा की मैं नकारात्मक सोच अपना चुका हूँ....
अरे भाई मैं मरने नहीं जा रहा हूँ.................. जब कभी ऐसा सोचूंगा तो आत्म हत्या के लिए आतंकवादियों की टोली के बीच जाऊंगा जिससे की मरने से पहले १०-१२ को मारकर कुछ दहशतगरदों  से तो अपनी ज़मीं को आज़ाद करा सकूं.....
देखिये इस बार क्या बकवास लिख डाली....


ऐ मौत!!!!!!!!!!!!!!!! 
ऐ मौत!
मैं दरवाज़े पे खडा हूँ,
तुम आओ तो सही,
मैं भागूंगा नहीं........
कसम है मुझे उसकी,
जिसे
मैं सबसे ज्यादा प्यार करता हूँ,
और उसकी भी
जो मुझे सबसे ज्यादा प्यार करता है.
या शायद दोनों.........
एक ही हों.
एक ऐसा शख्स
या ऐसे दो शख्स
जो आपस में गड्डमगड्ड हैं..
मगर जो भी हो
है तो प्यार से जुड़ा हुआ ही न....
वैसे भी...
गणित के हिसाब से
अ बराबर ब
और ब बराबर स
तो अ बराबर स ही हुआ न....
जो भी हो यार
मगर सच में
उन दोनों की कसम...
उन दोनों की कसम, मैं भागूँगा नहीं.
कुछ लोग कहते हैं कि-
'जिंदगी से बड़ी सजा ही नहीं'
अरे
तो तुम तो इनाम हुई न
और भला इनाम से
क्यों कर मैं भागूंगा?
और फिर वो इनाम जो.....
आखिरी हो
सबसे बड़ा हो,
जिसके बाद किसी इनाम की जरूरत ही न रहे..
उससे भला मैं क्यों कर भागूंगा?
इसलिए
ऐ मौत....
तुम्हे
वास्ता है खुद का,
खुदा का
आओ तो सही
मैं भागूंगा नहीं.........
दीपक 'मशाल'

जय हिंद

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

क्या आप पहिचानते हैं इन्हें????~~~~~~~~~~~~ दीपक 'मशाल'

 क्या आप पहिचानते हैं इन्हें???? बस एक बार आप इनके गाये हुए गीत इन लिंकों पर सुन लेंगे तो मुझे भरोसा है कि मेरी तरह आप भी ना सिर्फ इनकी आवाज़ बल्कि इन गीतों और इनके पीछे छिपी देश और समाजहित कि भावनाओं के दीवाने हो जायेंगे...... अगर आपकी संवेदनाएं मर चुकी होगीं तो फिर से जीवित हो जाएँगीं और अगर सो रही होंगी तो जाग जाएँगीं.
इनके चेहरे से ही शायद आपको भी इस चेहरे के स्वामी में कूट कूट के भरी सच्चाई और ईमानदारी के दर्शन होंगे. लेकिन दुर्भाग्य कि इनका प्रशंसक होने के बावजूद मुझे इनके नाम(विनय जी) के अलावा इनके बारे में कुछ नहीं पता....  आपसे विनम्र निवेदन है कि यदि आप इनके बारे में जानते हों तो कृपया मुझे जरूर बताएं.... मैं आपका आभारी रहूँगा..
http://www.youtube.com/watch?v=WQCckYsS7bw

http://www.youtube.com/watch?v=Oi5XnHnEv9k

 आज मैं ईश्वर को धन्यवाद देना चाहूंगा कि उन्होंने आदरणीय गुरुदेव श्री पंकज सुबीर जी को, जो दीवाली के दिन से ही विषाणु ज्वर(वाइरल बुखार) से पीड़ित थे, उन्हें राहत प्रदान की इसके अलावा हमारे शेरदिल, जांबाज़, देश के सच्चे लाल भाई गौतम राजरिशी जी को पूर्णरूपेण स्वस्थ कर दिया......लेकिन दुःख है की दूसरी तरफ युवा दिलों की धड़कन महफूज़ भाई को वाइरल बुखार के प्रकोप से ग्रसित कर दिया... मुझे डर है कि जाने मेरी पिछली पोस्ट से इसका कोई ताल्लुक तो नहीं.....  आप सबसे गुजारिश है की बड़े भाई के शीघ्र  स्वस्थ्य लाभ के लिए दुआ करें, मेरी तो अब ऊपर वाला सुनता ही नहीं.....

      अंत में चलते चलते वो कविता जिसमे अपनी कलम से पुरुषों के लिए नारियों द्वारा दिया गया सन्देश लिखने की कोशिश की है......... जिसमे की नारियां सदियों से अपने ऊपर होती आ रही ज्यादती को आज भी एक चुनौती मान कर स्वीकार करने के लिए तैयार हैं.....

बाद विरह के कई बरस के,
किया गया था उसे खड़ा इक सवाल की तरह,
और जवाब के लिए
था कूदना पड़ा अग्नि में
अपने को
कंचन साबित करने के लिए.


कभी थी लगी दांव पे
इक वस्तु की तरह महज़,
और हारी भी गयी,
लाज उसकी उतारी भी गयी,
घसीटा गया उसे,
दासी साबित करने के लिए.


सदैव उसने ही किया तप,
अपने आराध्य पति को पाने को,
कभी भस्म हुई थी
अग्निकुण्ड में
क्यों???..सिर्फ...
समर्पण साबित करने के लिए.


थी मृत्युदेव से भिड़ी कभी,
वो राह में थी अडी तभी,
लाने को वापस प्राण...
निज प्राणप्रिय के
स्वयं को...
सती साबित करने के लिए.


हे पुरुषवादी मानसिकता के झंडावरदारों!!!!!!!!
इक बुरी खबर है आपके लिए,
कि नारी अबतक हारी नहीं,
हाँ और अब भी खड़ी है,
तुम जो चाहो....
वो साबित करने के लिए.


तुम समंदर हो गए,
वो कतरा ही रह गयी..
फिर भी डरते हो क्यों?????
कि वो कहीं उठ न जाये
तुम्हे कतरे का....
कर्जदार साबित करने के लिए.
दीपक 'मशाल'
चित्रांकन- दीपक 'मशाल'

जय हिंद......

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

महफूज़ भाई के प्यार कि दास्ताँ... इंटरवल के बाद का शेष भाग.... दीपक 'मशाल'


जो कहानी महफूज भाई ने सुनाई वो तो आधी-अधूरी है जनाब, वो तो सिर्फ तब की चर्चा है जब प्यार नया नया था.. इंटरवल तक उनसे सुन लिया अब आगे की फीचर फिल्म मेरे पास है.
हुआ यूं की सब कुछ ठीक ठाक चल रिया था लेकिन एक दिन भाभी जी की नज़र महफूज़ भाई के ऑरकुट प्रोफाइल/ अकाउंट पे चली गई. जहाँ देखा की इत्त्त्त्त्ती सारी महिला मित्रां और एक वो है जिसका कोई ना मित्रा(कोइना मितरा) इतने सारियों ने टेस्तिमोनिअल लिख डाले!!!!!!!!!!!!!
''तो फिर क्या हुआ??? ''
''धत् तेरे की.....''
 ''हुआ क्या विश्वास डगमगा गया?''
 ''अरे डगमगा नहीं गया भाई, भूकंप आगया भरोसा नाम के शहर में.... वो भी रिअक्टर स्केल पे पूरी ८.२ तीव्रता का.  फिर क्या था, बोरिया बिस्तर बांधा और वापस नैहर की तरफ. ''
अब महफूज़ भाई लगे उस घड़ी को कोसने जिसमे प्यार जताते हुए पासवर्ड बता बैठे, वो तो भला हो सिर्फ ऑरकुट का बताया, फेस बुक का नहीं...
मुझे फोन लगा दिया कि- ''छोटे भाई मियां मशाल तुम यार दिलजले टाईप के देवदास आदमी हो, ऐसा-ऐसा हो गया मेरे साथ.... और अब रोने धोने और मनाने वाली कविता, गीत तो हमें लिखने आते ही नहीं... तुम ही अपनी सुनसान, वीरान सूरत के ऊपर वाले माले में रखे दर्दीले, चोटीले  दिमाग से कुछ ऐसा तडकता भड़कता लिख दो कि तुम्हारी भाभी को मेरे प्यार पे यकीन हो जाये, मैं तो साहिर लुधियानवी के पुराने गाने एस ऍम एस कर कर के थक गया, लेकिन कोई रेस्पोंस ही नहीं आता.....


अपनी खोपडिया खुजला के  हमने लिख के दे दिया के-

कैसे?
हाँ कैसे यकीं दिलाऊँ तुम्हे
तुम ही प्यार हो मेरा,
हर साल, हर महीने
हर दिन, हर पहर
हर पल.......
तुम ही इन्तेज़ार हो मेरा.
तुम्ही तो हो जिसके लिए,
मैं साँसों को सम्हाले हुए हूँ,
अधखुली आँखों में कुछ,
रंगीन सपने पाले हुए हूँ.....
तुम्ही तो हो,
जो ज़मीं से बाँधे है मुझे,
और उस जमीं के सर का,
तुम्ही विस्तार हो मेरा........
कैसे?
हाँ कैसे यकीं.........................हो मेरा.
तुम्हारे ही सपनों के तिनकों से,
मैंने नींव रखी है
अपने घोंसले की,
और तुम्हारी आँखों की चमक से
मिलती है
खुराक हौसले की.
वर्ना ठूँठ पे,
हाँ पुराने ठूँठ पे
नए घोंसले नहीं बनते.........
बनकर के होंठ मेरे
तुम्ही तो इज़हार हो मेरा......
कैसे?
हाँ कैसे यकीं दिलाऊँ कि तुम ही प्यार हो मेरा
हाँ कैसे यकीं दिलाऊँ कि तुम ही प्यार हो मेरा..........
दीपक 'मशाल'

भेज दिया महफूज़ भाई ने इसे भाभी जी को, और फिर होना क्या था लौटती गाड़ी से वो घर वापस...
अजी भरोसा ना हो तो फ़ोन कर लो महफूज़ भाई को.... कहो तो मोब. नं. दे दें ...कसम से... 

फिल्म का शुरूआती शेष भाग यहाँ देखें- http://lekhnee.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html

रविवार, 25 अक्तूबर 2009

इस हफ्ते की खुरचन"""""""""""""""""""""""""""""""""

 इधर उधर की बातों को लेकर कुछ छोटा-बड़ा, कुछ  हल्का-फुल्का लिखा आपके सामने है, चाहें तो इसे इस हफ्ते की खुरचन कह सकते हैं...

१- लाख हों गम मगर हंसने का मौका ढूंढ लेता है,
    वो एक पंछी है अक्सर झरोंखा ढूंढ लेता है.

२- वो जानता है सब मगर, अन्जान बना रहता है,
    जो ना जताए करम उसका, एहसान बना रहता है..

३- सादे लिबास में जिन्हें नाकामियां मिलती रहीं,
    उनको खुदा के काम में भी खामियां मिलती रहीं.

४- शर्म-
एक ऐसी चादर
जिसकी तहें,
उम्र बढ़ने के साथ-साथ
लड़की पर
बढ़ती जाती हैं
और
लड़के पर से
उतरती जाती हैं....

५- बर्फ सा जीवन-
पता नहीं
ये
वक़्त की साजिश है
या
लम्हों का
दिवालियापन,
तुम
सामने होके भी
नहीं दिखते,
बर्फ सा
जम गया जीवन.

६- वहां से सड़ रहा हूँ मैं....
मैं अबोला
एक भूला सा वेदमंत्र हूँ,
खामियों से लथपथ
मैं लोकतंत्र हूँ.
तंत्र हूँ, स्वतंत्र हूँ द्रष्टि में मगर
ओझल मैं
आत्मा से परतंत्र हूँ.
कहने को बढ़ रहा हूँ मैं.
पर जड़ों में न झांकिये
वहां से सड़ रहा हूँ मैं.
लोक को धकेलता
परलोक की मैं राह में,
कुछ मुसीबतों की आँख में
गड़ रहा हूँ मैं.
हूँ तो मैं कुँवर कोई
सलोना एक चाँद सा,
पर ग्रहणों की छाया से
पिछड़ रहा हूँ मैं.
मैं अश्व हूँ महाबली,
पर सामने नदी चढ़ी
भ्रष्टों की खेप की,
झूठ की फरेब की,
जो घुड़सवार मेरा है
उसको फिक्र रहती है
सिर्फ अपनी जेब की,
बस इसलिए बिन बढ़े,
तट पे अड़ रहा हूँ मैं.
जड़ों में न झांकना
वहां से सड़ रहा हूँ मैं...
वहां से सड़ रहा हूँ मैं....
दीपक 'मशाल'

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

मैं इक बेरोजगार हूँ..#############

हमारे देश कि बढती हुई जनसँख्या आज से ही नहीं बल्कि बीते कई सालों से देश कि सबसे बड़ी समस्या या ये कहें कि समस्याओं की जड़ है. बाकी जितनी भी बड़ी समस्याएँ है सब इस बढती जनसँख्या का ही परिणाम हैं, यहाँ मैं बेरोज़गारी कि समस्या को, एक बेरोजगार नवयुवक के दर्द के माध्यम से उकेरने का प्रयत्न कर रहा हूँ.


मैं इक बेरोजगार हूँ,
मैं इक बेरोजगार हूँ.
नज़र में दुनिया के बेकार हूँ,
पर बेकारी के आलम से जन्मे
दर्द का तजुर्बेकार हूँ.
मैं इक बेरोजगार हूँ.
सब मांगते हैं अनुभव,
पर
अनुभव के लिए
कोई नौकरी नहीं देता.
इसीलिए मैं बेगार हूँ,
मैं इक बेरोजगार हूँ.
खोखले वादों के
ख़खोल से उपजी
देश की
शिक्षा-प्रणाली की
एक हार हूँ.
मैं इक बेरोजगार हूँ.
झूठा मक्कार हूँ,
बरसात में
टूटी हुई छत को तकते,
किसी
बाप का इन्तेज़ार हूँ.
मैं इक बेरोजगार हूँ.
खामोश है जो,
कुछ कह नहीं सकती
जिगर के टुकड़े से,
दर्द में तड़पती उस
बीमार माँ का गुनहगार हूँ.
मैं इक बेरोजगार हूँ.
जो
मुझमें तलाश बैठी है
सपने कई अपने,
ढलती उम्र ढोती हुई
उस नादान का मैं प्यार हूँ.
मैं इक बेरोजगार हूँ.
दूर के
और करीब के,
सम्बन्धियों की
नज़रों में,
मैं पढालिखा गंवार हूँ.
मैं इक बेरोजगार हूँ.
जो चहकते थे
संग खुशियों में,
अब
उन यारों की
उपेक्षा का शिकार हूँ.
मैं इक बेरोजगार हूँ.
देखता नहीं मैं
आइना,
कैसे सामना
करुँ खुद का?
मैं खुद का कसूरवार हूँ.
मैं इक बेरोजगार हूँ......

दीपक 'मशाल'
चित्रांकन- दीपक 'मशाल'

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

क्या ब्लॉगजगत का भी यही हाल है????????????

क्या ब्लॉगजगत का भी यही हाल है??? शायद हाँ, शायद ना.... यानि कि अभी तक पूरी तरह से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा हूँ लेकिन फिर भी इतना तो तय है कि एक वर्ग विशेष के ब्लॉग कि तरफ हमारा कुछ ज्यादा झुकाव रहता है. अरे आप अभी नाराज़ होके डाँटीए तो मत...... मैं देख रहा हूँ ना अभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा,, इस बात पर भी शोध चल रहा है.... तब तक देखिये कि साहित्य जगत में क्या चल रहा है.


<एक लघु कथा का अंत>




" डा. विद्या क्या बेमिसाल रचना लिखी है आपने! सच पूछिए तो मैंने आजतक ऐसी संवेदनायुक्त कविता नहीं सुनी", "अरे शुक्ला जी आप सुनेंगे कैसे? ऐसी रचनाएँ तो सालों में, हजारों रचनाओं में से एक निकल के आती है. मेरी तो आँख भर आई" "ये ऐसी वैसी नहीं बल्कि आपको सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी वर्मा जी की श्रेणी में पहुँचाने वाली कृति है विद्या जी. है की नहीं भटनागर साब?"
एक के बाद एक लेखन जगत के मूर्धन्य विद्वानों के मुखारबिंद से निकले ये शब्द जैसे-जैसे डा.विद्या वार्ष्णेय के कानों में पड़ रहे थे वैसे वैसे उनके ह्रदय की वेदना बढ़ती जा रही थी. लगता था मानो कोई पिघला हुआ शीशा कानों में डाल रहा हो. अपनी तारीफों के बंधते पुलों को पीछे छोड़ उस कवि-गोष्ठी की अध्यक्षा विद्या अतीत के गलियारों में वापस लौटती दो वर्ष पूर्व उसी स्थान पर आयोजित एक अन्य कवि-गोष्ठी में पहुँच जाती है, जब वह सिर्फ विद्या थी बेसिक शिक्षा अधिकारी डा.विद्या नहीं. हाँ अलबत्ता एक रसायन विज्ञान की शोधार्थी जरूर थी.
 शायद इतने ही लोग जमा थे उस गोष्ठी में भी, सब वही चेहरे, वही मौसम, वही माहौल. सभी तथाकथित कवि एक के बाद एक करके अपनी-अपनी नवीनतम स्वरचित कविता, ग़ज़ल, गीत आदि सुना रहे थे. अधिकांश लेखनियाँ शहर के मशहूर डॉक्टर, प्रोफेसर, वकील, इंजीनियर और प्रिंसिपल आदि की थीं. देखने लायक या ये कहें की हँसने लायक बात ये थी की हर कलम की कृति को कविता के अनुरूप न मिलकर रचनाकार के ओहदे के अनुरूप दाद या सराहना मिल रही थी. इक्का दुक्का ऐसे भी थे जो औरों से बेहतर लिखते तो थे लेकिन पदविहीन या सम्मानजनक पेशे से न जुड़े होने की वजह से आयाराम-गयाराम की तरह अनदेखे ही रहते. गोष्ठी प्रगति पे थी, समीक्षाओं के बीच-बीच में ठहाके सुनाई पड़ते तो कभी बिस्कुट की कुरकुराहट या चाय की चुस्कियों की आवाजें. शायद उम्र में सबसे छोटी होने के कारण विद्या को अपनी बारी आने तक लम्बा इन्तेज़ार करना पड़ा. सबसे आखिर में लेकिन अध्यक्ष महोदय, जो कि एक प्रशासनिक अधिकारी थे, से पहले विद्या को काव्यपाठ का अवसर अहसान कि तरह दिया गया. 'पुरुषप्रधान समाज में एक नारी का काव्यपाठ वो भी एक २२-२३ साल की अबोध लड़की का, इसका हमसे क्या मुकाबला?' कई बुद्धिजीवियों की त्योरियां खामोशी से ये सवाल कर रहीं थीं.
वैसे तो विद्या बचपन से ही कविता, कहानियां, व्यंग्य आदि लिखती आ रही थी लेकिन उसे यही एक दुःख था की कई बार गोष्ठियों में काव्यपाठ करके भी वह उन लोगों के बीच कोई विशेष स्थान नहीं अर्जित कर पाई थी. फिर भी 'बीती को बिसारिये' सोच विद्या ने एक ऐसी कविता पढ़नी प्रारंभ की जिसको सुनकर उसके दोस्तों और सहपाठियों ने उसे पलकों पे बिठा लिया था और उस कविता ने सभी के दिलों और होंठों पे कब्ज़ा कर लिया था. फिर भी देखना बाकी था की उस कृति को विद्वान साहित्यकारों और आलोचकों की प्रशंसा का ठप्पा मिलता है या नहीं.
तेजी से धड़कते दिल को काबू में करते हुए, अपने सुमधुर कन्ठ से आधी कविता सुना चुकने के बाद विद्या ने अचानक महसूस किया की 'ये क्या कविता की जान समझी जाने वाली अतिसंवेदनशील पंक्तियों पे भी ना आह, ना वाह और ना ही कोई प्रतिक्रिया!' फिर भी हौसला बुलंद रखते हुए उसने बिना सुर-लय-ताल बिगड़े कविता को समाप्ति तक पहुँचाया. परन्तु तब भी ना ताली, ना तारीफ़, ना सराहना और ना ही सलाह, क्या ऐसी संवेदनाशील रचना भी किसी का ध्यान ना आकृष्ट कर सकी? तभी अध्यक्ष जी ने बोला "अभी सुधार की बहुत आवश्यकता है, प्रयास करती रहो." मायूस विद्या को लगा की इसबार भी उससे चूक हुई है. अपने विचलित मन को सम्हालते हुए वो अध्यक्ष महोदय की कविता सुनने लगी. एक ऐसी कविता जिसके ना सर का पता ना पैर का, ना भावः का और ना ही अर्थ का, या यूँ कहें की इससे बेहतर तो दर्जा पांच का छात्र लिख ले. लेकिन अचम्भा ये की ऐसी कोई पंक्ति नहीं जिसपे तारीफ ना हुई हो, ऐसा कोई मुख नहीं जिसने तारीफ ना की हो और तो और समाप्त होने पे तालियों की गड़गडाहट थामे ना थमती.
साहित्यजगत की उस सच्ची आराधक का आहत मन पूछ बैठा ''क्या यहाँ भी राजनीति? क्या यहाँ भी सरस्वती की हार? ऐसे ही तथाकथित साहित्यिक मठाधीशों के कारण हर रोज ना जाने कितने योग्य उदीयमान रचनाकारों को साहित्यिक आत्महत्या करनी पड़ती होगी और वहीँ विभिन्न पदों को सुशोभित करने वालों की नज़रंदाज़ करने योग्य रचनाएँ भी पुरस्कृत होती हैं.'' उस दिन विद्या ने ठान लिया की अब वह भी सम्मानजनक पद हासिल करने के बाद ही उस गोष्ठी में वापस आयेगी.
वापस वर्तमान में लौट चुकी डा. विद्या के चेहरे पर ख़ुशी नहीं दुःख था की जिस कविता को दो वर्ष पूर्व ध्यान देने योग्य भी नहीं समझा गया आज वही कविता उसके पद के साथ अतिविशिष्ट हो चुकी है. अंत में सारे घटनाक्रम को सबको स्मरण कराने के बाद ऐसे छद्म साहित्यजगत को दूर से ही प्रणाम कर विद्या ने उसमें पुनः प्रवेश ना करने की घोषणा कर दी. अब उसे रोकता भी कौन, सभी कवि व आलोचकगण तो सच्चाई के आईने में खुद को नंगा पाकर जमीन फटने का इन्तेज़ार कर रहे थे.

दीपक 'मशाल'
चित्रांकन- दीपक 'मशाल'

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

बहुत मन से लिखी है ये पोस्ट उम्मीद है आपको पसंद आएगी.****************************


बहुत मन से लिखी है ये पोस्ट उम्मीद है आपको पसंद आएगी..............

बिक चुके इन्साफ ने जब फैसला उसका किया,
सुन के वो तो हँस दिया मुंसिफ मगर रोने लगा.


थक गया पढ़ के खबर, सच्चाइयों के क़त्ल की,
कल से कुछ उम्मीद कर वो आज फिर सोने लगा.


जाने किसने कह दिया, इंसां का खूँ पानी हुआ,
भीगे हुए हाथ अपने फिर से वो धोने लगा.

उगती कहाँ थीं बालियाँ बारिश बिना उस खेत में,
भूल के अच्छा-बुरा वो असलहे बोने लगा.


ले कलम कहता था चल असलियत ढूंढें कहीं,
अब हाथ धर के पेट पे, झूठ वो ढोने लगा.


गौर से सुनिए 'मशाल' कह रहा है क्या खुदा,
बँट चुका इतना हूँ अब पहचान मैं खोने लगा.


दीपक 'मशाल'
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार लिया गया.

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

तकलीफ भरा अंत भी होता है प्यार का,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,


'तकलीफ भरा अंत भी होता है प्यार का, इस अंजुमन में सिर्फ खुशियाँ नहीं मिलतीं.' इसीलिए अगर
 आपने किसी से प्यार किया है तो हर अंजाम के लिए तैयार रहें कहीं ऐसा ना हो कि अपने उन से जुदा होके आपके चोट खाए दिल को भी मजबूरी में ये कहना पड़े कि-

मैं जब इक सांस लेता हूँ तो दूजी भूल जाता हूँ,
तुम्हारे हिस्से का अब मैं हर काम भूल जाता हूँ.

सुबह होती है दिन में ये तो याद रहता है,
ना जाने क्यों हर दिन की शाम भूल जाता हूँ.


दिल सुनता नहीं मेरी जिहन से कुछ कह नहीं पाता,
मैं सुन लेता हूँ बातों को, कहना भूल जाता हूँ.


कुछ इस तरह हो गया खाना भी आजकल,
रोटियां तोड़ लेता हूँ, साग मैं भूल जाता हूँ.


तुम्हारा नाम तो हर वक़्त मुझको याद रहता है,
अक्सर ही मगर अपना नाम मैं भूल जाता हूँ.


जब कुछ सोचता हूँ 'मशाल' तुम ही याद आते हो,
प्यार तो याद रहता है, मैं झगड़े भूल जाता हूँ.

दीपक 'मशाल'
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार प्राप्त.

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

बच्चों को दे रहे हैं कसाब वाली बन्दूक....... आखिर क्या चाहते हैं हम?????????????

अभी टाईम्स ऑफ़ इंडिया में समाचार पढ़ते हुए अचानक नज़र एक ऐसी खबर पर चली गई, जो की एक तरह से अवांछित सी लगी. अवांछित इसलिए की इस घृणित आतंकवादी को हमारी मीडिया पहले ही हीरो की तरह प्रस्तुत कर चुकी है, आये दिन उसके बारे में खबरें आती है की क......(बार बार उसका नाम लेके मैं अपनी जबान गन्दी नहीं करना चाहता) ने गीता मांगी, कभी मटन बिरयानी मांगी तो कभी उसने येही कह दिया की भारतीय न्यायालयों पर उसे भरोसा नहीं(इस सा..... को तो जनता की अदालत में ही छोड़ना बेहतर है). हम राक्षसों के लिए मानवाधिकार संगठनों से डर रहे हैं वाह भाई वाह...
लेकिन सच में जो खबर मैंने पढ़ी वो चौंकाने वाली ही नहीं बल्कि अपने बाल नोंच लेने वाली थी, दीवाली के मौके पर मुंबई बाज़ार में आई एक खिलौना बन्दूक जो की ए.के. ४७(३ इन १) का प्रतिरूप थी उसे यह कह के प्रचारित किया गया की यह वही बन्दूक है जो उस कसाई क......  ने ७२ लोगों को मरने के लिए इस्तेमाल की थी. अलग अलग बयानों से पता चलता है की कुछ बेचने वालों ने अपने तुच्छ निजी हित के लिए इसे इस तरह प्रचारित किया तो कुछ बच्चों के अभिभावकों की उत्सुकता ने जबरदस्ती उस गन को 'क...... वाली बन्दूक' बना दिया. ये तो नहीं पता की किसने, कैसे और क्यों इस नाम से बन्दूक को बेचने की शुरुआत की लेकिन जिस तरह से कई बच्चों और उनके मम्मी पापा ने इस नाम से ये खिलौना माँगा इससे साफ़ पता चलता है की इन लोगों को किसी के जीने-मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता. ये लोग भी उस हत्यारे को महिमामंडित करने में जुटे हैं. अरे आज तक किसी बच्चे के लिए अब्दुल हमीद की तोप या सालसकर की रायफल या उन्नीकृष्णन की मशीनगन के प्रतिरूप क्यों नहीं मांगे गए(वैसे मैं तो बच्चों के हाथ में इस तरह के खिलौने देने का ही पक्षधर नहीं हूँ)? क्या बनाना चाहते हैं आखिर ये लोग अपने बच्चों को? क्या इन्हें ज़रा भी आभास नहीं की इन सब चीज़ों का बालमन पर क्या प्रभाव पड़ता है? कैसे ये लोग खुद को देशभक्त कह सकते हैं?
एक समय था जब हम भगत सिंह के ऊपर लिखी गई कविता 'मैं बन्दूक उगाऊंगा....' पढ़ते थे और आज एक हत्यारे के नाम से हम वो गन खरीद कर अपने बच्चों के मन में आतंकवाद के खिलाफ नफरत ना भर के एक आतंकवादी को हीरो बना रहे हैं. शर्म आती है ऐसे लोगों के हिन्दुस्तानी होने पे....
आप चाहें तो खुद ये समाचार इस लिंक पर देख सकते हैं-
http://timesofindia.hotklix.com/link/news/India/Qasabs-Gun-fires-up-Diwali

सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

कोई कमी तो रहती होगी.......................................................................

इस कविता के माध्यम से मैंने एक ऐसी लड़की के मन के भावों को उभारने की कोशिश की है जो सामाजिक रीतियों में बंधी होने के साथ स्वयं को पति द्वारा परित्यक्त होने के दंश को झेल रही है और पुरुषवादी समाज द्वारा अपने पर किये गए अत्याचार को भी अपनी ही कोई भूल मान के दुखी है.

छोड़ के तन्हा चले गए तुम
कोई कमी तो रहती होगी
मजबूरी या अविश्वास की
कोई नदी तो बहती होगी.
सात जनम के रिश्ते टूटे
इक बिना किसी सी बात पे
मेरी बातों के जादू में
कोई कमी तो रहती होगी.
मैं अनपढ़ थी पढ़ ना पाई
तुमरे ह्रदय की पाती को
और जो मैंने लिखा था उसमे
कोई कमी तो रहती होगी
वो रात है अब भी ताज़ा मन में
जब फेरे लिए थे हमने सात
पर मेरे मन के फेरों में ही
कोई कमी तो रहती होगी.
हंस के ही बातों बातों में
मुझको तुम बतलाते तो
जो कोई और कमी थी मुझमे
तुम मुझे सिर्फ जतलाते तो
शायद जतलाया भी हो तुमने
पर मैं ही कुछ ना समझ सकी
समझी ना मैं कोई इशारा
कोई कमी तो रहती होगी.
दीपक 'मशाल'

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

श्री शरद कोकस जी को समर्पित एक रचना


प्रिय दोस्तों और अग्रजजनों, आप सभी को तहेदिल से दीवाली कि शुभकामनायें....और ना सिर्फ दीपावली बल्कि इसके बाद गोवर्धनपूजा एवं भाईदूज की भी...
ये एक रचना जो मैं आज भावुक होकर आपके सामने रख रहा हूँ इसको पूरा करने में बहुत बड़ा हाथ श्री शरद कोकस जी का है(और उन तक पहुँचने में मदद की श्री महफूज अली भाई ने). मैंने हर बार की तरह एक तारीख की तरह गुजर रहे इस त्यौहार पे सोचने की कोशिश की के मैं तो वतन से इतने दूर बैठा हूँ, क्या मेरे माता-पिता, जिनका की मैं इकलौता बेटा हूँ, सोचते होंगे. बस मन में जो भी भाव आये उन्हें कागज़ पे संकलित कर लिया(जब मैंने अपनी मम्मी को ये पढ़ के सुनाया और उनसे पूछा की मैं कितना सही सोच पाया, तो फ़ोन के दूसरे सिरे पे बहती अश्रुधारा सहज ही महसूस की जा सकती थी). लेकिन उन कच्चे भावों को  एक हीरे की तरह तराशा श्री शरद जी ने और मैं नहीं चाहता था की उन्होंने मेरा जो मार्गदर्शन किया वो मैं अपनी रचना बना कर दुनिया को दिखाऊं. इसलिए जो टूटा फूटा मैंने लिखा उसे और उसको शरद जी द्वारा अलंकृत करके खूबसूरत जामा पहना कर एक पढने लायक रचना बनाने के बाद जो रूप आया उसे, दोनों को पोस्ट कर रहा हूँ जिससे की आप भी एक उत्कृष्ट समीक्षक से रूबरू हो सकें जो की सिर्फ सामाजिक न्याय दिलाने और अन्धविश्वास मिटाने में ही नहीं कलम को एक वृक्ष बनाने के लिए उसका सहारा बनने से भी गुरेज़ नहीं करते.
पहले बिखरे भावों के साथ टूटी-फूटी रचना-
इस बार दिवाली सूनी सी है,
दिल की उदासी दूनी सी है.
बेटा है परदेस में बैठा,
माँ-बाप की आँख में धूली सी है.
कितने दीप जले आँगन में,
पर अँधेरा फैला था मन में.
इकबार अगर तू आ जाता,
हलचल सी हो जाती तन में.
देखो-देखो तो ये बाती,
बुझी-बुझी सी लगती है,
कितनी चीनी पड़ी खीर में,
पर फीकी सी लगती है.
जो नयन हमारे हुए समंदर,
क्या याद तुझे ना आती होगी.
उड़के बादल की कोई टुकडी,
क्या तेरी आँख ना छाती होगी.
तारीखें अब याद कहाँ हैं,
बस ऐसे गिनते हैं दिन.
कितने दिन के गए हुए तुम,
आने में कितने हैं दिन.
दिन गिनते हैं अब तो केवल,
उल्टे अपने जीवन के.
जीते जी इकबार तू आजा,
चाहे ना आना बाद मरन के.
जाने क्यों ये ख्वाब क्यों आया,
के तू लौट के आया है.
शायद उमर का असर भी हमपे,
पागलपन सा छाया है.
सुख से रहो जहाँ भी जाओ,
धन पाओ और नाम कमाओ.
अच्छा है मर जाएँ हम,
इक नया जनम फिर पायें हम,
इतनी है बिनती भगवन से,
हम आयें तेरे बच्चे बन के
हम आयें तेरे बच्चे बन के..
दीपक 'मशाल'


अब गुरु श्री शरद जी द्वारा संशोधित करने के बाद रचना जो की एक पूर्ण कविता बनी-
इस बार दिवाली सूनी है,
उनकी उदासी दूनी है.
जिनके बच्चे है परदेस में
माँ-बाप की आँखें सूनी हैं
कितने दीप जले आँगन में,
पर तम फैला था मन में.
इकबार अगर वे आ जाते
हलचल सी हो जाती तन में.

देखो-यह जलती बाती भी
बुझी-बुझी क्यों लगती है,
मीठे लड्डू मीठी है खीर ,
पर फीकी सी लगती है.

ये नयन उनके हुए समंदर,
क्या याद उसे ना आती होगी.
क्या यादों की कोई बदली
उसके मन पर् ना छाती होगी.

तारीखें अब याद कहाँ हैं,
बस ऐसे ही गिनते हैं दिन.
कितने दिन गए हो गए,
आने में कितने हैं दिन.

दिन गिनते हैं अब तो केवल,
उल्टे अपने जीवन के.
जीते जी इकबार वो आये
ना आये बाद वो मरने के.

रोज़ रोज़ यह ख्वाब है आता
जैसे वह लौट के आया है.
शायद यह उमर का असर है
पागलपन सा छाया है.

सुख से रहे जहाँ भी जाये,
धन पाये और नाम कमाये.
बस इतनी अभिलाषा है
जीवन का क्या है
पानी मे भीगा बताशा है ।
दीपक 'मशाल' एवं श्री शरद कोकस

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

ये सपना कभी पूरा हो पायेगा???????????



'जब तक रोटी के प्रश्नों पर,
पड़ा रहेगा भारी पत्थर...
पड़ा रहेगा भारी पत्थर...
कोई मत ख्वाब सजाना तुम..
मेरी गली में,
ख़ुशी खोजते..
अगर कभी जो आना तुम......'
ये गीत आज से १०-११ साल पहले,जब इप्टा(इंडियन पीपुल'स थिएटर एसोशिएसन) की नगर इकाई में काम करता था, उस वक़्त सुनने, गाने को मिला.  हम(मैं और दूसरे साथी कलाकार) गाँव-गाँव, गली-गली और चौराहों पर सामाजिक विषयों या नागरिक हितों को लेकर जागरूकता फैलाने में लगे रहते थे. गीत गाते, नुक्कड़ नाटक करते सभा करते और हमें लगता की एक दिन ये सब करके हम सच्चा स्वराज स्थापित कर लेंगे, एक पूर्ण स्वराज जिसका नारा १९२७ से भी पहले मौलाना हसरत मोहानी जैसे देशभक्तों ने दिया था, जिसे उस समय कि कांग्रेस पार्टी ने काफी ना नुकुर के बाद बाद के सालों में स्वीकार कर लिया था. लेकिन तब से करीब ८० साल बीत जाने के बाद भी 'पूर्ण स्वराज्य' अभी तक एक नारा ही है. इसको हकीकत में तब्दील करने का सपना देखने वाले ये सपना अपनी आँखों में लिए हुए रुखसत कर गए और कुछ सालों बाद हम भी उसी जमात में शामिल हो जायेंगे. लेकिन देश की संपन्नता, सुख और समृद्धि को जिस तरह से राजनीतिक और शीशमहलों में रहने वाले गिद्ध चारों ओर से घेरे हुए हैं, लगता तो नहीं की खुली आँख का देखा ये सपना कभी पूरा हो पायेगा.

अभी संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ने खुलासा किया की विश्व में १ अरब से ज्यादा लोग रोज़ भूखे पेट सोते हैं, अब ज़ाहिर है इसमें एक बहुत बड़े हिस्से की भागीदारी हमारी भी होगी. भला जनसँख्या, गरीबी, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, अशिक्षा.............आदि दोषों को सहर्ष अग्रपंक्ति में खड़े होकर अपनाने वाले महाद्वीप से लोग इस भुखमरी की रेस में कैसे पीछे रहेंगे.
कहते हैं हमारा देश जलवायु की दृष्टि से सर्वाधिक विभिन्नता भी रखता है अमूमन ५० डिग्री का अंतर तो रहता ही है सालाना अधिकतम और न्यूनतम तापमानों के मध्य. ठीक वैसा ही उतना ही बड़ा अंतर है यहाँ के अमीर और गरीब के बीच, इसी देश में दुनिया के सबसे अमीरों में से कुछ लोग रहते हैं और सबसे गरीब भी. किसी के पास सुबह उठकर सबसे बड़ी समस्या होती है की आज कौन सी हीरे की घड़ी पहने या कौन सी कार से ऑफिस जाएँ, तो दूसरी तरफ गरीब सोचता है की आज कैसे दोपहर का खाना मिले और फिर उसके बाद कैसे शाम का. इस सब में बहुत बड़ा हाथ हमारे उद्योग पतियों का भी है, जो सिर्फ और सिर्फ अपनी जेबें भरना जानते हैं और ना सिर्फ आम आदमी को बल्कि सरकार को भी चूना लगाना जानते हैं. मैं समझता था की ये सब गुज़रे कल की बातें हैं आज के लोग अपने अधिकारों के प्रति इतने सचेत हैं की ऐसे हालात नहीं बन सकते. लेकिन कुछ दिन पहले एक मित्र ने जब बताया की उसके साथ ऐसा अभी भी होता है, तब लगा की कितनी महान आत्माएं अभी भी जिंदा हैं जिनका नाम वैम्पायर नहीं लेकिन काम वैम्पायर से कम् भी नहीं है..
हाल में पता चला की शिक्षा जगत में सुधार ये है कि इसी शहर के एक संगीत शिक्षक ने अपने छात्र कि पीअच.डी. थीसिस पे हस्ताक्षर करने से इसलिए इनकार कर दिया कि वह उनको ४०,००० रुपये गुरुदक्षिना देने में असमर्थ था, वाह रे गुरु. बताना तो उसका नाम भी चाह रहा था लेकिन सोच रहा हूँ ईश्वर उस गुरु को सदबुद्धि दे दे तो अच्छा है वर्ना मजबूरी में ऐसे महापुरुषों को भी सबके सामने लाना होगा.
उम्मीद है आप सभी भी अपने आसपास के महान चरित्रों पर ब्लॉग पर बेनकाब कर ऐसे भेड़ियों से समाज का परिचय कराएँगे.
जयहिंद...
दीपक 'मशाल'

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

एक पौधा हूँ मुझे बरगद बना दो,


एक पौधा हूँ मुझे बरगद बना दो,
मेरे मौला मुझपे भी तुम मुस्कुरा दो.
डरता हूँ रहता मैं अक्सर मुश्किलों से,
हिम्मतों को तुम मेरा मज़हब बना दो.
दे सकूं छाया मैं हर थकते पथिक को,
शाख को मेरी तुम इतना कर घना दो.
खींच लूं उड़ते हुए बादल की टुकड़ी,
मेरे पत्तों को प्रभू इतनी हवा दो.
मैं रहूँ जिंदा यहाँ जबतक धरा पे,
पंछियों के घोंसले मुझ पर सजा दो.
सूख जब जाऊँ तो लेके शाख इक-इक,
घर किसी मुफलिस से इंसां का बना दो.
सूंघ लूं मैं बू बुराई की कहीं भी,
इल्म का दीपक कोई मुझमें जला दो.
दीपक 'मशाल'

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

कोई ऐसी दवा दे दे, कि बस अतीत बन जाऊँ......

 
कोई इक खूबसूरत, गुनगुनाता गीत बन जाऊँ,
मेरी किस्मत कहाँ ऐसी, कि तेरा मीत बन जाऊँ.
तेरे न मुस्कुराने से, यहाँ खामोश है महफ़िल,
मेरी वीरान है फितरत, मैं कैसे प्रीत बन जाऊँ.
तेरे आने से आती है, ईद मेरी औ दीवाली,
तेरी दीवाली का मैं भी, कोई एक दीप बन जाऊँ.
लहू-ए-जिस्म का इक-इक, क़तरा तेरा है अब,
सिर्फ इतनी रज़ा दे दे, मैं तुझपे जीत बन जाऊँ.
नाम मेरा भी शामिल हो, जो चर्चा इश्क का आये,
जो सदियों तक जहाँ माने, मैं ऐसी रीत बन जाऊँ.
मुझसे देखे नहीं जाते, तेरे झुलसे हुए आँसू,
मेरी फरियाद है मौला, मैं मौसम शीत बन जाऊँ.
कहाँ जाये खफा होके, 'मशाल' तेरे आँगन से,
कोई ऐसी दवा दे दे, कि बस अतीत बन जाऊँ.
दीपक 'मशाल'

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

बस मांस का पुतला हूँ इक तुम खरीद लो साहिब...


समझ में नहीं आता कि कैसे अचानक मन में ये ख्याल आया कि देह बाज़ार से निकली कोई लड़की अपनी मजबूरी लेके सामने आके खड़ी है, और कुछ इस तरह अपनी मजबूरी बयां कर रही है-

इत्मीनान से देखो मुझे फिर खरीद लो साहिब,
बस मांस का पुतला हूँ इक तुम खरीद लो साहिब.
नख से लेके केश तक कर लो मुआइना मेरा,
पर दिल में मेरे न झांकिए बस खरीद लो साहिब.
ना बेटी, बहिन ना आपकी ना मैं बहू कोई,
जल जायेगा चूल्हा मेरा जो तुम खरीद लो साहिब
मंजूर है जो कुछ समय ज्यादा हो तुमको चाहिए,
जो दे सको देदो मुझे पर खरीद लो साहिब,
भूखी बहिन है घर में औ माँ मेरी बूढी सी है,
मिल जाएँगी दुआएं कई गर तुम खरीद लो साहिब..
दीपक 'मशाल'

रविवार, 11 अक्तूबर 2009

किसने कह दिया की गाँधी हिन्दू थे?

न चाह कर भी पता नहीं क्यों गाँधी जी के बंदरों की तरह नहीं बन पाता. अपने आसपास के लोगों को शोर मचाता और गलत रास्ते पे जाते देख चिल्लाने लगता हूँ.
'हर रोज वही
हिन्दुओं की बातें,
मुसलमानों के हिस्से........
जाने कहाँ खो गए,
इंसानों के किस्से.'
युगपुरुष और संवेदनशीलता के पर्याय महाकवि प्रदीप(दुःख का विषय है की सबको बार बार बताना पड़ता है की ऐ मेरे वतन के लोगों... के रचयिता) ने कहा भी है-
'सुनो जरा ऐ सुनने वालों
आसमां पे नज़र घुमा लो,
एक नज़र में करोड़ों तारे.
रहते हैं हिलमिल के सारे
कभी न वो आपस में झगड़ते
कभी न वो आपस में हैं लड़ते
नहीं किसी पर छुरे चलाते
नहीं किसी का खून बहाते
लेकिन इस इंसान को देखो
धरती की संतान को देखो
हाय रे है ये कितना कमीना
इसने औरों का सुख छीना......
डंस लिया देश को ज़हरी नागों ने,
घर को लगा दी आग घर के चिरागों ने.'
अगर हम बड़े लोगों के सिखाये को नहीं मान सकते तो क्या जरूरत है अपना अपना झंडा उठा के घूमने की. जिस ब्लॉग पे जाओ वहीँ पे गन्दगी का अम्बार मिलता है. बिना किसी का नाम लिए मैं कहना चाहूंगा की मेरे कुछ अज़ीज़ बड़े भाई जो हैं वो पता नहीं क्यों आसमान की तरफ नहीं देखते, ये नहीं देखते की उनसे ऊपर कितने लोग है, बस हमेशा यही देखते हैं की वो कितनों से ऊपर है, काश कभी ऊपर देख लें तो वो समझ सकें की यदि उन्हें कोई गुण मिला है जिसके कारण वो कहीं एडिटर जैसे महत्वपूर्ण पद पर पहुंचे हैं तो उस पे घमंड ठीक नहीं. बार बार लोगों को बताने का क्या फ़ायदा की मैं ये हूँ, फ़लाने समय तक, फ़लाने उम्र में ये बन चुका हूँ.
संघ का निर्माण हिन्दुस्थान को विश्व का  सिरमौर राष्ट्र बनाने के लिए हुआ और आज हम वो उद्देश्य भूल के हिन्दू मुस्लिम के नाम की वैमनस्यता फैला रहे हैं. जिसने भी किसी भी धर्म/ मज़हब की कोई किताब लिखी वो भी पहले इंसान रहा होगा, इस तरह जो धर्म बिना बनाये बना वो सबसे ऊपर हुआ न, तो आज वो सबसे ऊपर क्यों नहीं है? इंसानियत सबसे आगे क्यों नहीं है?

भूतकाल में जो हुआ उसे भूल के एक नयी शुरुआत क्यों नहीं करते, क्यों इतिहास से सबक नहीं लेते.
'बीती को बिसारिये, आगे की सुधि लेय'
स्वर्गवासी हो चुके अपने अमर शहीदों और देशभक्तों को भी नहीं बख्शते और उन्हें भी अपने जबरदस्ती के झगडे में खींच लाते हैं. किसने कह दिया की गाँधी हिन्दू  थे? हाँ गाँधी जी थे लेकिन इसलिए की वो एक हिन्दुस्तानी थे, इसलिए नहीं की वो श्री राम की पूजा करते थे, वो इन सब से पहले और बहुत ऊपर सिर्फ एक इंसान थे....
'ईश्वर अल्लाह तेरो ही नाम....' उन्होंने ही कहा था न?
ऐसे ही कब तक बांटोगे तुम इंसानियत धर्म के लोगों को हिन्दू और मुसलमान के हिस्सों में, क्यों उनकी आत्माओं को तकलीफ दे रहे हो. क्यों कबीर को, रहीम को, साईं बाबा को, हाजी अली को, खुर्रम शाह को जबरदस्ती मज़हब का तमगा बाँट रहे हो?
चलो तुम्हारी बात ही मान लेते हैं मज़हब को हिन्दू को, मुसलमान को ही मानना है तो उसी के हिसाब से चलते हैं, लेकिन अगर चलना ही है तो औरों की बुराइयों को मत देखो अपने मज़हब की अच्छाइयों को देखो, अपने धर्म की बुराइयों को दूर करो. मेरे मत से कोई धर्म कोई मज़हब बुरा नहीं बस हम उसे समझ नहीं पाते और बस दूसरों के धर्म की बुराइयां खोजके उसे नीचा दिखने की कोशिश में लगे हैं. किसके खुदा या भगवान ने उसके ख्वाब में आके कहा की सिर्फ तुम्हारा मज़हब/ धर्म ही महान है और बाकी सब बेईमान है, तुम्हारे अलावा सबको दोज़ख मिलेगा...किसीके ख्वाब में आया आज तक कोई खुदा कोई भगवान? '
क्यों बिसराते हो कबीर को-
'बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिल्या कोय,
जो मन देखा आपना, मुझसे बुरा न कोय.'
क्यों हम अपनी गिरेबां में झांके बिना लोगों को गालियाँ देते हैं, आखिर क्यों?
सबको बुद्धि मिली है, सबमे शक्ति है की खुद को और अपनी अच्छाइयों-बुराइयों को समझ सके, हम क्यों थोपना चाहते है अपनी समझ को किसी और पर(ये बात मेरे ऊपर भी लागू होती है). बेहतर होगा की अपनी क्षमताओं का प्रयोग दुनिया को एक बेहतर रहने की जगह में तब्दील करें और अपनी आने वाली पीडिओं को विरासत में वैमनस्य की बजाय एक सुन्दर विश्व उपहार में दें.
माफ़ करें मैंने जान बूझकर टाइटल ऐसा दिया है की ज्यादातर लोगों के पास मेरी बात पहुंचे. और किसी के दिल को ठेस पहुँचने वाली कोई गलत बात कह गया होऊं तो छोटा और नादाँ समझ के क्षमा कर देवें वरना गाली देंगे तो उसकी भी आपको पूरी आज़ादी है.
जय हिंद

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

बेज़ार मैं रोती रही, वो बे-इन्तेहाँ हँसता रहा.



बेज़ार मैं रोती रही, वो बे-इन्तेहाँ हँसता रहा.
वक़्त का हर एक कदम, राहे ज़ुल्म पर बढ़ता रहा.
ये सोच के कि आँच से प्यार की पिघलेगा कभी,
मैं मोमदिल कहती रही, वो पत्थर बना ठगता रहा.
उसको खबर नहीं थी कि मैं बेखबर नहीं,
मैं अमृत समझ पीती रही, वो जब भी ज़हर देता रहा.
मैं बारहा कहती रही, ए सब्र मेरे सब्र कर,
वो बारहा इस सब्र कि, हद नयी गढ़ता रहा.
था कहाँ आसाँ यूँ रखना, कायम वजूद परदेस में,
पानी मुझे गंगा का लेकिन, हिम्मत बहुत देता रहा.
बन्ध कितने ढंग के, लगवा दिए उसने मगर,
'मशाल' तेरा प्रेम मुझको, हौसला देता रहा.
दीपक 'मशाल'

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

मैं तुम्हारा अपराधी हूँ छोटी बऊ........

छोटी बऊ(दादी) वो महान आत्मा थीं, जिन्होंने मुझे जो स्नेह, जो दुलार दिया वो आज तक मैं ढूँढता हूँ. असल में छोटी बऊ मेरे बाबा कि चाची थीं जो ताउम्र कहने को तो कोख से एक संतान को जन्म न दे पाने के कारण निःसंतान रहीं लेकिन आस पड़ोस में और घर में कोई ऐसी संतान न थी, जिसके लिए वो माँ न हों...
शायद ये कविता हो लोगों के लिए मगर-
मेरे लिए ये एक अतुलनीय प्रेम के आदर्श का प्रतिष्ठापन है,
जो देते हैं लोग आराध्य को उससे भी ऊंचा आसन है.

हर आघात में ढाल थीं तुम,
थीं देखने में छोटी मगर
ह्रदय से धरती सी विशाल थीं तुम.
तुम थीं इक मूरत त्याग की
सेवा और निस्वार्थ की,
कभी सुना न नाम ईश्वर का
मुख से तुम्हारे,
पर स्वमेव ईश्वर का अर्थ थीं तुम.
दूध मैं पी जाता था
और
लेजम से मार खाती थीं तुम छोटी बऊ....
मार मुझे मिलती पापा से और
अपना माथा लहूलुहान कर लेतीं थीं तुम छोटी बऊ....
चिड़ियों के नन्हे शिशुओं को
मिलता जो भाव सुरक्षा का,
नीड़ में, माँ के परों के संरक्षण में,
वैसा ही अहसास मिला मुझको
तुम्हारे आँचल में छोटी बऊ....
तुम्हारी एक गथूली,
एक बिछौनियाँ वाले बिस्तर में छोटी बऊ....
तुम्हारी धोती की गाँठ में बंधा
वो दस पैसे का सिक्का,
मेरे लिए आज की
हजारों, लाखों की कमाई से बड़ा था.
जब अक्ल नहीं थी मुझमें
तो तुमने ही चवन्नी देकर कहा था-
'मुकुन्दी पंसारी से ले आओ'
और मैं चला भी गया था,
अक्ल खरीदने.
तुम्हारी चवन्नी से मुझे
अक्ल तो न मिली पर तुम सिखा गयीं
मोल रिश्तों का छोटी बऊ.......
अभी भी हैं प्रतिध्वनित
तुम्हारे लोकगीत,
शोर से घिर चुके मेरे इन कानों में-
'मैना बोली चिरईंयन  के नोते हम जाएँ....
मैना बोल गयी.....'
आज जब लता दी भी
नहीं चाहती बनना बिटिया दोबारा,
तुमने तब भी कहा था
'अगले जनम बिटिया ही बनूँ मैं...
आज अनपढ़ तो क्या...
अगले जनम बी.ए., ऍम. ए. पढूं मैं....'
अब क्या दिला पायेगी अहसास,
सुरक्षा का तुम्हारे जैसा,
कोई प्रेमिका?
तुम्हारे जाने के बाद
खोजता रहा ठीक तुम्हारे जैसा..
प्यार, संरक्षण और ममता...
मेरी खुद की माँ में,
शायद खोजूंगा सेवा, समर्पण, त्याग भी
अपनी होने वाली भार्या में....
पर सबसे तुलना
सिर्फ तुम्हारी होगी छोटी बऊ...
और पता है कितना ही सुख पा जाऊँ,
पर हरदम जीत तुम्हारी होगी छोटी बऊ...
मदर टेरेसा ना मिलीं मुझे,
पर तुममें देखा उन्हें प्रत्यक्ष...
तुम थीं, हाँ तुम्ही हो
मेरी ग्रेट मदर टेरेसा छोटी बऊ...
मैं कान्हा तो न बन पाया
पर तुम थीं बढ़के जशोदा से.....
अरे जशोदा ने तो कृष्ण को
अपने पुत्र के भ्रम में पाला
पर....
ये जान के भी, मैं नहीं अंश तुम्हारा
तुमने अपने अंश में मुझको ढाला....
आज सोचता हूँ
की क्या है फर्क तुममें और कबीर में?
कबीर ने त्यागी थी देह मगहर में,
ये भ्रम तोड़ने को कि
वहां मरने पे मिलता था नर्कधाम...
और तुमने
ताउम्र न माना ईश्वर को छोटी बऊ...
फिर भी लगीं रहीं सद्कामों में..
और मृत्यु ने तुम्हारा वरण किया था
देवोत्थानी ग्यास को,
मर जाते हैं कितने साधू
लेकर इसी अभिलाष को.....
लेकिन मृत्यु भी तुम्हे मार न सकी छोटी बऊ....
तुम अमर हो मेरी.... हमारी स्मृति में...
आज जब नहीं खोज पाता कोई
इस स्वार्थी दुनिया में अपना सा...
तो समझ आता है कि......
तुम्हारे जाने से क्या खोया छोटी बऊ...
याद है अभी भी मुझे
वो अंग्रेजी का होम वर्क जो मैं पूरा न कर पाया था
देह त्याग कर तुमने अपनी
मुझे मार से बचाया था छोटी बऊ...
मेरे मन में पनपा टीचर से मार का डर,
तुम्हारी मृत्यु ने ख़त्म कर दिया था छोटी बऊ...
क्योंकि मैं स्कूल जाने से बच गया था...
और मैं इतने से फायदे  के लिए
तुम्हारे मरने पे खुश था छोटी बऊ....
हाय मैं अभागा......
न समझा तुम्हारा वात्सल्य, तुम्हारा स्नेह और दुलार...
एक तुम थीं जिसने मर के भी
मुझे मार खाने से बचाया था
और एक मैं था
जो तुम्हारी मौत पे हर्षाया था.....
जब तक समझा मैं
कि क्या थीं छोटी बऊ....
तुम उससे पहले ही साथ छोड़ गयीं,
अब कैसे उर्रण हो पाऊंगा मैं,
बस तुम्हे स्मृति में बसा के
गीत तुम्हारे गाऊंगा मैं...
देव बन के तुम मुझे
दे रहीं अशीष लख-लख,
पर कह रहा मुझसे
ये मेरा ज़मीर पग-पग ....
मैं तुम्हारा अपराधी हूँ छोटी बऊ,
मैं तुम्हारा अपराधी हूँ छोटी बऊ........
दीपक 'मशाल'

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

मुझे अब जाग जाने दो

बहुत सोया रहा अब तक,
मुझे अब जाग जाने दो,
अरे ख्वाबों के शहजादों,
रौशनी रास आने दो.

बहुत सोया रहा अब तक,
झूठ के शामियाने में,
ओ सच के आसमां अब तो,
ज़रा सा पास आने दो.

मैं रोया हूँ तेरे दुःख में,
कलम भी आजमाया है,
मिटाने दो तेरे दुःख माँ,
खड्ग मुझको उठाने दो.

बहुत खुद को सम्हाला था,
धैर्य का बोलबाला था,
हावी हैवाँ हो गए अब,
क़यामत मुझको ढाने दो.

पाप है बढ़ गया इतना,
मैली गंगा हो गयी,
लाने दो नया युग अब,
नयी गंगा बहाने दो.

न गम करना ज़रा भी तुम,
जो नरभक्षी मैं हो जाऊं,
इन शैतानों के बेटों से,
भूख अपनी मिटाने दो.

जान जो कर गए अर्पण,
मान तेरा बढ़ाने में,
नहीं वो आएंगे वापस,
नए कुछ नाम लाने दो.

तेरी सौगंध मुझको माँ,
जो ना गौरव दिला पाऊं,
खड़ी होगी मौत दुल्हन,
गले उसको लगाने दो.
दीपक 'मशाल'

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

कभी वो सूरज से मिलाता था नज़र ,



कभी वो सूरज से मिलाता था नज़र ,
अब नज़र खुद से मिलाई नहीं जाती.

बात करता था कभी गरज से बादल की,
अब सदा खुद की ही सुनायी नहीं जाती..

ऐसे भीगी हैं पलक अबके सावन में,
लाख तूफां से वो सुखाई नहीं जाती.

तेरे आँगन में बिछा के आया था जो,
वो किरच आँख से उठाई नहीं जाती.

तेरी यादों को संजोने की जगह मिलती नहीं,
नापाक दिल में ये खुश्बू बसाई नहीं जाती.

चाँद आये कभी जो तेरी गली तो कह देना,
दोस्ती चाँदनी से अब निभाई नहीं जाती.

इस कदर तुम से खफा हो गया वो 'मशाल',
की वजह-ए-खामोशी भी बताई नहीं जाती..

दीपक चौरसिया 'मशाल'

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

टिप्पणियों की प्यास में किसी की इज्ज़त की बलि न चढाएं.....ब्लॉग्गिंग पे काला धब्बा न लगायें.




बीते कुछ दिनों से ब्लॉगर समाज ठीक वैसी ही हरकतें करने लगा है जैसी की न्यूज़ चैनल वाले करते हैं या किसी उत्पाद को बिकाऊ बनाने के लिए उसके विज्ञापन को बनाने वाले यानि बेसिर-पैर की बकवास, और ये सब किसलिए? सिर्फ इसलिए की किसी भी तरह टी.आर.पी. बढ़े उनके ब्लॉग की और जय राम जी की. कोई हिन्दू-मुस्लिम लड़कियों की इज्ज़त उतारने में लगा है तो कोई किसी के ब्लॉग में झांक कर अपने लिए अच्छा बुरा पाकर उस पर ही सबका ध्यान खींचने के लिए चिल्लाने लगता है, आखिर क्यों हम सब अपने उद्देश्य से भटक रहे हैं या फिर ये कहें की उद्देश्य ही गलत बना के ब्लॉग्गिंग के लिए आये हैं. सबसे दुखद तो तब लगता है की इन टिप्पणियों की माया के वशीभूत होकर के उम्रदराज़ शख्स भी ऐसी ओछी हरकत कर जाते हैं, जो लोगों को सीख देने की उम्र में पहुँच गए हैं वे स्वयं बच्चों की तरह नासमझ काम करते हैं. अगर ऐसी सस्ती और घटिया लोकप्रियता का इतना ही शौक है तो किसी क्रिकेट मैच  या फुटबॉल मैच के बीच में निर्वस्त्र होके दौड़ जाइये या किसी को भरी सभा में जूते मार दीजिये. ऐसे थोड़े न होता है की आप दूसरों की लाश पे चढ़ कर या उसे बेईज्ज़त कर के अपना नाम चमकाना चाहते हैं. कोई कभी बकवास करके ब्लोग्वानी बंद करवा देता है, कोई ज्योतिष और साइंस के झगडे को ब्लॉग पे ले आता है तो कोई आर एस एस  और विश्व हिन्दू परिषद् का नाम लेके टिप्पणियां बटोरता है, कोई सेक्स का नाम लेके अपना ब्लॉग चमकाता है, कोई ब्लॉग चमकाने के फंडे ही बता डालता है, कोई अपने ब्लॉग पर आये टिप्पणीकारों का परिचय या उनकी संख्या दर्शाता है तो कोई इससे भी बड़े कारनामे करता है. हिन्दू-मुस्लिमों के बीच की दरार नहीं भर सकते तो रहने दें लेकिन कम से कम उस दरार को अपने ब्लॉग को चमकाने की छोटी सी कीमत पे चौडी तो न करें, नए गोधरा के बीज तो न डालें. मेरी समझ से बाहर है की इंसानियत की बात करने वाला हिन्दू या मुस्लमान या सिख या इसाई अगर हिंसा की बात न करे तो क्या वो हिन्जडा हो जाता है? माना हिन्दुओं पे ज़ुल्म हुए, तो क्या मुसलमानों पे नहीं हुए या अगर मुसलमानों पे हुए तो क्या हिन्दुओं पे नहीं हुए, हमने सब देख लिया सब सह लिया लेकिन ये नहीं समझ पाए की ये ज़ुल्म इंसानों पे हुए, काश हम परिंदे होते तो ये बात अच्छे से समझ सकते थे. हम लोग भी उन नेताओं की तरह बकवास करने लगे हैं जो वोट के लिए अपने मजहब, माँ, बहिन को बेच देते हैं अरे भाई फर्क क्या रह गया हम में और उनमे? अरे मुझे कोई आगे आके एक ऐसा नेता बता दे जो सच्चे दिल से हिन्दू या मुस्लिम हित की बात करता हो.... आज के युग में कोई महाराज विक्रमादित्य की तरह प्रजापालक नहीं.
याद रहे की विवादस्पद बात कहके आप कुछ लोगों के बीच कुछ समय तक लोकप्रिय हो सकते हैं लेकिन एक सम्मानित बुद्धिजीवी(तथाकथित बुद्धिजीवी नहीं) समाज के बीच स्थान बनाने के लिए निरंतर सार्थक प्रयास करने होते हैं, कहते हैं की गद्दी(हथेली) पर आम नहीं जमता. इसलिए नवोदित अभिनेत्रिओं की तरह की हरकतें आपको शोभा नहीं देतीं. क्योंकि आपकी कला ही आपको लम्बे समय तक लोगों के दिल और दिमाग में जगह दिला सकती है, क्षणिक लोकप्रियता किस काम की? और वैसे भी लोग आपका सिर्फ नाम ही जान रहे हैं न, सिर्फ नाम कमाने के लिए इतनी अशोभनीय हरकतें. अल्लाह/ god / वाहेगुरु/ भगवान न करे की इन ब्लोगों पर की गयी ऐसी कोई बात किसी जाति या धर्म विशेष को इतनी बुरी लगे की फिर कोई दंगा भड़क जाये इसलिए मेरा करबद्ध निवेदन है आप सभी से की सोच समझ कर और एक जिम्मेवार नागरिक की भांति अपनी नैतिक जिम्मेवारी को स्वीकार कर, समझते हुए स्वस्थ लेख लिखें.
कहा गया है की 'उनको न सराहो जो अनैतिक तरीकों से धन या लोकप्रियता अर्जित करते हैं, उनसे बेहतर तो वो हैं जो गुमनाम जिंदगी जीते हैं, किसी का भला न सही किसी का नुक्सान तो नहीं करते'. यह कथन आज के ब्लॉग्गिंग समाज पर भी लागू होता है.


अंत में आप सबसे यही आग्रह है की इसे भी सस्ती लोकप्रियता पाने का या कमेन्ट ओअने का प्रपंच न समझें और उचित होगा की क्रप्या मेरी बात को समझें तो लेकिन टिपण्णी न करें. टिपण्णी करना है तो कविता, कहानी, ग़ज़ल या किसी अच्छे विचार पर करें.
इसलिए कृपया टिप्पणियों की प्यास में किसी की इज्ज़त की बलि न चढाएं.....ब्लॉग्गिंग पे  काला धब्बा न लगायें.
दीपक 'मशाल'
चित्रांकन- दीपक'मशाल'

रविवार, 4 अक्तूबर 2009

वहां से सड़ रहा हूँ मैं



मैं अबोला


एक भूला सा वेदमंत्र हूँ,


खामियों से लथपथ


मैं लोकतंत्र हूँ.


तंत्र हूँ, स्वतंत्र हूँ द्रष्टि में मगर


ओझल मैं


आत्मा से परतंत्र हूँ.


कहने को बढ़ रहा हूँ मैं.


पर जड़ों में न झांकिये


वहां से सड़ रहा हूँ मैं.


लोक को धकेलता


परलोक की मैं राह में,


कुछ मुसीबतों की आँख में


गड़ रहा हूँ मैं.


हूँ तो मैं कुँवर कोई


सलोना एक चाँद सा,


पर ग्रहणों की छाया से


पिछड़ रहा हूँ मैं.


मैं अश्व हूँ महाबली,


पर सामने नदी चढ़ी


भ्रष्टों की खेप की,


झूठ की फरेब की,


जो घुड़सवार मेरा है


उसको फिक्र रहती है


सिर्फ अपनी जेब की,


बस इसलिए बिन बढ़े,


तट पे अड़ रहा हूँ मैं.


जड़ों में न झांकना


वहां से सड़ रहा हूँ मैं...


दीपक 'मशाल'


छायाचित्र- दीपक 'मशाल'

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

बापू तेरी सच्चाई की बोली कब लगनी है?


बापू तेरी सच्चाई की बोली कब लगनी है?
घड़ियाँ, ऐनक सब बिक गए,
कह तो दे इक बार तू मुझसे
कब प्यार की बोली लगनी है.
बापू तेरी सच्चाई की.....

उम्मीद मुझे है सस्ते में,
मैं ये सब पा जाऊंगा,
शायद नीलामी के दिन मैं,
भीड़ बड़ी न पाऊंगा.
बापू तेरे आदर्शों की बोली कब लगनी है.

है खण्ड-खण्ड अखण्ड राष्ट्र अब,
अखण्ड हुए दुश्मन सारे,
अब लकुटी भी तेरी ए साधू,
हिंसा का हथियार बनी.
बापू तेरे उपदेशों की बोली कब लगनी है..

दीपक 'मशाल'

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