छोटी बऊ(दादी) वो महान आत्मा थीं, जिन्होंने मुझे जो स्नेह, जो दुलार दिया वो आज तक मैं ढूँढता हूँ. असल में छोटी बऊ मेरे बाबा कि चाची थीं जो ताउम्र कहने को तो कोख से एक संतान को जन्म न दे पाने के कारण निःसंतान रहीं लेकिन आस पड़ोस में और घर में कोई ऐसी संतान न थी, जिसके लिए वो माँ न हों...
शायद ये कविता हो लोगों के लिए मगर-
मेरे लिए ये एक अतुलनीय प्रेम के आदर्श का प्रतिष्ठापन है,
जो देते हैं लोग आराध्य को उससे भी ऊंचा आसन है.
हर आघात में ढाल थीं तुम,
थीं देखने में छोटी मगर
ह्रदय से धरती सी विशाल थीं तुम.
तुम थीं इक मूरत त्याग की
सेवा और निस्वार्थ की,
कभी सुना न नाम ईश्वर का
मुख से तुम्हारे,
पर स्वमेव ईश्वर का अर्थ थीं तुम.
दूध मैं पी जाता था
और
लेजम से मार खाती थीं तुम छोटी बऊ....
मार मुझे मिलती पापा से और
अपना माथा लहूलुहान कर लेतीं थीं तुम छोटी बऊ....
चिड़ियों के नन्हे शिशुओं को
मिलता जो भाव सुरक्षा का,
नीड़ में, माँ के परों के संरक्षण में,
वैसा ही अहसास मिला मुझको
तुम्हारे आँचल में छोटी बऊ....
तुम्हारी एक गथूली,
एक बिछौनियाँ वाले बिस्तर में छोटी बऊ....
तुम्हारी धोती की गाँठ में बंधा
वो दस पैसे का सिक्का,
मेरे लिए आज की
हजारों, लाखों की कमाई से बड़ा था.
जब अक्ल नहीं थी मुझमें
तो तुमने ही चवन्नी देकर कहा था-
'मुकुन्दी पंसारी से ले आओ'
और मैं चला भी गया था,
अक्ल खरीदने.
तुम्हारी चवन्नी से मुझे
अक्ल तो न मिली पर तुम सिखा गयीं
मोल रिश्तों का छोटी बऊ.......
अभी भी हैं प्रतिध्वनित
तुम्हारे लोकगीत,
शोर से घिर चुके मेरे इन कानों में-
'मैना बोली चिरईंयन के नोते हम जाएँ....
मैना बोल गयी.....'
आज जब लता दी भी
नहीं चाहती बनना बिटिया दोबारा,
तुमने तब भी कहा था
'अगले जनम बिटिया ही बनूँ मैं...
आज अनपढ़ तो क्या...
अगले जनम बी.ए., ऍम. ए. पढूं मैं....'
अब क्या दिला पायेगी अहसास,
सुरक्षा का तुम्हारे जैसा,
कोई प्रेमिका?
तुम्हारे जाने के बाद
खोजता रहा ठीक तुम्हारे जैसा..
प्यार, संरक्षण और ममता...
मेरी खुद की माँ में,
शायद खोजूंगा सेवा, समर्पण, त्याग भी
अपनी होने वाली भार्या में....
पर सबसे तुलना
सिर्फ तुम्हारी होगी छोटी बऊ...
और पता है कितना ही सुख पा जाऊँ,
पर हरदम जीत तुम्हारी होगी छोटी बऊ...
मदर टेरेसा ना मिलीं मुझे,
पर तुममें देखा उन्हें प्रत्यक्ष...
तुम थीं, हाँ तुम्ही हो
मेरी ग्रेट मदर टेरेसा छोटी बऊ...
मैं कान्हा तो न बन पाया
पर तुम थीं बढ़के जशोदा से.....
अरे जशोदा ने तो कृष्ण को
अपने पुत्र के भ्रम में पाला
पर....
ये जान के भी, मैं नहीं अंश तुम्हारा
तुमने अपने अंश में मुझको ढाला....
आज सोचता हूँ
की क्या है फर्क तुममें और कबीर में?
कबीर ने त्यागी थी देह मगहर में,
ये भ्रम तोड़ने को कि
वहां मरने पे मिलता था नर्कधाम...
और तुमने
ताउम्र न माना ईश्वर को छोटी बऊ...
फिर भी लगीं रहीं सद्कामों में..
और मृत्यु ने तुम्हारा वरण किया था
देवोत्थानी ग्यास को,
मर जाते हैं कितने साधू
लेकर इसी अभिलाष को.....
लेकिन मृत्यु भी तुम्हे मार न सकी छोटी बऊ....
तुम अमर हो मेरी.... हमारी स्मृति में...
आज जब नहीं खोज पाता कोई
इस स्वार्थी दुनिया में अपना सा...
तो समझ आता है कि......
तुम्हारे जाने से क्या खोया छोटी बऊ...
याद है अभी भी मुझे
वो अंग्रेजी का होम वर्क जो मैं पूरा न कर पाया था
देह त्याग कर तुमने अपनी
मुझे मार से बचाया था छोटी बऊ...
मेरे मन में पनपा टीचर से मार का डर,
तुम्हारी मृत्यु ने ख़त्म कर दिया था छोटी बऊ...
क्योंकि मैं स्कूल जाने से बच गया था...
और मैं इतने से फायदे के लिए
तुम्हारे मरने पे खुश था छोटी बऊ....
हाय मैं अभागा......
न समझा तुम्हारा वात्सल्य, तुम्हारा स्नेह और दुलार...
एक तुम थीं जिसने मर के भी
मुझे मार खाने से बचाया था
और एक मैं था
जो तुम्हारी मौत पे हर्षाया था.....
जब तक समझा मैं
कि क्या थीं छोटी बऊ....
तुम उससे पहले ही साथ छोड़ गयीं,
अब कैसे उर्रण हो पाऊंगा मैं,
बस तुम्हे स्मृति में बसा के
गीत तुम्हारे गाऊंगा मैं...
देव बन के तुम मुझे
दे रहीं अशीष लख-लख,
पर कह रहा मुझसे
ये मेरा ज़मीर पग-पग ....
मैं तुम्हारा अपराधी हूँ छोटी बऊ,
मैं तुम्हारा अपराधी हूँ छोटी बऊ........
दीपक 'मशाल'