मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

शहर में भेड़िया, बंदियों की बीवियाँ/ दीपक मशाल कवितायें

दो कवितायें

१- शहर में भेड़िया / दीपक मशाल

अनुभव नया था
एक जीते-जागते भेड़िये को देखना
और देखना क़रीब से
जिज्ञासा से
फिर छूकर
मुँह खुलवाकर जानना उसके दाँतों का पैनापन
उसके बालों को सहलाकर
उसके साथ तस्वीर खिंचवा कर देखना

हज़ार साल पुराना रूप धरे वो मेला
तम्बुओं में बिकती
उसके जैसे दूसरे भेड़ियों की खाल
वहीं सहमा हुआ सशंकित जानवर
बार-बार हैरतभरी निगाहों से देखता
हाँडियों में पकती मल्ड वाइन
हांडियों के नीचे जलती आग

दिमाग के गर्तों-उभारों में उतरता-चढ़ता सवाल
सबूत के कन्धों पे चढ़ हल निकालने की कोशिश में संलग्न
पर रहता विफल

आखिर तक मन खुद से पूछता
खूनी या बलात्कारी
क्रूर अपराधी इंसान
क्यों कहा जाता भेड़िया
आखिर कितने प्रतिशत मिलती है उसकी जीन संरचना

लगा
शायद खूँखार भेड़िया शांत था
इसलिए कि शहर में था
इंसानों के बीच में

अच्छा है कि पाये जाते हैं ज्यादातर इंसान शहरों में
अच्छा है
जंगल के लिए
जानवर के लिए
और दुनिया बची रहने के लिए
 

 २- बंदियों की बीवियाँ/ दीपक मशाल


आधी बंदी होती हैं
बंदियों की बीवियाँ
हीलियम भरे गुब्बारे की तरह
जो एक सिरे से बंधा होता है किसी वजनी पत्थर से
या पर कतरे कबूतरों सी

दिनचर्या का हिस्सा होता है
कारागार की बाहरी दीवारों से टेक लेना
दुनिया की लानतें सुनना
मलानतें झेलना
अनकिये अपराध के लिए

बन जाती हैं बंदियों से कहीं ज्यादा उत्तरदायी
उनसे ज्यादा ताने सुनतीं
बंदियों की बीवियाँ

ज्यों उन्होंने ही कतरी हो जेब
लगाईं हो सेंध
चलाया हो छुरा
झपटी हो चेन
दिखाई हो दबंगई
किया हो बलात्कार
बहाया हो लहू

अकेलेपन से लड़ती
एकला स्त्री को शापित अपराधों की नज़र से
खुद को बचाती
आज से, समाज से बहिष्कृत
अपनों की ही आँखों में कील होती है

और अपरिमाणित सूखे आँसुओं को
नमी पाने की लालसा लिए
जब पहुँचती हैं सींखचों के पार खड़े
उन दर्दों के स्रोत के पास
तो जेल के भीतर की तक़लीफ़ों को
पूरा सुन पाने से पहले ही
मिलने की अवधि ख़त्म हो चुकी होती है

और वह हर बार
यह बताने से रह जाती हैं महरूम
कि जेल के भीतर रहना तब भी आसान है

सोमवार, 23 सितंबर 2013

क़यामत / दीपक मशाल

क़यामत पूरी नहीं आती 
फुटकर-फुटकर आती है 
ज़िंदगी के कुकून को 
इत्मिनान के साथ 
नाज़ुक कीड़े में 
तब्दील होते देखने में 
मज़ा आता है उसे

क़यामत
सिर्फ देखती है लगातार 
टुकुर-टुकुर 
बिना अतिरिक्त प्रयास के 

जानती है 
ये खुद ही खा जायेंगे खुद को 
इसलिए अलसा जाती है 
क्यों बेवजह हिलाए हाथ-पैर 
दीपक मशाल 

सोमवार, 17 जून 2013

ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद

ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद

ये दुनिया वो नहीं थी
जो देखी तुमने
बिन सूरज वाली
आँखों की खुद की रौशनी में

ये दुनिया वो नहीं थी
जो सोची तुमने देकर के जोर दिल पे
ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद

अगर नहीं है ये
शोर से, उमस और पसीने की बू से भरी रेलगाड़ी
तो आसमानों के बिजनेस क्लास का केबिन भी नहीं 
ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद

तुलसी, ताड़
कभी तेंदू पत्तों के बीच से
हौले से कभी खड़खड़ाकर
गुजरती हवा जैसा साया ये
आम, चन्दन, नीम या सोंधी मिट्टी में सिमटता है
ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद 

ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद
ये धुआँ जो हिल सकता है
हिला नहीं सकता
ज्यों फूल खिलता है
खिला नहीं सकता
इतना कमज़ोर भी नहीं
ख्वाब देखे चाँद के
और चाँद पा न सके
उतना मजबूर भी नहीं

मगर मूँद लेता है आँखें
जब सहेजता है सूरज कल के लिए
रेत सितारों की बिखेरता है
और सितारों को झाड़ देता है फूँक से अपनी
फिर धरत़ा है सूरज उसी चबूतरे पर

बेवजह तैरता, रेंगता, दौड़ता, फिसलता
नाचता- कूदता, चलता और उड़ता बेवजह साया है दुनिया
ये गाता है बेवजह, खाता है बेवजह
जाने क्या-क्या और कैसे कराता है बेवजह
ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद
दीपक मशाल


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