फोटो: दीपक मशाल |
१- हम आश्वस्त है
घास के तिनकों से टिके हुए दुःख
कुतुबमीनारी सुखों को बौना बना रहे
तुलना के तराज़ू पर रखकर
सपने फ़रार होकर आभासी संसार से
कम्प्यूटर स्क्रीन में जा समाए
और खाई गईं 'क़समें'
संतुष्ट हो रहीं कागज़ी क्रांतिकारिता से
जब भी याद आ जाती हैं वो
भूले-भटके
दुनिया बढ़-बदल रही है
हम आश्वस्त हैं
मौके-बेमौके
लोकतंत्र की इकाई की बोली लग रही है
हम खुश है कि कीमतों में उछाल आया है
चलो फिर चुनावी साल आया है।
फोटो: दीपक मशाल |
२- मानेगा नहीं आदमी
विदर्भ से बुन्देलखण्ड तक
पानी ख़त्म नहीं हुआ
सूखा नहीं
उड़ा नहीं
ग़ायब नहीं हुआ
मर गया है पानी
शज़र का
ज़मीं का
नज़र का
मारा आदमी ने.....
पर
आदमी मानेगा नहीं
आदमी का हत्यारा हो जाना...
जो सदियों पहले आरम्भ हो गया था
आदमी मानेगा नहीं
खुद के हाथों