बुधवार, 30 सितंबर 2009

वह कहना चाहती थी कि.....



                                                                                                                         'बीती ख़ुशी' 
                                                                  चित्रांकन- दीपक 'मशाल'
            करवटें बदलते घंटों हो गए मगर सुपर्णा को चैन कहाँ? एकदम अकेली पड़ गई थी सुपर्णा जैसे जीवन का लक्ष्य ही समाप्त हो गया हो. उसके भीतर छटपटाहट  थी, एक  मंथन चल रहा था. जीवन का उद्देश्य क्या है? जो जीवित है उसे जीवित रहने का अधिकार क्यों नहीं? वह घुट-घुट कर क्यों रहे, सार्थक जीवन जीना क्या पाप है? सार्थक जीवन!!!!!
वह अपने जीवन के गुज़रे २४ सालों का लेखा-जोखा करने में लग गयी और सोचते सोचते एक पुरानी  किताब के कुछ सुनहरे, कुछ काले पन्ने खुलते चले गए उसकी आँखों के सामने.
सूरज की पहली किरण के साथ जब एक कली अंकुरित होती  है तो अलसाई बंद पड़ी सी उसकी कोमल पत्तियां अपनी आँखें खोलती है ताकि इस सृष्टि से अपने सूत्र जोड़ सके. तब वह यह नहीं जानती कि कितने निर्दयी हाथ  बढ़ेंगे उसे नष्ट करने को, कितने हवा के झोंके उसके लिए खुद को तूफ़ान बना लेंगे और उसे उजाड़ने के लिए उठेंगे. ये कोई मनगढ़ंत किस्सा नहीं बल्कि ऐसा होता भी है कि कभी-कभी उस कली के संरक्षक भी कली के अरमानों कि कद्र नहीं करते. कभी इज्ज़त, कभी परंपरा, कभी झूठे आदर्शों तो कभी धर्म के नाम पर उसे रौंदा जाता है. मगर फिर भी वह खिलती है, अनचाही और उपेक्षित सी अपनी ही बढ़त से सहमी हुई, मौन, नतमस्तक सी. भारतीय परिवेश में बेटियों कि परवरिश कुछ ऐसे ही होती है अमूमन वह किसी पाश्चात्य संस्कृति से प्रेरित परिवेश का हिस्सा न हो. और इन्ही अनचाही भारतीय मानसिकता के ऋणात्मक पहलू से प्रेरित एक परिवेश में पली बढ़ी थी सुपर्णा और इस दर्द को उसने गहरे से अपने बचपन से ही महसूस किया था. उसने इसी बात को अपने ऊपर उतारते हुए भी अपने आप को एक चंचल सी लड़की, जो एक संजीदगी की चादर में लिपटी थी, में तब्दील कर लिया था. सुपर्णा हमेशा अपनी क्लास में अब्बल रहती थी और इस तरह वह आगे बढती-बढती ९वी   क्लास में पहुँच गयी.
           प्यार करने कि क्या कोई उम्र होती है, ये दिल से कोई पूछे तो भला. होश सम्हालने से लेकर जब तक आँखें नहीं मुंद जातीं तब तक कभी भी हो सकता है और सच तो ये है कि इस शुरूआती प्यार की जो खासकर किशोरावस्था में हो खालिस प्यार के अलावा किसी अन्यत्र भावः का स्थान गौढ  ही होता है. यह प्यार बहुत ही पवित्र होता है... निश्छल.. हाँ यही वह शब्द है जिसका बयां करने के लिए उस निश्छल प्रेम के बारे में सोचती है तो चिराग का खूबसूरत वजूद  उसकी आँखों के सामने आके खड़ा हो जाता है. चिराग, एक बहुत ही मासूम, सीधा व कम बोलने वाला लड़का. सुपर्णा के साथ में पढ़ते रहने के बाद भी दोनों एक दुसरे से लगभग अन्जान थे. सुपर्णा के बाबा चिराग के चाचा को अंग्रेजी साहित्य कि टयूशन पढाते  थे, सो हुआ ये कि एक दिन उसके बाबा ने उससे चिराग को ये कहने के लिए बोला कि वो अपने चाचा को कह दे कि बाबा ने उन्हें बुलाया है. चिराग के व्यक्तित्व से एकदम नावाकिफ सुपर्णा के लिए ये बहुत हिम्मत का काम था, फिर भी कैमिस्ट्री  प्रयोगशाला में सोडियम हाइड्रोक्साइड की एक बोतल के आदान-प्रदान के बहाने उसने धड़कते दिल से ये बात उससे कह दी. पर चिराग बिना किसी प्रतिक्रिया के चला गया. सुपर्णा को अपने आप पे बहुत गुस्सा आया की एक गूंगे से बात करने की उसे क्या जरूरत थी और शायद उसने इस तरह के व्यवहार की आशा ही नहीं की थी. परन्तु शाम को चिराग के चाचा को घर पर देख कर उसे एक सुखद हैरानी हुई और पूछने पर पता चला कि यह बात उनसे चिराग ने ही कही थी. यह थी उनकी पहली मुलाकात और पहली ही मुलाकात में चिराग सुपर्णा के दिल में उतर गया. धीरे-धीरे वह चिराग कि बहुत अच्छी दोस्त बन गयी. शायद चिराग की भी मंशा इस रिश्ते को आगे बढ़ाने की रही होगी और उन दोनों के इस रिश्ते को बनाये रखने के लिए चिराग की चित्रकला की काबिलियत ने एक सेतु का कार्य किया. चिराग का सुपर्णा से नोट्स लेना-देना व सुपर्णा का चार्ट-फाइल आदि के लिए चिराग को घर बुलाना दोनों को बहुत नज़दीक ले आया. सुपर्णा पर हरपल उसके  व्यक्तित्व का नशा छाया रहता, न जाने क्यों चिराग उसे अच्छा लगने लगा था बस, इसके आगे उसने कभी कुछ सोचा ही नहीं था.
         कहा जाता है की स्त्री प्रेम के पीछे भागती है और पुरुष धन के, सामान्यतः देखने में भी आता है कि जहाँ एक सामान्य लड़का अपने कैरियर के बारे में सोचता है वहीँ एक लड़की अपने मन में एक सच्चे जीवन साथी की आकांक्षा रखके  उसके इर्द-गिर्द सपनों के ताने-बाने बुनने लगती है.. हो सकता है उसका भी यही संस्कार रहा हो, जो एक लड़की होने के नाते उसने ग्रहण किया हो. धीरे-धीरे वो दोनों एक दुसरे के पूरक होते चले गए. अरे हाँ..... एक परिवर्तन और.. चिराग जो बहुत कम बोलता था अब जब भी सुपर्णा से मिलता दोनों में जम के लड़ाई होती और ये  प्रेम की चाशनी में पगा झगडा दोनों की दोस्ती को और भी गहरे दलदल की और धकेलता जाता था.
            वसंत के अचानक बाद पतझड़ के आने की सुगबुगाहट दोनों महसूस न कर सके और एक तीसरे इंसान का अवांछित प्रवेश दोनों को प्रतीत हुआ अमित के रूप में. अमित जो की अपने मामा के घर उनके शहर में आता था, चिराग के बचपन का दोस्त था. वह पता नहीं कैसे सुपर्णा के घर पहुँच गया और शायद वह उसे पसंद आ गयी और उसने सुपर्णा से अपनी चाहत का इज़हार किया. एक अनचाहा आकर्षण कहें या चिराग को जलाने-चिढ़ाने के लिए और उसे अपनी चाहत का अहसास कराने के लिए सुपर्णा ने यह रिश्ता स्वीकार कर भी लिया. परन्तु चिराग जो सुपर्णा को बहुत अधिक प्यार करता था, उस प्यार के वास्ते वो सुपर्णा की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी समझ के यह सब स्वीकार कर गया और तो और खुद ही दोनों को जोड़ने की कोशिश में लग गया.
समय डर्बी रेस के घोड़े की तरह पलक झपकते ही कितना आगे निकल गया पता ही नहीं चला, अब तक दोनों कॉलेज में पहुँच चुके थे. सुपर्णा का लगाव उसके साथ आने जाने रहने से बढ़ता ही जा रहा था और इधर मानो चिराग की दुनिया भी उसी के आसपास सिमटती जा रही थी. सुपर्णा जानती थी की वह चिराग से बेइंतेहा प्यार करती है मगर उसकी कभी उसे बताने की हिम्मत नहीं हुई. तीन साल का साथ और कुछ घटनाएँ जिन्होनें सुपर्णा को सोचने पे मजबूर कर दिया की चिराग भी उससे उतना ही प्यार करता है जितना दूध पानी और पानी दूध से. वो बस का सफ़र, एक्जाम्स देकर चिराग, सुपर्णा और दोनों के दोस्त वापस आ राहे थे. सुपर्णा तथा उसकी सहेलियां बस की पिछली सीटों पे बैठी हुई थीं और चिराग अपने दोस्तों के साथ एक सीट छोड़ कर, तभी दो लड़के आकर बीच की सीट पर बैठ गए और लड़कियों की सीट पर हाथ रखने लगे, चिराग के मना करने पर भी जब बात न बनी तो वह अचानक गुस्से में आकर उस लड़के का गिरेबान पकड़ के धमकाने लगा, लड़ाई बढ़ चुकी थी, और साथ ही सुपर्णा की घबराहट भी.

         सुपर्णा चिराग से कुछ भी कह देती या चिराग सुपर्णा से पर दोनों ने एक दुसरे के लिए झुकना सीख लिया था. उन दोनों के रिश्तों के बीच में कभी कोई सामाजिक चीज नहीं आई.
         प्रकृति तो बच्चों में भेदभाव नहीं करती धूप-छाँव गर्मी सर्दी सभी को वह बराबर प्यार करती है इसी तरह जब लड़की और लड़का प्रकृति के ही अंग हैं तो उनमे अंतर क्यों? परन्तु फिर एक सामाजिक व्यवस्था या शायद बड़े होकर पाबन्दी लगने की स्थिति से बचने के लिए किया गया प्रयोजन कहें लेकिन हुआ यूँ की उन दोनों के ऊपर एक अवांछित रिश्ता थुप गया, रिश्ता भाई-बहिन का. चिराग यही समझता रहा की सुपर्णा अमित को चाहती है और एकतरफा चाहत कोई मायने नहीं रखती. पता नहीं प्यार में कहाँ कमी थी की चिराग सुपर्णा की चाहत को न समझ पाया, उसकी एक-एक धड़कन को समझने वाला उसका चेहरा ही न पढ़ पाया. दोनों न चाहते हुए भी इस तथाकथित रिश्ते को ढोने के लिए मजबूर थे. पर पता नहीं क्यों चिराग की बातें और उसके पत्र समय समय पर सुपर्णा को सशंकित करते रहते थे. एकबारगी तो चिराग ने पत्र में लिख कर अपने प्यार का इज़हार भी कर कर दिया, लेकिन जब सुपर्णा ने उस पत्र के बारे में पूंछा तो न जाने किस डर से कह के ताल दिया की '' मैं तो मजाक कर रहा था.'' अब ऐसा भी क्या मजाक गोया की किसी की जाँ पे बन आये.
          अब तकदीर की लिखावट ये थी की चिराग अपनी आगे की पढ़ाई के लिए बाहर जा चुका था, सुपर्णा को एकदम अकेला करके और सुपर्णा थी कि उसी कॉलेज से अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई करने में लग गयी थी. चिराग कि माँ को चिराग और सुपर्णा के रिश्ते का एक पहलू तो मालूम था पर दूसरे से वो भी अन्जान थीं शायद इसीलिए वह सुपर्णा को बहुत प्यार करती थीं. रब दी मर्ज़ी कि एक चौथे किरदार के रूप में उनकी ज़िन्दगी में अमृता आती है. चिराग ने अमृता के साथ अपने रिश्ते को सुपर्णा से छिपाए रखा परन्तु ये रिश्ता जब चिराग कि माँ को पता चला तो उन्होंने इसे सुपर्णा को बताया.उस दिन सुपर्णा को ये भी पता चला कि इस रिश्ते को काफी लम्बा समय हो गया है परन्तु उसका दिल इस बात को मान ही न रहा था क्योंकि चिराग को उससे ज्यादा कोई समझ सकेगा वह मान ही नहीं पा रही थी. उसकी माँ के कहे को वह एक बेटे के लिए उसकी माँ कि चिंता के रूप में ले रही थी. पर साथ ही उसके दिल में भी एक डर इस बात का कोना पकड़ के बैठ गया था कि अगर ये बात सच हुई तो क्या होगा. धीरे-धीरे उसे इस रिश्ते के बारे में कै और बातें भी पता चलीं और सबसे ज्यादा दुःख उसे इस बात का हुआ कि चिराग ने उसे खुद कुछ क्यों नहीं बताया. पर यहाँ भी चिराग का प्यार उसे एकबार फिर सोचने पे मजबूर कर देता है कि शायद किसी मजबूरी ने उसे ऐसा करने से रोक लिया होगा. लेकिन फिर भी एक और तीसरा तो उन दोनों के दरमियाँ आ ही चुका था न.
           एकबार सुपर्णा अपनी एक बचपन कि सहेली के घर जाती है, जहाँ उसे अमृता कि सहेली मिलजाती है, सुपर्णा अपनी सहेली से चिराग कि चर्चा कर रही होती है. पर वही लड़कियों कि पुरानी आग लगाने कि आदत, अमृता कि सहेली उससे चुगली करती है कि सुपर्णा चिराग और अमृता के रिश्ते के बारे में बात कर रही थी, नतीजा ये कि अमृता चिराग से लड़ जाती है. चिराग सुपर्णा को फ़ोन करता है पर दोनों कि बात नहीं हो पाती है. अब चिराग अपने साथ कि एक लड़की से फ़ोन कराता है कि वह चिराग से बात कर ले, सुपर्णा घरवालों से बचती हुई एक बड़ा रिस्क लेके चिराग को फ़ोन करती है, उसका विश्वास डगमगा जाता है और वह सोचने लगती है कि क्या यह वही चिराग है जिसे उसकी एक-एक बात कि फिक्र हुआ करती थी, उसे लगा कि उसने चिराग को खो दिया है. उसने सोच लिया था कि वह चिराग से उल्टा सीधा बोल के उसके मन में अपने आप के लिए नफरत भर लेगी ताकि वह आगे से उससे बात ही न करे. मेरे बात न करने से अगर किसी को उसका प्यार मिले, उसका भला हो तो मुझे क्या? यही समझ लूंगी कि कोई था ही नहीं. हालाँकि ये उसके लिए बहुत ही मुश्किल काम था पर करना निहायत ही जरूरी क्योंकि एक ग़लतफ़हमी जिसको चिराग ने ही आधार दिया था, उसने अमृता से कहा था कि उसके लिए जिंदगी में सुपर्णा सबसे ऊपर है और उसकी जगह कोई नहीं ले सकता. एक सच्चा इंसान शायद अपने प्यार से भी अपने प्यार को न छुपा पाया. दूसरी ओर अमृता सुपर्णा और चिराग के पवित्र प्रेम को समझने में नाकाम रहती है.
           सुपर्णा चिराग से उसके और अमृता के रिश्ते के बारे में कई बार पूछती है पर चिराग हर बार ताल जाता है. धीरे-धीरे सुपर्णा चिराग कि खातिर अमृता से एक रिश्ता बना लेती है, एक रिश्ता जो शायद दोस्ती का था, बहिन का या शायद एक सौतन का लेकिन उसके आसपास के लोग तो क्या वो खुद भी इस रिश्ते को नहीं समझ पाती. 'चिराग उसके लिए सिर्फ एक बचपन का दोस्त है' ये उसने अमृता को पूर्ण विश्वास दिलाते हुए कह तो दिया लेकिन जानती थी कि ये सरासर झूठ है फिर भी क्या एक रिश्ते को बचाने के लिए उसका झूठ क्षम्य नहीं था भला?
          आज के युग में लोग दूसरों की बुराईयां पहले देखते हैं और अच्छाई बाद में, लेकिन चिराग इंसान की अच्छाई ही देखता है बुराई देखता ही नहीं और सबके कहने के बाद भी अमृता की कई गलतियों को गलत मानने को राजी नहीं होता है. ये वो वक़्त था जब चिराग और सुपर्णा दोनों का अस्तित्व अमृता और अमित में उलझ के रह गया था. दोनों ही एक दूसरे पे विश्वास करते व दीखते थे लेकिन उनका विश्वास खुद पर विश्वास नहीं कर पा रहा था. उसे ये समझ नहीं आता था की इसी प्यार से क्या सच में उसका निकट, का आत्मा का सम्बन्ध रहा होगा.
         फिर एक और घटना, सुपर्णा अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर के अपने ही शहर में एक इंटर कॉलेज में अध्यापिका हो गयी और वहां उसे एक साथी अध्यापक की वजह से कॉलेज में कुछ परेशानी होती थी, जब ये बात चिराग को पता चली तो चिराग ने उस बदतमीज़ की उसके घर जाकर खबर ले ली. इत्तेफाक या ईश्वर की इच्छा की वह अध्यापक प्रधानाध्यापिका, जो की साथ में प्रबंधक भी थी, का खासमखास था बस इसलिए बात काफी बढ़ गयी. बात सुपर्णा के मम्मी पापा तक पहुंची और इस सबका दोषी बना चिराग और सजा मिली सुपर्णा को चिराग से मिलना-जुलना, बातचीत सब बंद होने के रूप में. लेकिन चिराग की यह प्रतिक्रिया उसे एक नया संकेत दे गयी, उसे महसूस हुआ की चिराग और वह एक ही अस्तित्व हैं और वह अब भी उसको उतना ही प्यार करता है जितना की कभी प्यार के चरमोत्कर्ष के दिनों में करता था. लेकिन असहाय सुपर्णा कुछ न कर सकी. उसे इस बात का बहुत दुःख हुआ की वह चिराग की भावनाओं को न समझ सकी, इससे उसे कितना दुःख हुआ होगा. वह उसे हर्ट नहीं करना चाहती थी. उसने सुपर्णा के कारण ही स्वयं को बदला था, एक बरगी सुपर्णा को लगा की वह ही चिराग के काबिल नहीं थी. चिराग समझ रहा था की सुपर्णा उससे नाराज़ है, उसने सुपर्णा से कहा की यह तुम्हारी पुरानी आदत है कि नाराज़ भी रहोगी और न होने का दम भी भरोगी. पर मैं तुम्हारी नाराज़गी से भी खुश हूँ शायद इससे तुम्हे मेरी याद न आये. पता नहीं क्यों चिराग इतना भी न समझ पाया कि वह तो चिराग से नाराज़ होकर जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती. वो जानती थी कि वे दोनों एक दूसरे के सहारे बड़ा से बड़ा दुखों का सागर पार कर लेंगे, बिना किसी बाधा के.
         फिर एक खेल, कहानी में फिर एक मोड़, चिराग प्रदेश कि राजधानी के एक प्रतिष्ठित अनुसंधान संस्थान में प्रशिक्षण ले रहा था कि उन्ही दिनों सुपर्णा को भी अपने कॉलेज, जिसमे वह पढ़ाती थी, कि तरफ से उसी शहर जाने का मौका मिला. चिराग को उसने फ़ोन करके बुलाया. और शायद वो शाम जिसमें चिराग और सुपर्णा अपनी यादों के साथ तन्हा थे, अपने आप में उनके जीवन कि एक यादगार शाम बन गयी. अब दोनों ही दिल कि बात को बेबाक लहजे से लबों पे ले आए थे, दोनों ही इकबाल कर चुके थे कि उनके दिलों में एक दूसरे के लिए बेपनाह मोहब्बत थी, जो कि कहने को तो महज़ चंद गुज़रे सालों की उपज थी लेकिन लगता की सदियों की रूमानी और रूहानी मिलन की तड़प थी. लेकिन हाय फिर वही हिज्र की दास्ताँ कि कितनी सी थी ही उस शाम कि उम्र जो कि जिंदगी भर की एक याद बनने का माद्दा अपने में छिपा के आई थी, पानी पे आए एक बुलबुले के जितनी. पानी में खिले बुलबुले तो अपनी अहमियत खो देते हैं लेकिन रिश्तों से उत्पन्न अनुभूतियाँ आखिरी छोर तक पीछा करती हैं जैसे की कोई पतंग आकाश में उदान भरने के बाद काटने के बाद भी दूर तक हवा में मचलती है.
        सुपर्णा की शादी की बात अमित के साथ चली जो की बाद में किसी कारण से ख़त्म भी हो गयी. चिराग को एक जॉब मिल गयी थी जो कि सुपर्णा के जन्मदिन के दिन मिली थी. चिराग तो हमेशा से ही सुपर्णा को अपने लिए लकी मानता था, न जाने कैसे ये बात अमृता को पता चल गयी फिर क्या था गलतफहमियों की चिंगारी को हवा मिल गयी. किसी शिक्षा संस्थान से सम्बंधित प्रवेश परीक्षा का दिन जब दोनों को एक बार फिर साथ दिन गुजारने का मौका मिला और ताउम्र सहेज के रखने के लिए एक और याद का बहाना शामिल हो गया दोनों की बिखरती ज़िन्दगी में.
         और फिर एक दिन सबकुछ, सबकुछ कितना अप्रत्याशित हुआ था चिराग ने एक पत्र लिख कर सुपर्णा को दिया था जिसमे उसने अपने और अमृता के रिश्ते को स्वीकार किया था मगर पत्र की एक बात हमेशा के लिए सुपर्णा के लिए रहस्य बन के रह गयी कि दिल और दिमाग दोनों समान महत्व लिए होते हैं, किसी एक के बिना इंसान नहीं रह सकता. अब वह अपने और चिराग के रिश्ते को लेकर सोचती तो उससे किसी निष्कर्ष पे पहुँचते न बनता. बस एक सोच उभरती और बिना किसी प्रतिवाद के, बिना किसी परिणाम के विचारों के शून्य में खो जाती. उसे तो ये याद ही नहीं था की ये शेष बचा प्रेम इस जन्म का है या पिछले जन्म का या फिर आने वाले जन्म की अग्रिम किश्त. अब उस पर हर वक़्त एक अजीब सी खामोशी छाई रहती, हर पल किसी इन्तेज़ार से नज़रें द्वार को, किसी की राह को तकती रहतीं, कोई ऐसा......... जो पता नहीं अब आएगा भी या नहीं.
            उसके ख्वाबों के महल का बचा खुचा खंडहर उस दिन ढह गया जब उसके पापा ने एक दिन कहा कि, 'तैयार रहना कल तुम्हे लड़के वाले देखने आ रहे हैं' . उसका दिल अपनी बेबसी पे रो उठा और वह वक़्त भी आ गया जब उसे तैयार करके अपरिचितों के बीच बैठाया गया और उसकी शादी पक्की हो गयी. सुपर्णा चिराग से भावनात्मक संबल चाहती थी परन्तु एक दिन भावुकता में चिराग उससे कह देता है कि 'या तो तुम पूरी तरह से मेरी बनकर रहो या फिर उसकी जिससे तुम्हारी शादी तय कर दी गयी है.' यह बात सुपर्णा को हकीकत समझ आती है लेकिन एक बार फिर दोनों के झुकने से रिश्ता एकबारगी टूटने से फिर बच जाता है. चिराग भी उसकी भावनाओं को समझ रहा है, उधर सुपर्णा को लग रहा है कि वह अपना हर रिश्ता खो चुकी है. आज वह जिंदगी से हर समझौते के लिए तैयार थी, वह चिराग के शब्दों पर चलना चाहती थी पर क्या करती जो उसका दिल ही साथ नहीं दे रहा था. जबकि उसे भी लगने लगा था कि चिराग के साथ चलना तो कबका पीछे छोड़ आई थी, हालाँकि जिंदगी में कितनी ही चीजें पीछे छूट जाती हैं जिन्हें हम चाह कर भी रोक नहीं सकते फिर भी कुछ घटनाएँ या हादसे लाख चाहने पर भी स्मृति के झरोंखों में से यादों की पुरवाई को अन्दर लाते ही रहते हैं और उनकी खुशबू पहले से भी गहरी होती जाती है. उसे लगा कि वह स्वयं को कितना भी बंधनमुक्त मान ले किन्तु उस स्पर्श के प्रभाव से कभी विमुक्त नहीं हो सकती, वह उस शख्स के अस्तित्व को चाहे जितना ही खारिज कर ले मगर उसके बिना जिंदा रहना कठिन है वह एक ऐसे कैदी कि तरह लगती थी जिसे जितनी रिहाई कि फिक्र थी उससे कहीं ज्यादा क़ैद रहने की.
          उसका स्वभाव बेहद चिढ़चिढ़ा होता जा रहा था, अक्सर वह परेशान कुछ ढूंढती सी नज़र आती. वह खुश रहने की कोशिश करती मगर रह  नहीं पाती थी पर क्या करे मजबूर थी कि वह रोती हुई हंसती नज़र नहीं आ सकती थी.उधर चिराग था जो इतने सब के बावजूद उसी गम को पीकर खुश और समझदार बनने का दिखावा करता रहा. सुपर्णा चिराग को रिश्तों के जाल में फिर से फँसाना नहीं चाहती थी. इस स्वार्थ पूर्ण दुनिया में सिर्फ चिराग ही तो ऐसा था जिसने उसे समझने की कोशिश की और इस कोशिश में काफी हद तक सफल भी रहा लेकिन किसी की किस्मत ही खोटी हो तो वो क्या करता. वह जानती थी कि उस जैसे इंसान के लिए घर के नाम पर एक बंद खिड़कियों का कमरा ही बहुत है ताकि वह किसी से कुछ न कह सके, वह नहीं चाहती थी कि उसकी वजह से किसी को कोई परेशानी हो. वह चाहती थी तो सिर्फ इतना कि भगवान चिराग की खुशियों के साथ न्याय करे, वह जहाँ भी रहे खुश रहे. वह चिराग से कहना चाहती थी की तुम मुझे भूलना मत लेकिन एक याद से ज्यादा याद भी मत रखना और मुझे याद करके दुखी मत होना और कहना चाह्ती थी कि मुझे विश्वास है कि मैं जिंदगी से कभी नहीं हारूंगी क्योंकि मेरे साथ तुम जैसे......... कि दुआएं हैं. वह कहना चाहती थी कि 'चिराग मेरी छोटी सी जिंदगी में सिर्फ तुम ही हो जिस पर मैंने आँख मूँद कर भरोसा किया, पहले मैं सोचती थी कि जैसे दोस्तों को किताबों और फिल्मों में दिखाया जाता है वैसे इंसान को सच में नहीं मिल सकते, मगर नहीं तुमने मुझे गलत साबित कर दिया चिराग, तुमसे मुझे उस गहरे से भी गहरा प्यार मिला है, एक निस्वार्थ, निश्छल, दैवीय प्यार जिसमे मन से मन के मिलन के अलावा और किसी नश्वर चाहत को जगह नहीं थी.' वह कहना चाहती थी सिर्फ इतना कि 'चिराग अगले जन्म में सिर्फ मेरे ही रहना और मुझसे जुड़ी सारी न सही पर कुछ बातों, यादों को ताज़ा रखना क्योंकि अगर उन्हें ताज़ा न रखा जाये तो वे पुरानी होकर, बूढी होकर मर जाती हैं'. आज चिराग तो खामोश है मगर सुपर्णा का दिल बार-बार कह रहा है कि-
'मेरी वफ़ा तेरे साथ है, मैं नहीं तो क्या.
जिंदा रहेगा प्यार मेरा, मैं नहीं तो क्या..'
'बीती ख़ुशी'





शनिवार, 26 सितंबर 2009

समर्पण


मन समर्पित, तन समर्पित
और यह जीवन समर्पित,
प्रिय तुम्हारा ऋण बहुत है मैं अकिंचन,
किन्तु इतना कर रही तुमसे निवेदन
व्यथा अंतस की सुनाऊँ जब व्यथित हूँ,
कर दया स्वीकार लेना यह समर्पण.
मान अर्पित, प्राण अर्पित
रक्त का कण-कण समर्पित,
स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित
आयु का क्षण-क्षण समर्पित.
अपने जीवन को जलाकर के तुमने,
चाहा खुशियों का मुझे अम्बार देना,
तोड़ दूँगी मोह का बंधन, कहो तुम,
छोड़ दूँगी चाहत तुम्हारी, गर कहो तुम.
पर आज सुन लो प्रिय मेरे अंतस की पीड़ा,
तो यथावत मान लूंगी,
आज पूरा हो गया मेरा समर्पण...

'बीती ख़ुशी'

चित्रांकन- दीपक 'मशाल'

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