माँ दिवस पर 'अनुभूतियाँ' से एक कविता माँ के लिए...
माँ
आज भी तेरी बेबसी
मेरी आँखों में घूमती है
तेरे अपने अरमानों की ख़ुदकुशी
मेरी आँखों में घूमती है..
तूने भेदे सारे चक्रव्यूह
कौन्तेयपुत्र से अधिक
जबकि नहीं जानती थी
निकलना बाहर
या शायद जानती थी
पर नहीं निकली हमारी खातिर
अपनी नहीं अपनों की खातिर
ओस सी होती थी
जो कभी होती तेरी नज़रों में नाराजगी
जो हमें छाया मिलती थी
वो तेरी छत्र के कारण थी
पर तू खुद तपती रही
गलती रहीं माँ
क्योंकि तेरी अपनी छत्र
तेरे अपने ऊपर नहीं थी
इसलिए
हाँ इसीलिए
दुनिया की हर ऊंचाई
तेरे कदम चूमती है
माँ
आज भी तेरी बेबसी
मेरी आँखों में घूमती है...
दीपक 'मशाल'
चित्र गूगल से साभार
आज भी तेरी बेबसी
मेरी आँखों में घूमती है
तेरे अपने अरमानों की ख़ुदकुशी
मेरी आँखों में घूमती है..
तूने भेदे सारे चक्रव्यूह
कौन्तेयपुत्र से अधिक
जबकि नहीं जानती थी
निकलना बाहर
या शायद जानती थी
पर नहीं निकली हमारी खातिर
अपनी नहीं अपनों की खातिर
ओस सी होती थी
जो कभी होती तेरी नज़रों में नाराजगी
जो हमें छाया मिलती थी
वो तेरी छत्र के कारण थी
पर तू खुद तपती रही
गलती रहीं माँ
क्योंकि तेरी अपनी छत्र
तेरे अपने ऊपर नहीं थी
इसलिए
हाँ इसीलिए
दुनिया की हर ऊंचाई
तेरे कदम चूमती है
माँ
आज भी तेरी बेबसी
मेरी आँखों में घूमती है...
दीपक 'मशाल'
चित्र गूगल से साभार