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शनिवार, 8 मई 2010

माँ------------------------>>>दीपक 'मशाल'


माँ दिवस पर 'अनुभूतियाँ' से एक कविता माँ के लिए...

माँ
आज भी तेरी बेबसी
मेरी आँखों में घूमती है
तेरे अपने अरमानों की ख़ुदकुशी
मेरी आँखों में घूमती है..

तूने भेदे सारे चक्रव्यूह
कौन्तेयपुत्र से अधिक
जबकि नहीं जानती थी 
निकलना बाहर
या शायद जानती थी 
पर नहीं निकली हमारी खातिर
अपनी नहीं अपनों की खातिर

ओस सी होती थी 
जो कभी होती तेरी नज़रों में नाराजगी
जो हमें छाया मिलती थी
वो तेरी छत्र के कारण थी

पर तू खुद तपती रही 
गलती रहीं माँ
क्योंकि तेरी अपनी छत्र
तेरे अपने ऊपर नहीं थी

इसलिए 
हाँ इसीलिए 
दुनिया की हर ऊंचाई
तेरे कदम चूमती है
माँ 
आज भी तेरी बेबसी
मेरी आँखों में घूमती है...
दीपक 'मशाल'
चित्र गूगल से साभार

सोमवार, 25 जनवरी 2010

एक गीत############### दीपक मशाल

ना मिले आसमा ना जमीं मयस्सर होवे
बस तेरी गोद हो माँ जिसमें मेरा सर होवे
अब यही ठान के हम लड़ चले हैं तूफाँ से
के तेरे पैर हों माँ काफिरां दा सर होवे.
ना मिले आसमा.........

दरिया या समंदर हो और ना कश्ती हो
देखते-देखते उस  पार चले जायेंगे
इतनी अरदास है माँ मेरी तिरे चौखट पे
के तेरे बेटे पे माँ तेरी इक नज़र होवे
ना मिले आसमा..........

ख़ाक हस्ती मैं करुँ बुरी नज़र वालों की
रखके सूरज को तेरे सर पे आँख मूंदूं माँ
गिरे जब भी ये बदन मिले आँचल का कफ़न
और मेरी मौत का माँ दूर तक असर होवे
ना मिले आसमा..........

ऐसी हलचल के चिरें सीने सारी तोपों के
हौसले रकीबों के धूल में मिला  डालें
कोई देखे ना पलट के भी तेरे दामन पे
इस कदर रूह का भी मेरी माँ असर होवे
ना मिले आसमा...........

जागे सिंहों के शहर राख ये पड़े जिधर
सारे देशों का शहंशाह हिन्दुस्तान बने
अश्क निकले न किसी आँख से जाने पे
जो भी निकले वो सुर्ख लहू-ए-जिगर होवे
ना मिले आसमा...........
दीपक मशाल

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