शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

किस किस का नाम लूं मैं मुझे हर किसी ने चाहा..------>>>दीपक मशाल

'किस किस का नाम लूं मैं मुझे हर किसी ने चाहा..' मसि-कागद को बनाये भी करीब एक साल हो गया और ईश्वर के बनाये दीपक मशाल ब्लॉग को भी ३० साल पूरे.. और पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो ये पंक्तियाँ ही मन में आती हैं (हालाँकि मारा कि जगह हमेशा मन में चाहा ही आता है..)
जैसा कि लोग मानते हैं कि ६० साल सठियाने की उम्र है.. तो आज मैं उस सठियाने की उम्र से उतने ही फासले पर हूँ जितना उसके करीब आ गया हूँ..
पिछले एक साल से जबसे ये ब्लॉग बनाया.. तब से अब तक निरंतर आप सबका स्नेह मिलता रहा है और उसके लिए मैं आपका आभारी तो कतई नहीं हूँ. क्योंकि आभार परायों से जताया जाता है और आप में से कोई भी यहाँ पराया नहीं मेरे लिए. भरसक कोशिश की कि किसी को नाराज़ ना करुँ.. क्योंकि मेरी ज़िंदगी का जो मकसद है वो किसी को नाराज़ करके कभी पूरा नहीं हो सकता. उसके लिए मुझे आप सबके स्नेह, आशीष और मार्गदर्शन की जरूरत है.
आपसे श्याम नारायण पाण्डेय जी की पंक्तियों के माध्यम से अपनी बात कहना चाहता हूँ-
'जिसपर कृपा हो आपकी
वह जग विजेता हो गया
उसको ना कुछ दुर्लभ
धरा का धीर नेता हो गया.'
वैसे कभी जानबूझ कर किसी को दुखी करने की मेरी मंशा तो नहीं रही मगर अनजाने में ही हाल के दिनों में यदि आप में से किसी को भी मेरी किसी बात से तकलीफ हुई हो तो वो मुझे नादाँ, बेवकूफ और अपना समझ कर कम से कम इसबारी तो माफ़ कर देंगे.. ऐसा मेरा विश्वास है. आगे से कोशिश करूंगा कि सिर्फ वही बात कहूं जो किसी को कष्ट ना दे.
एक बार फिर उन सबसे जो आहत हुए हैं यही कहूँगा कि-
'नाथ शम्भु धनु भंजनिहारा
होइहे कोऊ इक दास तुम्हारा'
आप में से ही कुछ अज़ीज़ हैं जिन्होंने मेरे परिवार को देखने की इच्छा ज़ाहिर की थी सो इच्छा का सम्मान करते हुए अपने संयुक्त परिवार के कुछ सदस्यों से यहाँ पहिचान करा रहा हूँ..
मेरे आदरणीय बाबा एवं स्व.दादी जी*

मम्मी एवं पापा

गार्गी(सहोदर बहिन) और संजय जी देव के साथ
पापा जब उनकी शादी हुई थी तब*


मेरे भांजे श्री देव जी एवं बहनोई श्री संजय जी
पापा के बचपन की तस्वीर*
ये है आपका गुनहगार
 दिल से ईश्वर से जो दुआ निकलती है उसे शब्द दिए हैं- 
इक हाथ कलम दी देव मुझे
दूजे में कूंची पकड़ा दी..
संवाद मंच पर बोल सकूं
ऐसी है तुमने जिह्वा दी
पर इतने सारे मैं हुनर लिए
विफल सिद्ध न हो जाऊं..
तुमने तो गुण भर दिए बहुत
खुद दोषयुक्त न हो जाऊं..
भूखे बच्चों के पेटों को
कर सकूं अगर तो तृप्त करूँ..
जो बस माथ तुम्हारे चढ़ता हो
वो धवल दुग्ध न हो जाऊं..
इतनी सी रखना कृपा प्रभो
मैं आत्ममुग्ध न हो पाऊं
मैं आत्ममुग्ध न हो पाऊं...
दीपक मशाल
*तस्वीरें बाबा ने ही निकालीं

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

फैसला होने को है---------------->>>दीपक मशाल














१-


लो उठाओ दोने-कुल्हड़, ले जाओ पत्तलें
फिर न कहना कि हमको बासन* नहीं मिलता

छक कर था खाया मुखिया के बेटे की शादी में
अब अफसर से कह रहे हो राशन नहीं मिलता.

आये हो हमारे द्वारे तो देहरी पे बैठ जाओ
ये न कहना कि दलित को आसन नहीं मिलता

खुद को तो आता है नहीं जीना सुकून से 
और चीखते हो ढंग का शासन नहीं मिलता

वोटों की है जरूरत तो जमीं पे उतरे हैं वो
वर्ना बाद में तो उनका भाषन नहीं मिलता 

२-
फैसला होने को है
संदेशे भेजे जा रहे हैं-
'दुआ करो मस्जिद के हक में हो फैसला'
नारे लग रहे हैं-
'यज्ञ करो कि जीते मंदिर'
दिल बौरा गया है
अपने कान बंद कर लिए
आँखें भींच लीं उसने 
बस यही मंतर की तरह जप रहा है
आयत की तरह बुदबुदा रहा है कि 
''दुआ है इंसानों के लिए
जिन्दा जानों के लिए....''
दीपक मशाल 
*बासन- बर्तन 
 इनका बैलेंस देखकर कोई भी अपनी अंगुलियाँ दांतों तले दबा लेगा..

बुधवार, 15 सितंबर 2010

लन्दन वाले कपड़े अब खादी हो गए हैं---------------->>>दीपक मशाल





४ साल पहले इस मंचीय व्यंग्य कविता के पाठ पर हिन्दी दिवस पर दिल्ली के एक सरकारी संस्थान में पुरस्कार मिला था.. कोई ख़ास तो नहीं मगर फिर भी पढ़ियेगा.. 


अब तो इस सब के हम आदी हो गए हैं-३ 

लन्दन वाले कपड़े अब खादी हो गए हैं-२ 

कैसे हंस सकेंगे हम हंसने वाली बातों पे-३ 

खुशियाँ सारे बेच दीं अवसादी हो गए हैं-२ 

अब तो इस सब के हम आदी हो गए हैं--२

लन्दन वाले कपड़े अब खादी हो गए हैं-२



आज हम सच्च में इक सच्ची बात सुनाते हैं-३

देश में जो चल रहा है उसको बताते हैं-२

ईमानदारी के भाषण पे ताली जो बजाते हैं-३ 

वे भी मेजों के नीचे हाथ खिसकाते हैं-२

मिठाई के डिब्बे कभी घर मंगवाते हैं-३

खाते-खाते मोटे सेठ वादी हो गए हैं-२

अब तो इस सब के हम आदी हो गए हैं-२

लन्दन वाले--------------------------- -२



अंगुली उठाने पे वो ऐसे चिल्लाते हैं-३

जैसे हड्डी छीनने पे कुत्ते गुर्राते हैं-२ 

फिर विस्तार से हमें ये समझाते हैं-३

इतना तो दुनिया में सभी लोग खाते हैं-२

पता है ईमान वाले कैसे घर चलाते हैं-३

सच्चे लोग झूठों के अपराधी हो गए हैं-२

अब तो इस सब के हम आदी हो गए हैं-२

लन्दन वाले--------------------------- -२



नेताओं के बेटे कभी पेट्रोल पी जाते हैं-३

और बेटे किसी के कोकीन चबाते हैं-२

पहली बीवी छोड़ के स्वयंवर रचाते हैं-३

और गरीबों के बेटे जब मेट्रो पुल बनाते हैं-२

लालची लोगों की खातिर बलि चढ़ जाते हैं-३(इन तीन पंक्तियों में पहले से कुछ तब्दीलियाँ की हैं इसे समसामयिक बनाने के लिए)

गरीबों के हक अब लादी हो गए हैं-२

अब तो इस सब के हम आदी हो गए हैं-२

लन्दन वाले--------------------------- -२



हर नया नेता यहाँ प्रेस को बुलाता है-३

बीती सरकारों पे वो गुस्सा दिखाता है-२

फिर नए टेक्सों से महंगाई बढ़ाता है-३

ऐसे जन सेवकों ने देश को सम्हाला है-२ 

मुरली बजाने वाला तू ही रखवाला है-३ 

हाथ में बन्दूक वाले गांधी हो गए हैं-२ 

अब तो इस सब के हम आदी हो गए हैं-२

लन्दन वाले--------------------------- -२

दीपक मशाल 

सोमवार, 13 सितंबर 2010

कविता------------------------->>>दीपक मशाल

होती है वारदात
मारा जाता है गरीब इक सोने के चाकू से
मौका-ए-वारदात पर आती है पुलिस 
मिलते हैं सबूत कुछ
कुछ मिटाए जाते हैं
नहीं मिलते कुछ
कुछ बनाये जाते हैं

लगती है अदालत 
जिरह चलती है 
सृजित होते हैं अड़ंगे
बढ़ती हैं तारीखें
दिन बिताये जाते हैं 
खाली आंतें ला खड़ा करती हैं 
फर्जी गवाहों को कठघरे में
सच्चाई की नीलामी करने को
खरीदारों की भीड़ है
ईमान बिक जाता है ऊंचे दामों में 

मुद्दई की सूनी आँखों में भर जाते हैं नुकीले पत्थर
जो हर गुज़रते दिन के साथ बड़े होते जाते हैं
फिर उस दिन उन पत्थरों से रिसने लगता है खारा पानी
जब जीतता है वकील
जब हारता है इंसान
जब जीतता है क़ानून
जब इन्साफ हार जाता है..
दीपक मशाल 

रविवार, 12 सितंबर 2010

आदमी की तरह चलता कुत्ता और तुम्हें मेरी याद भी नहीं आती.. हुँह..----------------->>>दीपक मशाल

सुबह से कुछ लिखने का जी किया आज... बस टाइप करता चला गया.. बाद में देखा तो ये बना... अब जो बना सो बना.. पर सोचता हूँ आपको दिखा ही दूँ..


काश तुम्हारी याद होती कोई बिल्ली 
जब भी वक़्त बे-वक़्त 
दिल-ओ-दिमाग के कमरे में विचरने की कोशिश करती
दबे पाँव चुपके से अन्दर आने का  
घुसने का जतन करती
उसकी उम्मीदों पर पानी फेरते हुए
बंद कर लेता दरवाजे खिड़कियाँ सब
उस चौंड़े मुँह वाले पनाले में ठूंस देता
तुम्हारे बुरे बर्ताव वाली पुरानी कमीज़ को गोल करके 

वो बाहरी दीवार पे लगाती रहती 
अपने धारदार नाखूनों की मदद से सेंध
और मैं बेफ़िकर हो खोया रहता अपने आप में

वो खरोंचे मारती रहती
पंजों से दरवाजों को लहुलुहान करती रहती
लेकिन मैं कर जाता अनसुना
तब जब मैं खाली नहीं होता 
और नहीं जाना चाहता उसके पास 
उन यादों को ना भरना चाहता अपने आगोश में

उस याद की बिल्लौरी आँखें
हो जातीं उदास
और मुझे आता कुछ तरस सा
उसके हाल पर, बेचारगी पर
तब ताज़ी हवा के नाम पर खोल देता मैं खिड़कियाँ
खोल देता दरवाज़े सारे

और वो बेजुबान फुदक के आ बैठती मेरी गोद में
मेरी जानिब देखती वो
प्यार और कुछ शिकायत भरी नज़रों से
जैसे कह रही हो
'तुम्हें मेरी याद भी नहीं आती.. हुँह...'
दीपक मशाल 
जाने से पहिले ये वीडिओ तो देखिये..  वो शेर याद दिला देगा कि 
''कौन कहता है कि आसमाँ में छेद हो नहीं सकता..''



चित्र साभार गूगल से

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

ग़ज़ल पढ़िए और देखिये कि कैसे एक कुकुर को आती है गिनती और जोड़, घटाना------->>>दीपक मशाल

आदरणीय अग्रज श्री राजेन्द्र स्वर्णकार जी द्वारा मेरी इस रचना को ग़ज़ल का स्वरुप दिया गया है.. उनका बहुत आभारी हूँ..
 
बड़ी मुश्किल से हाथ आए , तुम्हें हम जाने कैसे दें
अभी पैदा हुई ख़्वाहिश , अभी मर जाने कैसे दें
अभी तो रूठ कर आया है इक बादल समंदर से
ज़मीं प्यासी है , इसको लौट कर अब जाने कैसे दें 
तुम्हीं ने आज़माया है , मेरी सच्चाई को यारों
तुम्हारे झूठ पर पर्दा कोई पड़ जाने कैसे दें
' भुला देना न मुझको ' - यूं कहा करते थे तुम अक्सर
न भूलेंगे तुम्हें हम … टूट ये  दिल  जाने  कैसे दें.
इन्हीं ज़ख़्मों की ख़ातिर पूछने आते वो घर मेरे
कोई ज़ख़्मों से कहदे , हम उन्हें भर जाने कैसे दें 
बरी हो'के तू निकला है, अदालत से अभी , लेकिन
मुकद्दमे और भी हैं जो  कहे  - ' हम जाने कैसे दें '
जहां को तू बदल डाले , नहीं इतना भी तू क़ाबिल
'मशाल' अब जां पॅ तुझको खेलते ही जाने कैसे दें 
दीपक मशाल
अब यहाँ देखिये क्या कमाल की ट्रेनिंग दी गई है इन साहब को कि गणित भी आता है..अब कोई बच्चा जो काहे कि मैथ्स मुश्किल है तो कौन मानेगा.. मास्टर तो यही कहेंगे कि ''कुत्तों को भी गणित आता है''




मंगलवार, 7 सितंबर 2010

दुल्हन के जेवर आज भी गिनते हैं हर जगह------------->>>दीपक मशाल

तुम्हारे दिल की अब धड़कन, हमारे साथ क्यों ना है
कभी होती थी जो लब पे, वो अब बात क्यों ना है

नहीं लगता साथ होकर भी, अब तुम साथ हो मेरे
मिरे हाथों में होता था जो, वो अब हाथ क्यों ना है

नहीं चंदा कहीं दिखता, सितारे भी नदारद हैं
कभी जन्नत सी होती थी, वो अब रात क्यों ना है

कि क्यों फैला है सन्नाटा, बिरादर तेरी बस्ती में
संगीत है ना गीत है, अरे वो साज़ क्यों ना है

नहीं बरसा है सावन फिर, हैं पत्ते सूखते सारे
गया भादों भी आधा पर, यहाँ बरसात क्यों ना है

अंधेरों की कई फूँकें, ये दीपक लील बैठी हैं
क्यों हाथों में है फिर शम्मा, मशाल हाथ क्यों ना है.
दीपक मशाल

दुल्हन के जेवर आज भी गिनते हैं हर जगह
दुल्हे के तेवर आज भी मिलते हैं हर जगह
कमते हैं जेवरात तो बढ़ते हैं तेवरात
बाबुल के सर आज भी झुकते हैं हर जगह


दीपक मशाल

रविवार, 5 सितंबर 2010

अर्चना जी के स्वर में शिक्षक दिवस पर गीत और पवन चन्दन जी के साथ मेरी जुगलबंदी------>>>दीपक मशाल

आज शिक्षक दिवस पर आप सभी को शुभकामनाएँ.. सुनियेगा अर्चना चावजी जी के स्वर में शिक्षक दिवस की एक भेंट.. और उसके बाद पवन चन्दन जी के साथ मेरी एक जुगलबंदी....



पहले गीत सुनिए--



अब जुगलबंदी---
चांद और बदली में हो गयी खटपट

रूठी हुई बदरिया सूरज से करके घूंघट
सिसकियां भर भर के रो रही है
लोग कहते हैं बारिश हो रही है



कुरूप होने से पहले जो हो गया था मैला
मौसम की धूल का न रहे दाग पहला
वसुंधरा आपने दामन हो धो रही है
लोग कहते हैं बारिश हो रही है



ज्यों रुदाली ढो रही हो अनंत कालों से प्रथा को
ताड़ उसकी इस व्यथा को उसके अंतस की कथा को
रो के वो बेज़ार अपने नमकीन मोती खो रही है
लोग कहते हैं बारिश हो रही है



भीगी चोली भीगा दामन वो ले रही अंगडाई भी
गेशुओं से झांकती वो लगती है इठलाई भी
सूर्य औ सागर के सुर सुन बेसुध नृत्य में वो हो रही है
लोग कहते हैं बारिश हो रही है  



फागुन में ये बदरिया मस्‍त हो के छा गयी है
भर भर के घट लबालब रंग ले के आ गयी है
देवर समझ के सब को छम छम भिगो रही है
लोग कहते हैं बारिश हो रही है.
पवन चन्दन और दीपक मशाल 

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

कब तक साथ निभाओगे तुम------------>>>दीपक मशाल


देखो जग ने छोड़ दिया है
मुझको सबने छोड़ दिया है
कब तक साथ निभाओगे तुम
कब मुझसे कतराओगे तुम
हाथ मेरे जब खाली होंगे
क्या तब साथ में आओगे तुम

चट्टानें पत्थर सब उड़के
जब मेरी जानिब दौड़ेंगे
तूफाँ कितने अन्दर-बाहर
जब मेरी राहें मोडेंगे
क्या मेरी बांह में बाँहें देके
इन सबसे टकराओगे तुम
कब तक साथ....

पैर थकेंगे मेरे जब ये
राह कोई चलने से पहले
मंजिल का हो होश बाद में
मैं खुद के होश सम्हालूँ पहले
घिसट रहेंगे कदम मेरे जब
क्या तब साथ निभाओगे तुम
कब तक साथ....

ऐसे ताने सुनता हूँ मैं
जैसे गाने सुनता हूँ मैं
सांझ ढले तक उधड़ा देता
सुबह ख्वाब जो बुनता हूँ मैं
क्या सूखी नदिया की धारा में
अपनी नाव चलाओगे तुम
कब तक साथ....

छिन्न भी होगा भिन्न भी होगा
इस जग की नज़रों में जब सब
तन ये मेरा मन ये मेरा
निर्वस्त्र हो जाएगा जब सब
क्या काँधे से चिपका के कांधा
सबसे नज़र मिलाओगे तुम
कब तक साथ...

अब तो रब भी रूठ गया है
अन्दर सब कुछ टूट गया है
इक रीता कमरा छूट गया है
कोई अपना लूट गया है
सबने तो ठुकरा डाला है
कब मुझको ठुकराओगे तुम
कब तक साथ....
दीपक मशाल 
चित्र साभार गूगल से

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

मिलिए सुपरस्टार आइन्स्टाइन से.. ------>>>दीपक मशाल

सबसे पहले तो दुनिया के पहले दार्शनिक(श्री कृष्ण) के जन्मदिवस पर आप सबको शुभकामनाएं..

यहाँ मिलिए सुपरस्टार आइन्स्टाइन से.. पक्का आप दीवाने हो जायेंगे इनके..

और अब देखिये इन्हें टेलीविजन पर..

साथ में इस नाचीज़ की १० साल पुरानी चंद गुस्ताखियाँ बर्दाश्त कीजिए-

गुस्ताखी नंबर १-

हर नज़र को यहाँ प्यार करना नहीं आता

हर जुबां को यहाँ इकरार करना नहीं आता

बस इसलिए तन्हा खड़े हैं हम अब तलक

इश्क़ करते हैं मगर इज़हार करना नहीं आता

गुस्ताखी नंबर २-

क्या करेंगे झाँक कर

मेरे गुज़रे हुए कल में

कुछ ख्वाबों की हकीक़त से

रूबरू हो जायेंगे

इस कब्र के ज़ख्मों की

टीस गर पहचान ली

कुछ शरीफ इस शहर के

बेआबरू हो जायेंगे

गुस्ताखी नंबर ३-

जो भर दे ज़ख्म-ए-जिंदगी

मरहम ऐसी मिलती नहीं

वर्ना पैमानों से कर के आशिकी

माशूक ना हम बनते कभी

गुस्ताखी नंबर ४-

किताबें पढ़ने लगीं चेहरा मेरा

ख्याल जब भी मुझे आया तेरा

फड़फडाते पन्ने लगे कहने कि जैसे

अभी छू के गया मुझे साया तेरा

गुस्ताखी नंबर ५-

बड़े बेदर्द कातिल हो

एहसान ये करना कम से कम

बर्बाद भले ही कर जाओ

बदनाम ना करना कम से कम..

माफीज़दा -

दीपक मशाल

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