गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

बुख़ारी परिवार किसी भी ऐसी गतिविधि से नहीं जुड़ा है जिससे मुसलमानों का या समाज के किसी भी वर्ग का भला हो-------------->>>शीबा असलम फहमी


अहमद बुख़ारी द्वारा लखनऊ की प्रेस वार्ता में एक नागरिक-पत्रकार के ऊपर किये गए हमले के बाद कुछ बहुत ज़रूरी सवाल सर उठा रहे हैं। एक नहीं ये कई बार हुआ है की अहमद बुख़ारी व उनके परिवार ने देश के क़ानून को सरेआम ठेंगे पे रखा और उस पर वो व्यापक बहस नहीं छिड़ी जो ज़रूरी थी। या तो वे ऐसे मामूली इंसान होते जिनको मीडिया गर्दानता ही नहीं तो समझ में आता था, लेकिन बुख़ारी की प्रेस कांफ्रेंस में कौन सा पत्रकार नहीं जाता? इसलिए वे मीडिया के ख़ास तो हैं ही। फिर उनके सार्वजनिक दुराचरण पर ये मौन कैसा और क्यों? कहीं आपकी समझ ये तो नहीं की ऐसा कर के आप ‘बेचारे दबे-कुचले मुसलमानों’ को कोई रिआयत दे रहे हैं? नहीं भई! बुख़ारी के आपराधिक आचरण पर सवाल उठा कर भारत के मुस्लिम समाज पर आप बड़ा एहसान ही करेंगे इसलिए जो ज़रूरी है वो कीजिये ताकि आइन्दा वो ऐसी फूहड़, दम्भी और आपराधिक प्रतिक्रिया से भी बचें और मुस्लिम समाज पर उनकी बदतमीज़ी का ठीकरा कोई ना फोड़ सके।
इसी बहाने कुछ और बातें भी; भारतीय मीडिया अरसे से बिना सोचे-समझे इमाम बुखारी के नाम के आगे ‘शाही’ शब्द का इस्तेमाल करता आ रहा है। भारत एक लोकतंत्र है, यहाँ जो भी ‘शाही’ या ‘रजा-महाराजा’ था वो अपनी सारी वैधानिकता दशकों पहले खो चुका है। आज़ाद भारत में किसी को ‘शाही’ या ‘राजा’ या ‘महाराजा’ कहना-मानना संविधान की आत्मा के विरुद्ध है। अगर अहमद बुखारी ने कोई महान काम किया भी होता तब भी ‘शाही’ शब्द के वे हकदार नहीं इस आज़ाद भारत में। और पिता से पुत्र को मस्जिद की सत्ता हस्तांतरण का ये सार्वजनिक नाटक जिसे वे (पिता द्वारा पुत्र की) ‘दस्तारबंदी’ कहते हैं, भी भारतीय लोकतंत्र को सीधा-सीधा चैलेंज है।
रही बात बुख़ारी बंधुओं के आचरण की तो याद कीजिये की क्या इस शख्स से जुड़ी कोई अच्छी ख़बर-घटना या बात आपने कभी सुनी? इस पूरे परिवार की ख्याति मुसलमानों के वोट का सौदा करने के अलावा और क्या है? अच्छी बात ये है की जिस किसी पार्टी या प्रत्याशी को वोट देने की अपील इन बुख़ारी-बंधुओं ने की, उन्हें ही मुस्लिम वोटर ने हरा दिया। मुस्लिम मानस एक परिपक्व समूह है। हमारे लोकतंत्र के लिए ये शुभ संकेत है। लेकिन पता नहीं ये बात भाजपा जैसी पार्टियों को क्यों समझ में नहीं आती ? वे समझती हैं की ‘गुजरात का पाप’ वो ‘बुख़ारी से डील’ कर के धो सकती हैं।
एक बड़ी त्रासदी ये है कि दिल्ली की जामा मस्जिद जो भारत की सांस्कृतिक धरोहर है और एक ज़िन्दा इमारत जो अपने मक़सद को आज भी अंजाम दे रही है। इसे हर हालत में भारतीय पुरातत्व विभाग के ज़ेरे-एहतेमाम काम करना चाहिए था, जैसे सफदरजंग का मकबरा है जहाँ नमाज़ भी होती है। क्योंकि एक प्राचीन निर्माण के तौर पर जामा मस्जिद इस देश की अवाम की धरोहर है, ना की सिर्फ़ मुसलमानों की। मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने इसे केवल मुसलमानों के चंदे से नहीं बनाया था बल्कि देश का राजकीय धन इसमें लगा था और इसके निर्माण में हिन्दू-मुस्लिम दोनों मज़दूरों का पसीना बहा है और श्रम दान हुआ है। इसलिए इसका रख-रखाव, सुरक्षा और इससे होनेवाली आमदनी पर सरकारी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए ना की एक व्यक्तिगत परिवार की? लेकिन पार्टियां ख़ुद भी चाहती हैं की चुनावों के दौरान बिना किसी बड़े विकासोन्मुख आश्वासन के, केवल एक तथाकथित परिवार को साध कर वे पूरा मुस्लिम वोट अपनी झोली में डाल लें। एक पुरानी मस्जिद से ज़्यादा बड़ी क़ीमत है ‘मुस्लिम वोट’ की, इसलिए वे बुख़ारी जैसों के प्रति उदार हैं ना की गुजरात हिंसा पीड़ितों के रिफ्यूजी कैम्पों से घर वापसी पर या बाटला-हाउज़ जैसे फ़र्ज़ी मुठभेढ़ की न्यायिक जांच में!
ये हमारी सरकारों की ही कमी है कि वह एक राष्ट्रीय धरोहर को एक सामंतवादी, लालची और शोषक परिवार के अधीन रहने दे रहे हैं। एक प्राचीन शानदार इमारत और उसके संपूर्ण परिसर को इस परिवार ने अपनी निजी मिलकियत बना रखा है और धृष्टता ये की उस परिसर में अपने निजी आलिशान मकान भी बना डाले और उसके बाग़ और विशाल सहेन को भी अपने निजी मकान की चहार-दिवारी के अन्दर ले कर उसे निजी गार्डेन की शक्ल दे दी। यही नहीं परिसर के अन्दर मौजूद DDA/MCD पार्कों को भी हथिया लिया जिस पर इलाक़े के बच्चों का हक़ था। लेकिन प्रशासन/जामा मस्जिद थाने की नाक के नीचे ये सब होता रहा और सरकार ख़ामोश रही। जिसके चलते ये एक अतिरिक्त-सत्ता चलाने में कामयाब हो रहे हैं। इससे मुस्लिम समाज का ही नुक्सान होता है की एक तरफ़ वो स्थानीय स्तर पर इनकी भू-माफिया वा आपराधिक गतिविधियों का शिकार हैं, तो दूसरी तरफ़ इनकी गुंडा-गर्दी को बर्दाश्त करने पर, पूरे मुस्लिम समाज के तुष्टिकरण से जोड़ कर दूसरा पक्ष मुस्लिम कौम को ताने मारने को आज़ाद हो जाता है।
बुख़ारी परिवार किसी भी तरह की ऐसी गतिविधि, संस्थान, कार्यक्रम, आयोजन, या कार्य से नहीं जुड़ा है जिससे मुसलमानों का या समाज के किसी भी वर्ग का कोई भला हो। न तालीम से, न सशक्तिकरण से, न कोई हिन्दू-मुस्लिम समरसता से, और न ही किसी भलाई के काम से इन बेचारों का कोई मतलब-वास्ता है…. तो फिर ये किस बात के मुस्लिम नेता?
शीबा असलम फहमी 

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

अमेरिका के सबसे बड़े रावण के दहन और रामलीला की धूम---------->>>दीपक 'मशाल'

उत्तरी कैरोलिना से सुप्रसिद्ध साहित्यकार आदरणीया डॉ.सुधा ओम ढींगरा जी के सौजन्य से ये रिपोर्ट प्राप्त हुई.. सोचा आप सब साथियों से साझा कर लिया जाए.. भारतीय संस्कृति और सभ्यता के प्रसार का सम्माननीया डॉक्टर सा'ब और उनके साथियों का यह प्रयास निश्चित ही सराहनीय है..

अक्तूबर १७, २०१० को हिंदी विकास मंडल एवं हिन्दू सोसाईटी (नार्थ कैरोलाईना) ने मौरिसविल (नार्थ कैरोलाईना) के हिन्दू भवन के खुले ग्राउंड में दशहरा उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया| ३८ फुट का रावण (जिसका शरीर ३० फुट का, सिर ६ फुट का, मुकुट १.८ फुट का और कलगी ०.२ फुट की थी) सबके आकर्षण का केंद्र था| अमेरिका में यह सबसे बड़ा रावण था| इसका डिजाइन और ढांचा स्वयं-सेवकों की टीम (अशोक एवं मधुर माथुर, रमणीक कामो, अजय कौल, डॉ. ध्रुव कुमार, सतपाल राठी, डॉ. ओम ढींगरा, मदन एवं मीरा गोयल, ममता एवं प्रदीप बिसारिया, तुषार घोष, उत्तम डिडवानिया, लुईस और रमेश माथुर) ने तीन महीने की मेहनत और लगन से तैयार किया|
रावण दहन से पहले राम और रावण के द्वन्द्व युद्ध का मंचन किया गया| ध्वनी और प्रकाश के प्रयोग ने इसे बहुत प्रभावित बना दिया| राम जी की भूमिका (अतीश कटारिया), सीता जी (स्मिता कटारिया), लक्ष्मण (रमेश कलाज्ञानम), हनुमान (डॉ. ध्रुवकुमार), ब्राह्मण (रमेश माथुर ) और रावण (डॉ. अफ़रोज़ ताज) ने किया| रामलीला के इस अंश को लिखा और प्रस्तुत किया डॉ. सुधा ओम ढींगरा ने और निर्देशन दिया रंगमंच के प्रसिद्ध कलाकार और निर्देशक हरीश आम्बले ने| बिंदु सिंह और डॉ. सुधा ओम ढींगरा ने पात्रों का मेकअप कर उन्हें सजीव कर दिया| प्रकाश का सञ्चालन किया शिवा रघुनानन ने और ध्वनी का संयोजन किया जॉन कालवेल ने| राम और रावण को आवाज़ें दीं रवि देवराजन और डॉ. अफ़रोज़ ताज ने| राम जी की शांत और ठहराव वाली आवाज़, रावण की विद्रूप हँसी के मिश्रण पर बच्चों और बड़ों ने बहुत तालियाँ बजाईं| 
राम-लक्ष्मण तथा हनुमान जी के तिलक से उत्सव का आरंभ हुआ| स्टेशन वैगन को सजा कर "इन्द्र वाहन" बनाया गया और उसकी छत पर बैठ कर पूरा काफिला रामलीला ग्राउंड में पहुंचा| पीछे छोटे बच्चों की बानर सेना, हनुमान जी की तरह सजे- धजे "जय सिया राम" का उच्चारण करते चले| अमेरिका की धरती पर समय बंध गया| हज़ारों लोग राम जी की सवारी, रामलीला और रावण दहन में शामिल हुए| इस सारे कार्यक्रम को हिंदी विकास मंडल की अध्यक्ष श्रीमति सरोज शर्मा के मार्ग दर्शन में तैयार किया गया|
रिपोर्टर- कुबेरनी हनुमंथप्पा ( यू .एस .ए )

अब एक कविता जिसका शीर्षक देने के लिए(नामकरण करने के लिए) आप सबसे निवेदन है..

जाने कैसे कुछ रह ही जाता था हरबार कहने से
सोचता सब कह दूंगा आज.. 
हिम्मत भी करता 
पर तुम साथ रहते तो 
कुछ का कुछ कहता..
लगता जैसे अक्कबक्क मारी गई 

कभी कुछ कहता तो 
पता नहीं चलता क्या कहा क्या बाकी रहा
सही भी कहा या नहीं.. क्रम में कहा या नहीं 
पर जाने के बाद तुम्हारे लगता
फिर रह गया बाकी कुछ
जाने ये कुछ क्या है..
ताज्जुब है कि इस रह जाने वाले 'कुछ' के बारे में
उसे ही नहीं पता जिसे कहना है
और ना है पता उसे जिससे कहना है
या क्या पता दोनों जानते हों..

तुम्हें पता है क्या
कैसे किसी के सामने आने से
दिल उछल कर एक सवा फिट ऊपर चढ़ जाता है
दिमाग के ऊपर.. 
और जमा लेता है उसपर अपना अधिकार...
जैसे बिना टोपा लगाए 
घंटे भर को टहल कर आये हों बाहरगांव 
जबकि चल रही हो शीत लहर जनवरी की..
दीपक 'मशाल'

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

देखते हैं कब तलक तुम हमको झेले जाओगे-------->>>दीपक 'मशाल'




देखते हैं कब तलक तुम हमको झेले जाओगे
ना करें कि हाँ करें हम, तुम तो पेले जाओगे

चीर उतरा द्रोपदी का आज कान्हा गुम रहा
दांव खोकर भी सभी तुम, खेल खेले जाओगे

ओए सुन लो फालतू इतना नहीं है माल ये
एक चुटकी की जगह क्या मुठ्ठी भर ले जाओगे.

हैं खड़े इक पांव पर, ये बस भरी है भीड़ से
जो पाँव भी अपना नहीं क्या उसको ठेले जाओगे

बाप की कजूंसियों का आज ये आलम हुआ
दे चवन्नी पूछता है, तुम भी मेले जाओगे

लाइफ जैकेट डाल कर, वो पूछने हमसे लगा
छेद वाली नाव को अब, किस तरफ ले जाओगे.

है ’मशाल’ हाथों में मेरे, पर जिद्द अंधेरों की रही
हम हैं जुगनु के ही साथी, तुम तो वेले जाओगे.

वेले= अकेले
ठोक पीट कर और आखिरी शेर जोड़ कर आदरणीय समीर जी ने रचना को पढ़ने लायक बना दिया..
दीपक 'मशाल'
चित्र- दीपक 'मशाल' 

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

हम जाँच के लिए तैयार हैं(कार्टून)----------->>>दीपक 'मशाल'

कार्टून के माध्यम से कुछ कहने की कोशिश की है..

दीपक 'मशाल'

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

गुरु गुलज़ार साब से मुलाक़ात------>>>दीपक 'मशाल'



कब से इक तमन्ना 

दिल में दबी हुई थी..
तुम चिंगारी कह रहे हो
पूरी आग लगी हुई थी..
सरदार संपूर्ण सिंह जी याने गीतों और नज्मों के सरताज सबके दिलों पर राज करने वाले आदरणीय गुलज़ार साब... एक ऐसी शख्सियत जो ना सिर्फ नज़्म, ग़ज़ल या गीत के मामले में बल्कि फ़िल्मकारी, निर्देशन और कहानी लेखन में भी माउंट एवरेस्ट कहे जा सकते हैं. जिनसे मिलने के लिए मैं इस बार दिसंबर में भारत जाने पर उनके एक करीबी पारिवारिक मित्र के मार्फ़त उनसे मिलने की योजनायें बना रहा था... 
आदरणीया दिव्या माथुर जी के साथ 
जिनको हमेशा लेखन में अपना आदर्श मानता रहा हूँ.. उनको विगत शनिवार तारीख ०९.१०.१० को अपने सामने पाया... लगा कि कुआँ स्वयं प्यासे के पास चला आया.. राजा आया है रंक से मिलने.. चांदनी को ओढ़े हुए, हिमालय जैसे ही सफ़ेद कुरता और पेंट एवं जरी वाली सुनहरी जूतियाँ पहने हुए वो मेरे जैसे जाने कितनों के खुदा मेरी आँखों के सामने थे.. इन्हीं आँखों के सामने जो आज ये पोस्ट लिखते वक़्त की-बोर्ड को निहार रही हैं.. जब वो स्टेज पर थे तो मैं उनकी छवि को आँखों में उतारने के बाद कैमरे में समेटने में लगा रहा.. बाद में खाने के वक़्त 2010 की अप्रवासी मैथिलीशरण गुप्त सम्मान से सम्मानित प्रतिष्ठित साहित्यकार आदरणीया दिव्या माथुर जी, जिनका हमेशा ही मुझपर पुत्रवत स्नेह रहा है, ने श्री गुलज़ार साब से मेरा परिचय कराया.. उनकी चरण रज पाकर अपने को धन्य भाग्य ही समझ रहा हूँ.. उनसे क्या बात हुई? क्या लेना देना हुआ वो सब बाद में पहले अभी सिर्फ वो चंद पंक्तियाँ जो उन्हें देखते ही मन से फूट पड़ीं.. शिल्प या शब्द सौंदर्य तो नहीं है इनमे मगर सिर्फ भाव के लिए शबरी के बेर की तरह चख लीजियेगा..

परदेस में ही सही 
पूरा मेरा इंतज़ार हुआ है
डर था
कहीं खारों के दरमियाँ ही
ना बीत जाए ज़िन्दगी..
तुम आये तो
गुलशन ये 'गुलज़ार' हुआ है..

कुछ ज़िदें हो गयीं थीं ढीठ इतनीं
उन्हें कितना ही दिखलाता बाहर का दरवाज़ा
मगर बारहा आ धमकती थीं दबे पाँव
जाने किस फ़िराक में..

उन्हीं ज़िदों में से एक तो थी 
तुमसे मिलने की ज़िद 
ख्वाहिश होती तो फिर भी समझा ही लेता

खैर.... अब वो ज़िद भी ज़िन्दा ना रही 
रहती भी क्यों भला?
उसकी आख़िरी तमन्ना जो पूरी हो गई
तुम आ गए हो ना चांदनी के लिबास में..

वैसे ये कुछ ज्यादा ही हो गया लेकिन फिर भी विशाल भारद्वाज से उनके करीबी रिश्तों को लेकर ये त्रिवेणी भी उपजी-

डर है सुलगकर ख़ाक ना हो जाऊं
शोला ही रहूँ मैं राख ना हो जाऊं

औरों से तेरी नजदीकियाँ, बहुत जलाती हैं मुझे..
दीपक 'मशाल'
११.१०.१० को एक बार फिरसे उनसे मिलने का मौक़ा मिला तभी ये वीडिओ भी बनाया.--
 

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