रविवार, 30 मई 2010

छमिया(लघुकथा)---------------------->>>दीपक 'मशाल'


नए शहर में पहले दिन बाज़ार से कुछ खरीदने गई थी रमा.... कि तेज धूप में अचानक सड़क पर गिरते उस लड़के को देख वो भी अपनी स्कूटी ले उसकी तरफ बढ़ गई. १०-१२ लोग लड़के को घेर कर खड़े हो गए, मगर सभी उसे देख केवल उसकी बीमारी के बारे में कयास लगाए जा रहे थे.... कोई उसको हस्पताल पहुँचाने को राजी ना था. उसका मन उन इंसानी मशीनों को देख नफरत से भर आया.
शॉपिंग का विचार छोड़ एक साइकिल वाले की मदद से सड़क पर पड़े उस अधबेहोश लड़के को उसने किसी तरह अपनी स्कूटी पर बिठाया और धीरे-धीरे स्कूटी चलाते हुए उसे पास के एक क्लीनिक तक ले गई.
डॉक्टर ने ग्लूकोज की बोतल चढ़ाई और कमजोरी बता कर कुछ टोनिक और हफ्ते भर का आराम लिख दिया.
थोड़ी देर में जब लड़के को होश आया तो डॉक्टर का शुक्रिया अदा करने लगा. तब डॉक्टर ने ही बताया कि रमा ही उसे वहाँ लेकर आयी थी.
''बहुत-बहुत धन्यवाद रमा जी.. मैं आपका अहसान कभी नहीं भूल सकता, आपका जो पूरा दिन ख़राब किया वो तो नहीं लौटा सकता पर अभी घर पहुँच कर जो भी खर्च हुआ वो आपको देता हूँ...'' आभार प्रकट करते हुए उसने कहा
''अरे नहीं.. उसकी कोई जरूरत नहीं है, आखिर इंसान ही इंसान के काम आता है'' रमा ने विनम्रता से कहा
''वैसे मेरा नाम समीर है और यहाँ से थोड़ी दूर राईट हैण्ड पर जो नारायण कॉलोनी पड़ती है ना.. बस उसी के ब्लॉक-सी में रहता हूँ.. पता नहीं कैसे अचानक चक्कर आ गया. शायद सुबह घर से कुछ खा-पीकर  नहीं निकला और आज धूप भी तेज़ थी इसलिए..''
''अरे वाह.. मैंने भी उसी कॉलोनी के ब्लॉक-बी में फ़्लैट लिया है, चलिए फिर आपको घर भी छोड़ देती हूँ..'' रमा ने कहा तो समीर मना ना कर पाया.

३ दिन बाद रमा को ब्लॉक-सी में कुछ काम था तो सोचा 'यहाँ तक आई हूँ तो समीर का हाल लेती चलूँ'. रास्ते से कुछ फल लेकर उसके घर पहुँची और उसका हाल-चाल लेकर वापस जाने के लिए जैसे ही स्कूटी स्टार्ट करने लगी कि घर से थोड़ी दूर खड़े ३ लड़कों की फुसफुसाहट ने उसके कान खड़े कर दिए..
''ओये देख.. समीर की 'छमिया' '' एक बोला
''ओये रहिन दे, फेंक मत'' दूसरा बोला. पहले ने विश्वास दिलाते हुए कहा,''हाँ बे कसम से.. समीर भाई ने ही बताया.. यही तो उस दिन उनको हस्पताल से लाई थी, कहते थे बड़ा मज़ा आया चिपक के बैठने में''
अब तीसरा कैसे चुप रहता,''हायssssss... उस दिन मैं क्यों ना गिरा सड़क पर..''
गुस्से से भरी रमा स्कूटी स्टार्ट कर चुपचाप वहाँ से निकल गई.
आज फिर कहीं जाते हुए रमा ने किसी आदमी का एक्सिडेंट होते देखा.. पर अबकी उसकी स्कूटी नहीं रुकी.
दीपक 'मशाल'
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चित्र साभार गूगल से 
         
 

गुरुवार, 27 मई 2010

बड़ा आदमी(लघुकथा)----------------------------------->>>दीपक 'मशाल'


मुजीब ढाबे से चाय पीने के बाद लौट कर अपने ट्रक पर आया, गाना चालू किया और एक बार फिर ट्रक को पुणे की तरफ दौड़ा दिया.. थोड़ी देर बाद जैसे ही दो गानों के बीच गैप आता, उसे ऐसा लगता कि ट्रक में कोई दूसरा भी है उसने इधर-उधर देखा तो कोई दिखाई ना दिया. अपने मन का वहम समझ वह आगे बढ़ता गया, अब यहाँ अकेले में पूछता भी तो किससे? अरे हाँ अकेले इसलिए कि पिछले हफ्ते ही उसका क्लींज़र हैजे की चपेट में आ दुनिया छोड़ गया था और अभी तक उसे कोई नया क्लींज़र नहीं मिला था. पर माल की डिलीवरी टाइम से देनी थी इसलिए उसे अकेले आना ही पड़ा.
लेकिन जब कई बार उसे ऐसा लगा कि कोई ट्रक में है जो सिसक रहा है तो जाने क्या सोच वो पसीना-पसीना हो गया. पर फिर भी हिम्मत कर उसने ट्रक सड़क से एक साइड में लगाया और अन्दर अच्छे से चेक करने लगा.
वो गलत नहीं था असल में उसकी ड्राइविंग सीट के पीछे एक १४-१५ साल का लड़का एकदम कोने में दुबका सिसक रहा था.
पहले तो काफी देर तक पूछताछ करने पर कुछ नहीं बोला पर जब-
''बताता है अपना नाम और पता या लेके चलूँ तुझे पुलिस थाने में?'' उसने सख्ती से पूछा
फटेहाल सा वो लड़का अचानक बहुत जोरों से रोने लगा, ''मुझे थाने मत ले जाइए मैं सब बता दूंगा.. लेकिन आप किसी से कहना नहीं. वर्ना वो मुझे फिर पकड़ ले जायेंगे और पीटेंगे.''
मुजीब को उसकी हालात पर कुछ तरस आया,
''ठीक है नहीं ले चलूँगा लेकिन कौन पकड़ कर ले जायेंगे? कोई चोर-वोर तो नहीं? तू किस मकसद से मेरे ट्रक में चढ़ा? या कहीं से भाग कर आया है?' उसने ताबड़तोड़ सवाल कर दिए '
''हाँ साब, मेरा मालिक मेरे गाँव से बापू से ये कह कर अपने साथ ले आया था कि मुझे नौकरी पर रखेगा, अच्छी तनख्वाह देगा और पढ़ायेगा भी.. लेकिन...'' कहकर लड़का फिर सिसकने लगा
''लेकिन क्या...''
''बापू ने कहा था कि वो बड़ा आदमी है मेरी जिन्दगी सुधार देगा लेकिन वो यहाँ लाकर मुझसे दिन-रात सिर्फ काम कराता है, खाना भी ढंग से नहीं देता और कुछ कहने पर लात-घूंसों से पीटता है.. मैंने भाग कर शहर में लोगों से उसकी शिकायत करने की कोशिश की पर वो एक इंजीनियर है और उसको सब जानते हैं तो किसी ने मेरी बात नहीं सुनी और मुझे फिर से उसी के पास पहुंचा दिया''
लड़का अब कुछ निर्भीक सा होकर बोलता जा रहा था, ''घर पहुँच कर उस रात मेरी डंडे से बुरी तरह से पिटाई की गई, पीठ पर निशान पड़ गए और अभी भी नील पड़े हैं..''
कहते हुए वो मुजीब की तरफ पीठ कर अपनी कमीज़ ऊपर उठा निशाँ दिखाने लगा.
मुजीब से सहानुभूति और पुलिस को ना सौंपने का आश्वासन पा लड़का कुछ और सहज हो चला था. अगले ढाबे पर चाय पिलाते हुए उसने लड़के से पूछा-
''नाम क्या है तुम्हारा?''
''नाम राजेन्द्र है.. पर सब राजू-राजू कहते हैं'' जवाब मिला
''राजू-राजू या राजू'' उसने मसखरी की
चाय के गिलास में जल्दी-जल्दी डबलरोटी डुबो कर खा रहे सुबह से भूखे राजू के होठों पर मुस्कान तैर गई और उसने हँसते हुए कहा, '' राजू.. इसी रास्ते पर सौ किलो मीटर आगे मेरा गाँव है 'पनरिया' ''
मुजीब ने उसे समझाया, ''हम्म... देखो बेटा मैं कोई बड़ा आदमी तो हूँ नहीं जो तुम्हें नौकरी पर रख सकूं या पढ़ा सकूं लेकिन हाँ मैं तुम्हें तुम्हारे गाँव छोड़ दूंगा, तुम्हारे बापू के पास... ठीक है?''
राजू चुपचाप सिर नीचे किये चाय के गिलास को तके जा रहा था और बड़े आदमी का मतलब समझने की कोशिश कर रहा था.
दीपक 'मशाल'
चित्र साभार गूगल से  

बुधवार, 26 मई 2010

त्रिवेणी और एक कविता---------------->>>दीपक 'मशाल'



पहली बार गुलज़ार साब द्वारा विकसित विधा 'त्रिवेणी' लिखने की कोशिश की है, ज्यादा नहीं पता इसके बारे में इसलिए आपकी अमूल्य राय अपेक्षित है(इसको भ्रष्टाचार से जोड़ कर देखिएगा)... कई लोग आजकल मेरी लघुकथाओं से ऊब से गए हैं इसलिए आज लघुकथा से ब्रेक लेकर ये कल ही लिखी गई एकदम ताज़ी, जिहन के तंदूर से निकली कविता आपके सामने रखता हूँ.. जिसमे कि किसी व्यक्ति के जीवन के उस मोड़ के बारे में लिखा गया है जब वो संतृप्त हो जाता है.. और हाँ अगर आप लोग चाहें तो अभी भी १८ लघुकथाएं शेष हैं आपकी नज़र में लाने के लिए :) बताएं जरूर लाऊं कि नहीं ?????

१- 
अब ख्वाब भी हो गए हैं रेवड़ियों की तरह
जो हर निंदिया की झोली में नहीं गिरते

चलो अबकी किसी पहिचानवाले से बंटवाए जाएँ.

२-
जाने कोई ख्वाहिश नहीं बची क्या अब
क्यों ख्वाब नहीं आते वर्ना
या कि वो....  वो सब सांचे टूट गए
जिनमें दिमाग की सोच ढलकर बन जाती थी सपने

अब खुली आँखों से भी तो नहीं दिखती मंजिल कोई
न बरबस ये हाथ ही बनाने लगते हैं कोई तस्वीर
नाखून भी तो नहीं मचलते
इस कलई वाली दीवार पर कुछ-कुछ उकेरने को

आज संदेशा आया है कि इस बार साल का
सबसे बड़ा सम्मान मेरे नाम हो गया
और अभी कुछ दिन पहले
वो चला गया दुनिया से
जिसे लोग सूरज कहते थे
और मुझे सूरजमुखी

न तो उस दिन कतरा-कतरा करके
बहते दिखा दरिया दृग से कोई
न आज है सारंगी सी बज रही दिल में

अब क्या आँखों को पलकों की चादर ओढ़ा
पूछना चाहिए खुद से ये सवाल
कि ''क्या मैं बुद्ध हो गया हूँ...''
दीपक 'मशाल'
चित्र साभार गूगल से 

रविवार, 23 मई 2010

दाग अच्छे हैं(लघुकथा)-------------------------------->>>दीपक 'मशाल'


''निकल बाहर यहाँ से... बदतमीज़ कहीं का..'' बरसाती गंदे पानी से सनी चप्पलें पहिनें कल्लू को अपने घर में अन्दर घुसते देख शोभा आंटी ने अचानक काली रूप धारण कर लिया और उसकी कनपटी पर एक तमाचा जमाते हुए उसे घर से बाहर निकाल दिया.
''रमाबाई तुमसे कितनी बार मना किया है कि अपनी संतानों को यहाँ मत लाया करो.. सारा धुला-पुंछा घर जंगल बना देते हैं..''
आंटी ने अपनी कामवाली बाई को डांटते हुए कहा.
''आगे से नईं लाऊँगी मेमसाब.. मैं लाती नहीं पर क्या करुँ ये छोटा वाला मेरे पीछे-पीछे लगा रहता है..'' अपनी आँख में भर आये पानी को रोकते हुए घर के बाहर खड़े होकर कनपटी सहलाते कल्लू की तरफ देख बेबस रमाबाई बोली. 
रमाबाई ने चुपचाप पोंछा लेकर पायदान के पास बने कल्लू के तीनों पदचिन्हों को मिटा दिया.
थोड़ी देर बाद आंटी का बेटा प्रसून स्कूल बस से निकल कीचड़ में जूते छप-छप करते घर में घुसा तो उसे देख आंटी का वात्सल्य भाव जाग उठा, 
''हाय रे कितना बदमाश हो गया मेरा बच्चा!!!'' और प्रसून को सीने से लगा लिया..
''सॉरी मम्मी फर्श गन्दा हो गया'' प्रसून ने ड्राइंग रूम के बीच में पहुँच कर मासूमियत से कहा 
शोभा आंटी उसकी स्कूलड्रेस उतारते हुए बोलीं, ''कोई बात नहीं बेटा 'दाग अच्छे हैं' है ना??? अभी बाई फर्श साफ़ कर देगी डोंट वरी''
बाहर खड़ा कल्लू गंदे पानी से भीगी अपनी चप्पलें प्रसून के कीचड़ सने जूतों से मिला रहा था. 
दीपक 'मशाल' 
चित्र साभार गूगल से      

गुरुवार, 20 मई 2010

बरसाती(लघुकथा)---------------------------->>>दीपक 'मशाल'


५-६ रेनकोट देखने के बाद भी उसे कोई पसंद नहीं आ रहा था. दुकानदार ने साहब को एक आखिरी डिजाइन दिखाने के लिए नौकर से कहा..
'पता नहीं ये आखिरी डिजाइन कैसा होगा? इन छोटे कस्बों में यही तो समस्या है कि जरूरत की कोई चीज आसानी से मिलती नहीं.' वो हीरो टाइप का शहरी लड़का इसी सोच में डूबा था कि बाहर हो रही बारिश से बचने के लिए एक आदमी दुकान के शटर के पास चबूतरे पर आकर खड़ा हो गया. शरीर पर कपड़ों के नाम पर एक सैंडो बनियान और एक मटमैला सा पैंट पहिने था वो और एक जोड़ी हवाई चप्पल. चबूतरे पर आते ही पैंट के पांयचे मोड़ने लगा.
रंग, शक्ल से और शारीरिक गठन से तो मजदूर लगता था.. उसके पसीने की बू दुकान में भी एक कड़वी सी बदबू फैला रही थी. बारिश थमती ना देख शायद उसने तेज़ पानी में ही निकलना चाहा. अचानक अपनी जेब में से कुछ निकालने लगा. हाँ ३-४ पांच-पांच रुपये के मुड़े-तुड़े नोट निकले.
उन नोटों को ले वो दुकान के अन्दर आया और २-२.५ मीटर पतली वाली बरसाती खरीदी. बरसाती को अपने सर पर डालते हुए उसने खुद को ऐसे ढँक लिया जैसे कछुए ने अपने आप को खोल में डाल लिया हो.. और दोनों सिरे दोनों कानों के पास से निकाल हाथों में पकड़ लिए. अब सिर्फ उसका चेहरा और पैर दिख रहे थे बाकी पूरा शरीर बरसाती में ढँक चुका था और वो मस्तमौला सा तेजी से भारी बारिश में ही सड़क पर बहते गंदे पानी को हवाई चप्पलों से उछालता हुआ अपने गंतव्य की ओर बढ़ गया.
उस जाते हुए आदमी को काफी देर से गौर से देख रहे उस हीरोनुमा शहरी शख्स को पहले दिखाए सारे रेनकोट अब एकाएक अच्छे लगने लगे थे.
दीपक 'मशाल'
चित्र साभार गूगल से

मंगलवार, 18 मई 2010

बोनट(लघुकथा)----------------------------->>> दीपक 'मशाल'


रोज की तरह कॉलेज जाने के लिए जब उसने अपनी सहेलियों के साथ पास के शहर जाने वाली पहली बस पकड़ी तो बस में क़दम रखने पर कुछ भी नया नहीं मिला.. सामने वाली सीट पर वही बैंक बाबू अपनी अटैची लिए बैठे थे, उनके साथ रस्ते के गाँव में उतरने वाले वो प्राइमरी स्कूल टीचर, बाएं तरफ की सीट पर जिला न्यायालय जाने वाले वो तीन वकील साहब और बोनट व ड्राइवर के आसपास वही ३ छिछोरे लड़कों का गैंग..
''आय हाय आज तो सरसों फूल रही है.. चलें क्या खेत में?'' बोनट की तरफ से पहला घटिया कमेन्ट आया.
उसे क्या सबको समझ आ रहा था कि ये तंज़ उसी के पीले सूट को देख कसा जा रहा है..
दूसरा गुंडा टाइप लड़का कहाँ पीछे रहने वाला था- ''प्यार से ना मिले तो छीनना पड़ता है आजकल की दुनिया में...''
और ना जाने क्या-क्या अनाप-शनाप बोले जा रहीं थीं वो रईस बापों की बिगड़ी हुई औलादें..
कमाल की बात तो ये कि बस में सब सुन कर भी अनसुना कर रहे थे. वो भी चुप रही और उसकी सहेलियां भी.. पर जब बस कंडक्टर किराया लेने आया तो उससे रहा नहीं गया और उससे बोल ही उठी- ''भैया आप रोज के रोज ऐसे लोगों को चढ़ने ही क्यों देते हैं बस में  या फिर चुप क्यों नहीं कराते?''
कंडक्टर रुखाई से बोला- ''देखिये मैडम ये आप लोगों का आपस का मामला है आप ही जानें.. और वैसे भी ना मैं आपका भैया हूँ और ना वो लोग ऐसा कुछ कर रहे हैं कि मैं अपने पेट पर लात मार लूं. आप ही की तरह वो भी मेरी सवारी हैं. अगर कुछ कह दिया तो आप ध्यान ही मत दो, कह ही तो रहे हैं.. कुछ कर थोड़े रहे हैं..'' 
''मतलब??'' वो हैरान रह गई उसका जवाब सुन.
शाम को कंडक्टर जब अपने घर पहुंचा तो पता चला घर में अज़ब कोहराम मचा था.. मोहल्ले के किसी लड़के ने राह चलते उसकी बहिन का दुपट्टा जो छीन लिया था. 
अगले दिन पहली बस में वो लड़कियां थीं, बैंक बाबू , मास्टर साब थे, वकील साब थे और बाकी सब थे.. बस बोनट के आस-पास कोई नहीं था.
दीपक 'मशाल' 
चित्र साभार गूगल सर्च इंजिन से 

रविवार, 16 मई 2010

तलब (लघुकथा)------------------------------->>> दीपक 'मशाल'


आँख खुलते ही सुबह-सुबह मुकेश को अपने घर के सामने से थोड़ा बाजू में लोगों का मजमा जुड़ा दिखा. भीड़ में अपनी जानपहिचान के किसी आदमी को  देख उसने अपने कमरे की खिड़की से ही आवाज़ देते हुए पूछा-
''क्या हुआ अरविन्द भाई? सुबह से इतनी भीड़ क्यों लगी है?''
''यहाँ कोई भिखारिन मरी पड़ी है मुकेश जी, शायद सर्दी और भूख से मर गई.''
जवाब सुन कर उसे बीती रात का घटनाक्रम याद आ गया..
१० बजे के आसपास सिगरेट की तलब उठते ही वो नाईट ड्रेस में ही १४-१५ रुपये डाल पान की दुकान, जो कि गली के मुहाने पर थी, की तरफ  बढ़ गया. रास्ते में एक मरगिल्ली सी भिखारिन २-३ रुपये के लिए गिगियाने लगी-
''ऐ बाबू जी, दू ठो रुपईया दे देओ.. हम बहुत भूखाइल बानी अउर पेट दुखाता.. तनी दू ठो रोटी खा लेब''
एक पल को मुकेश ठिठका तो पर उसे ख्याल आया कि 'इसे २ रुपये दे दिए तो सिगरेट के पैकेट को कम पड़ जायेंगे और उसे वापस घर भागना पड़ेगा पैसे लेने के लिए. फिर ये तो मंगनी है कोई ना कोई दे ही देगा इसे.'
''अरे दे देओ बाबू जी.. ना तो भूखे हम मर जाइब, भगवान् भला करी'' भिखारिन अभी भी गिड़गिड़ा रही थी और वो ''खुल्ला नहीं है माई'' कह कर वहाँ से बच कर निकल लिया था .

दुखी मन से दातुन करते हुए अब उसे पछतावा हो रहा था कि उसकी सिगरेट की तलब किसी की भूख पर भारी पड़ गई.. एक ज़िंदगी पर भारी पड़ गई.. वो उठा और सबसे पहिले सिगरेट के आधे बचे पैकेट को कमोड में बहा दिया, शायद कुछ दृढ निश्चय सा किया था उसने.
दीपक 'मशाल'
चित्र साभार गूगल से

शुक्रवार, 14 मई 2010

रौंग नंबर(कविता)----------------------------------->>>दीपक 'मशाल'

तुम्हारे भेजे आखिरी ख़त
अब तक मुझे ये समझाने में नाकाम रहे थे
कि मैं क्यों नाकाबिल था तुम्हारे लिए..

क्या तुमने अपनी अनुभवी आँखों के दूरबीन में
अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के लेंस लगाकर
दूर खड़े भविष्य के आस-पास
मेरे साथ बाँहों मे बाहें डाल चलती
जो आकृति देखी थी
जो सुनहरे सपने देखे थे.. वो भ्रम थे
या था मेरा फैलाया तथाकथित मायाजाल

पता नहीं समझ नहीं पा रहा था मैं
या समझा नहीं पा रहा था खुद को
कि जो भी था वो बस हवा में तैरते
साबुन के सतरंगी बुलबुले सा था..

तुम्हारे घर बसने के बाद भी
मैं पागल यही उम्मीद पाले रहा
कि चलो उम्र भर का साथ ना हो पाया तो क्या
प्यार तो जिंदा रहेगा ताजिंदगी
मेरे दिलो-दिमाग में और तुम्हारे भी
तुम्हारे दिमाग में नहीं तो कम से कम  दिल में तो रहेगा ही

देखो ना आज महीनों बाद लगा
कि तुम वहीं हो शायद
तुम्हारे पुराने घर में....
जहाँ हमने साथ-साथ सपने देखे थे.. बिना सोये हुए
और मेरे दिल ने झूठ नहीं बोला..
तुमने ही फ़ोन उठाया था ना...

और मेरी आवाज़ सुनते ही कह दिया 'रौंग नंबर'

जो काम तुम्हारे लम्बे-लम्बे ख़त ना कर सके
वो एक लफ्ज़ ने कर दिया..
पर अभी भी उलझा हूँ इसी सोच में
कि मैं रौंग नंबर पहले था
या कि अब हूँ......

दीपक 'मशाल'
चित्र साभार गूगल से

गुरुवार, 13 मई 2010

वतन के रखवाले (लघुकथा)------------------------------->>>दीपक 'मशाल'


''आप कैसे ये जनरल बोगी खाली करा सकते हैं जबकि इसके बाहर 'सैनिकों के लिए आरक्षित' या इसके जैसा कुछ भी नहीं लिखा?'' उन १०-१२ सैनिकों के कहने पर चुपचाप उस सामान्य बोगी से उतरते लोगों में से उस पढ़े-लिखे से युवक ने एक मिलिट्री वाले से सवाल कर दिया.
''तुझे हम सबकी वर्दी नहीं दिख रही क्या?'' सैनिकों में से एक ने जवाब में सवाल की गोली चला दी.
शायद युवक भी जल्दी हार मानने वाला नहीं था ''पर रेलवे ने पहले से तो ऐसा कुछ बताया...''
''हाँ-हाँ ठीक है भूल होगी रेलवे की.. अब अपना सामान सिमेटो और जल्दी निकलो यहाँ से.'' युवक की बात काटते हुए दूसरा सैनिक बोल पड़ा.
बिना अपना सामान उठाये वो फिर बोला- ''पर अगर ये आर्मी के लिए है तो मेरे चाचा जी भी लेफ्टिनेंट कर्नल हैं.. कैंसर सर्जन हैं वो आर्मी होस्पीटल में. देखिये सर मुझे सुबह ड्यूटी ज्वाइन करनी है और ये रात भर का सफ़र है, मुझे यहीं रहने दीजिए प्लीज़.. आप चाहें तो मैं अंकल से बात करा देता हूँ... अगर विश्वास ना हो तो.''
कहते-लहते वह जेब से मोबाइल निकाल अपने अंकल का नम्बर डायल करने लगा.
उसके मोबाईल वाले हाथ को सख्ती से पकड़ एक सैनिक कुछ ज्यादा ही तैश में आते हुए बोला ''ओये ज्यादा नौटंकी नहीं.. चुपचाप उतर जा या धक्के मार के उतारें.. बाकी के सब चू** थे क्या जो आराम से उतर गए.. बड़ा आया अंकल वाला''
मायूस होकर उसे वतन के उन रखवालों की मंशा पूरी करनी ही पड़ी. उसके डब्बे से नीचे उतरने के साथ-साथ दो लड़कियां उसी बोगी में चढ़ने की कोशिश करने लगीं. जिन्हें उसने समझाने की सोची कि इनलोगों से बात करना फ़िज़ूल है. पर उससे पहले ही- ''ये कम्पार्टमेंट पूरा खाली है, क्या हम इसमें बैठ सकती हैं?''
अन्दर से ३-४ समवेत स्वर उभरे- ''हाँ-हाँ क्यों नहीं? आ जाइये.''
दीपक 'मशाल'
चित्र साभार गूगल से 

मंगलवार, 11 मई 2010

जरिया(लघुकथा)----------------->>>दीपक 'मशाल'


''अंकल मैं उस कॉमिक्स का दो दिन का किराया नहीं दे पाऊंगा.'' कॉमिक्स को एक दिन ज्यादा रखने का किराया देने में असमर्थता ज़ाहिर  करते हुए बल्लू ने दुकानदार से कहा. लेकिन उसके चेहरे पर कोई भाव ना देख  बेचारगी सी दिखाते हुए बोला-
''प्लीज एक ही दिन का किराया ले लीजिये ना अंकल..''
''हम्म.. पैसा तो पूरा देना पड़ेगा'' सपाट सा जवाब मिला और फिर थोड़ी देर तक खामोशी
''रहता कहाँ है वैसे तू? किसका लड़का है?'' उसे ऊपर से नीचे तक घूरते हुए सवाल हुआ..
जेब में सिर्फ अठन्नी लिए बल्लू को कुछ आशा जगी- ''अरे अंकल वो नाले के पास छिद्दन कारीगर को जानते हैं, उन्हीं का बेटा हूँ.''
''ठीक है माफ़ कर देता हूँ.. और मेरा काम करेगा तो फ्री में भी पढ़ सकेगा'' कुछ सोचने के बाद जवाब आया
''लेकिन कल दोपहर १ बजे आना जब दुकान के आसपास कोई ना हो, सब समझा दूंगा''
खुशी से झूमता बल्लू सर हिला के चला गया लेकिन रास्ते भर सोचता रहा कि कौन सा काम होगा जिसकी वजह से उसे इतनी ढेर सारी कॉमिक्स फ्री में पढ़ने को मिलेंगीं. खैर जो भी हो करने का निश्चय कर लिया उसने और अगले दिन नियत समय पर दुकान पर पहुँच गया.
''आ गया तू!! किसी ने देखा तो नहीं?''
''नहीं'' उसने सिर हिलाकर संक्षिप्त सा उत्तर दिया
''हम्म.. चल अन्दर वाले कमरे में''
थोड़ी देर खामोशी छाई रहने के बाद अन्दर वाले कमरे से आवाजें आ रहीं थीं- ''छिः अंकल ये गन्दा काम है.. मुझे घिन आती है''
''तुझे कॉमिक्स पढ़नी है या मैं किसी और को फ्री पढ़ाऊं?''
कुछ पल की खामोशी के बाद अब बल्लू फ्री में कॉमिक्स पढ़ने के नए ज़रिये के लिए राज़ी हो गया था.
दीपक 'मशाल'
 

शनिवार, 8 मई 2010

माँ------------------------>>>दीपक 'मशाल'


माँ दिवस पर 'अनुभूतियाँ' से एक कविता माँ के लिए...

माँ
आज भी तेरी बेबसी
मेरी आँखों में घूमती है
तेरे अपने अरमानों की ख़ुदकुशी
मेरी आँखों में घूमती है..

तूने भेदे सारे चक्रव्यूह
कौन्तेयपुत्र से अधिक
जबकि नहीं जानती थी 
निकलना बाहर
या शायद जानती थी 
पर नहीं निकली हमारी खातिर
अपनी नहीं अपनों की खातिर

ओस सी होती थी 
जो कभी होती तेरी नज़रों में नाराजगी
जो हमें छाया मिलती थी
वो तेरी छत्र के कारण थी

पर तू खुद तपती रही 
गलती रहीं माँ
क्योंकि तेरी अपनी छत्र
तेरे अपने ऊपर नहीं थी

इसलिए 
हाँ इसीलिए 
दुनिया की हर ऊंचाई
तेरे कदम चूमती है
माँ 
आज भी तेरी बेबसी
मेरी आँखों में घूमती है...
दीपक 'मशाल'
चित्र गूगल से साभार

शुक्रवार, 7 मई 2010

आयरनमैन(लघुकथा)------------------>>>दीपक 'मशाल',

'तड़ाक... तड़ाक... तड़ाक...' तीन-चार तमाचों की तेज़ आवाज़ और गालियों के साथ किसी के गर्जन को सुन बरात के बीच से नन्हे  मुग्ध  का  ध्यान  अचानक  डांस से हटकर उस ओर चला गया. अपने दोनों गालों और कानों को अपने नन्हे हाथों और बाजुओं से ढंके उसका ही हमउम्र सा  (करीब ९-१०साल का) एक मैला-कुचैला  बच्चा सिहरा हुआ खड़ा था और हिचकियाँ ले रहा था. उस बच्चे के साथ ही खड़ा एक शक्तिशाली आदमी जो शायद लाइटहाउस का और उस बच्चे का मालिक लग रहा था, उसे लाल आँखों से घूरते हुए, अंट-शंट गालियाँ बके जा रहा था.
''हरामजादे.. अब इसका पैसा क्या तेरा बाप भरेगा आके? जब टांगों में जान नहीं तो क्यों आ जाते हो मरने? गमला उठाएंगे ये स्साले..''
बीच-बीच में कभी पतली फंटी को उसकी फटे-चीथड़े हाफ पेंट से कहने भर को ढँकी कमज़ोर टांगों पर फटकारता जाता, तो कभी उसके बाल पकड़ जोर से भभोंच देता. उन्माद में डूबे किसी बाराती ने उस आदमी को रोकने की कोशिश नहींकी.
लोगों की बातों से पता चला उस मजदूर बच्चे के हाथ से लाइट हाउस के गमले का एक ट्यूबलाइट टूट गया था.. वो भी शायद उसकी गलती नहीं थी बल्कि किसी बाराती के पैर में तार उलझ गया और अचानक तार में पैदा हुए खिंचाव से वो बेचारा गमला सम्हाल ना पाया.
उसकी निर्मम तरीके से पिटाई देख मुग्ध के मुँह से भी सिसकारी निकल गई. चलते-चलते, हँसते-गाते बारात लड़की वालों के दरवाजे पर पहुँच गई पर अब उसका अपने प्यारे चाचू की शादी में भी डांस करने का या कुछ खाने-पीने का मन नहीं कर रहा था. वो इसी सोच में उलझा था कि उस ट्यूबलाइट में ऐसा क्या था जो उस बच्चे को उसकी वजह से इतनी मार और गालियाँ खानी पडीं. जबकि उसकी खुद की तो तब भी इतनी डांट नहीं पड़ी थी जब उससे गलती से टी.वी. खराब हो गया था और पापा को फिर नया टेलीविजन ही खरीदना पड़ा था.. कुछ भी तो नहीं कहा गया था उससे सिवाय इतने प्यार से समझाने के कि- ''मुग्ध बेटा, आगे से अगर इसका कोई फंक्शन समझ ना आये तो किसी से पूछ लिया करना'' 
''जरूर कुछ और बात रही होगी.. शायद वो ट्यूब लाइट बहुत ही महंगा हो... लेकिन फिर इतनी मार खा के भी वो रोया क्यों नहीं?? हम्म्म्म समझा जरूर वो बच्चा आयरनमैन होगा''
दीपक 'मशाल'
चित्र साभार गूगल से

बुधवार, 5 मई 2010

''लोग क्या कहेंगे?''(लघुकथा)-------------->>>दीपक 'मशाल'


'अ' एक लड़की थी और 'ब' एक लड़का. बचपन से ही दोनों के बीच एक स्वाभाविक आकर्षण था, जिसे बढ़ती उम्र और मेलजोल ने प्रेम के रूप में निखार दिया. दोनों साथ में पढ़ते, घूमते-फिरते, कॉलेज जाते और कला-संगीत के कार्यक्रमों में रुचियाँ लेते. एक दूसरे की रुचियों में समानताएं होने से प्यार सघन होता गया. उनके अटूट से दिखते प्रेम को देख लोगों के दिलों से निकली ईर्ष्या के उबलते ज़हर की गर्मी उनके आसपास के वातावरण को जितना उष्ण करती उनके प्रेम की शीतलता उन्हें उतना ही करीब ले आती.  
पढ़ाई ख़त्म होते-होते दोनों के परिवारवालों को अपने-अपने बच्चों की शादी की चिंता सताने लगी. ये तो याद नहीं पड़ता कि कौन, किससे,  कैसे और कितना ज्यादा अमीर था लेकिन दोनों के परिवारों के बीच के पद-प्रतिष्ठा, धन और शोहरत के इसी अंतर ने उनके प्रेम के पिटारे में झाँकने की ज़हमत ना उठाई, चारों तरफ सवाल उठे- ''लोग क्या कहेंगे?'' और अ या ब किसी एक के घरवालों ने उनके प्रेम को परिवार की इज्ज़त को डंस सकने वाले ज़हरीले नाग का खिताब दे उस पिटारे को वहीँ दफ़नाने का हुक्म सुना दिया. दोनों के रिश्ते अलग-अलग परिवारों में अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक कर दिए गए. किसी से कहे बगैर मन ही मन दोनों ने अपने-अपने बच्चों के साथ ऐसा ज़ुल्म ना करने की ठान नियति के आगे सर झुका दिया.

सालों बीत गए.. अ और ब दोनों ने अपनी मेहनत और लगन से समाज में अच्छा रुतबा, धन-दौलत और वो सब जिसके लिए लोग खपते हैं, कमा लिया. दोनों अलग-अलग शहर में थे एक दूसरे से अन्जान, अलबत्ता यादों में दोनों अभी भी एक-दूसरों को याद थे. अ का बेटा अपनी पढ़ाई पूरी कर चुका था और अ उसकी शादी के लिए सुयोग्य लड़कियां ढूँढने लगी थी और उधर ब अपनी खूबसूरत और खूबसीरत बेटी के लिए भी यही सब उपक्रम करने लगा था. दोनों ने सोचा क्यों ना एक बार अपने-अपने बच्चों से जान लिया जाए कि कहीं उन्हें तो कोई पसंद नहीं. दोनों का सोचना सही निकला. इधर अ का बेटा एक लड़की से बेइन्तेहाँ मोहब्बत करता था और वो लड़की भी तो उधर दूसरी तरफ ब की बेटी को भी एक लड़के से प्रेम था. कहीं ना कहीं अ और ब की सी कहानी दोनों तरफ पनप रही थी.
अ ने अपने बेटे की प्रेमिका के बारे में कहीं से जानकारी जुटाई तो पता चला वो एक मॉडल थी.. लोगों ने बीच में मिर्च-मसाला लगा इस पेशे की बुराइयां गिनानी शुरू कर दीं- ''मैडम, आप तो जानती ही हैं इस पेशे में क्या-क्या उघाड़ना पड़ता है और क्या-क्या छुपाना पड़ता है.. अपनी इज्ज़त का कुछ तो ख्याल कीजिए. लोग क्या कहेंगे?''
उधर ब की बेटी को जो लड़का पसंद था उसके ना माँ का पता था ना बाप का.. अनाथालय में पला-बढ़ा था. लोगों ने यहाँ भी कहना शुरू किया, ''इंटेलिजेंट है तो उससे क्या? खानदान भी तो देखना पड़ता है कि नहीं? अगर इकलौती बेटी के लिए भी ढंग का खानदानी लड़का ना ढूंढ पाए तो लोग क्या कहेंगे?''

एक बार फिर दो अलग-अलग शहरों में दो प्रेम कहानियों का ''लोग क्या कहेंगे?'' के शोर के बीच क़त्ल कर दिया गया.. अब अ और ब की मर्जी के मुताबिक उनके बेटे-बेटियों की कहीं शादियाँ हो रही थीं. फिर शहनाइयों के बीच २५ साल पुराने 'अपने बच्चों के साथ ये ज़ुल्म ना होने देंगे' जैसे संकल्प दोहराए जा रहे थे.
दीपक 'मशाल'
चित्र साभार गूगल से

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