सोमवार, 26 अप्रैल 2010

एक मंचीय व्यंग्य कविता------------------------------------>>>दीपक 'मशाल'

आज से करीब १२ वर्ष पूर्व एक व्यंग्य कविता लिखी थी लेकिन शायद वो आज भी समसामयिक है, प्रासंगिक है और सालों तक रहेगी. लगा कि आपको भी पसंद आएगी... आती है या नहीं ये तो पढ़ने के बाद ही पता चलेगा. देखिएगा तनिक-
 एक 'तथाकथित' सम्माननीय नेता का
हो गया निधन
'सम्माननीय' थे क्योंकि
सी.बी.आई. ताउम्र नहीं पकड़ सकी
उनके घर से काला धन.

बांधकर यमपाश में
उस महान जन.. ना ना.. 'धननेता' की आत्मा को
यमदूत थे पहुंचे जब यम दरबार में..
मच गई अफरा-तफरी उस अमर संसार में
उड़ गए चित्रगुप्त के होशोहवास
नेता का कर्म लेखा-जोखा जो ना था उनके पास

चित्रगुप्त ने दस्तावेज़ जुटाने को
कुछ दिन की मोहलत माँगी,
यमराज पड़े असमंजस में
और नेता को मिली मुराद बिनमांगी

मरते क्या ना करते देव ने था समय दे दिया
बस्स्स्स!!! चंद दिनों में तिकड़मी उस नेता ने
यम चहेतों को स्वपक्ष में ले लिया
ऐसा कुछ बातों का फेंका उनपर जाल
के धर्मपुरुषों को भी दिखने लगा माल

उधर नेता की मौत के बाद
कई घोटालों में उसका हाथ, पैर, सिर
सब लिप्त-संलिप्त पाया गया
इन कारनामों की
अखबारी कटिंग को सबूत बना
चित्रगुप्त की फ़ाइल में लगाया गया.

अगली पेशी पर जब चित्रगुप्त
यमकोर्ट में आया
मुलजिम के कटघरे में खड़ा वो नेता
कुटिल मुस्कान मुस्काया
और यमराज के फैसला लेने से पूर्व
खुद को यमगद्दी का दावेदार बताया
फिर क्रोधित सूर्यपुत्र को
विश्वासमत को ललकार दिया
बिचारे यम ने मन ही मन
विष का था घूँट पिया

अपने दल को नेता से मिला देख
उसको खुश करते यम बोले-
''छोडो ये सब बातें
तुमको स्वर्ग भेजा जाता है,
यहाँ बिन ए.सी. वाले ऑफिस में क्या रखा है
स्वर्ग तो सबको भाता है.''

नेता ने क्षणभर सोचा-
'इस यू.पी. जैसी गद्दी को पाया तो क्या पाया? 
स्वर्ग पहुंचूं ज़रा तो कर दूंगा
सुख-शांति का सफाया'
यम ने दिया फैसला
सोचा छूटी मेरी जान
भले इन्द्रासन में मचता रहे घमासान

स्वर्ग का देखा जो वैभव
औ सुभाष, गाँधी, पटेल का सम्मान
नेता को लगा ये खुद का अपमान

नाटकीय ढंग से किया सबको प्रणाम
फिर बोला वो लोकतंत्र का रावन-
''ये कैसे हैं नेता जो ना दिलवा सकते राशन,
माना लड़ते रहे ये देश की खातिर
मगर लड़ना कौन सा मुश्किल है
अरे हमसे पूछो कैसे सजाई
रंगीनियों की महफ़िल है..
ये तो दिला के खिसक लिए,
हमने बरक़रार रखी आज़ादी
बरकरार रखी शांति, 
चंदा दुनिया से माँगा
फैला के गरीबी की भ्रान्ति,
जो वादा भी ना देता
वो है कैसा नेता?
सुन लो जनता मेरी
इक मैं ही सच्चा नेता हूँ.
निज कर्तव्यों का
ना जिसने तुम्हें कराया भान
ऐसे नकली नेताओं पर
जाके फेंको पाषान.''

जब गृहयुद्ध की आई नौबत
तो इन्द्र बहुत घबराए
भागे-भागे, दौड़े-दौड़े
वैकुण्ठ शरण में आये

सुन समस्या इन्द्र की
विष्णु ने नेता को फटकारा-
''धरती से जी ना भरा तेरा
जो यहाँ भी राजनीति का जाल बिछाया..
हमने समझा तुझे भोला मानुष
तू निकला पूरा सांप
जा फिर से बन जा नेता
ऐसा देता तुझको श्राप''

नेता लगा उछलने
और जोरों से चिल्लाया-
''अरे आउटडेटिड प्रभु!
पृथ्वी का शब्दकोष कबसे नहीं उठाया?
नए संस्करण में
नेता बनना श्राप नहीं
वरदान है छप के आया
वरदान है छप के आया...'' 
दीपक 'मशाल'

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

पचास रुपये जोड़ा------------------------------->>>>दीपक 'मशाल'


अभी एक दिन अपनी बीती ज़िंदगी के बारे में सोचते हुए अचानक फ्लैश बैक में जाती स्मृति की रील को दिल्ली की एक भीड़ भरी गली में अटका पाया... याद आ गए कोटला मुबारकपुर की एक तंग गली में गुज़ारे अपने दिन और मेरे फ़्लैट के सामने वाले सीलन भरे अँधेरे कमरों में काम करते छोटे-छोटे, दुबले-पतले और कमज़ोर से बच्चे. वो बच्चे जो हर वक़्त सिर्फ एक ही काम में जुटे रहते और वो काम होता लहंगा या और किसी कीमती वस्त्र में कढ़ाई करने का या कि कहें उसे कढ़ाई कर कीमती बना देने का.

बिहार, असम और दूसरे कई गरीब प्रदेशों के वो बच्चे अपने पिता या बड़े भाई के साथ हर वक़्त अपने ही काम में मशगूल रहते थे. बस फर्श पर बैठे हुए अपने हाथों में कपड़ा, सुई-धागा, कुछ नग, कुछ मोती और वो कपड़ा लिए वो बिना दुनिया-जहान की परवाह किये अपने काम में लगे रहते..  जब रात में १२-१ बजे मैं सोने जा रहा होता तब भी और जब सुबह ७ बजे के आस-पास सो कर उठता तब भी.. भगवान् जाने वो सोते भी थे या नहीं. एक दिन बातों ही बातों में उनसे पूछ लिया कि ''कितना पैसा देता है तुम्हारा मालिक?''.. तो जवाब में वो बेचारे रुआंसे हो गए. पता चला सिर्फ ५०-६० रुपये एक रात के काम के मिलते थे.

जानकर तकलीफ तो बहुत हुई पर उस समय मैं भी कुछ ज्यादा सक्षम नहीं था.

वापस वर्तमान में आया तो उनको संबोधित करते एक कविता ही बना पाया.. कोशिश करूंगा कि इस बार जब जाऊं तो उनके लिए ज़मीनी तौर पर कुछ कर सकूं. शीर्षक है 'पचास रुपये जोड़ी'






छायाचित्र- गूगल से साभार

रविवार, 18 अप्रैल 2010

बंदरों से चिथने का मेरा पहला अहसास------->>>दीपक 'मशाल'

दोस्तों,
बंदरों से चिथने के मेरे पहले अहसास को पढ़ने के लिए पहला अहसास पर जाएँ.. जायेंगे ना एक नए अनुभव को जानने?  http://pahlaehsas.blogspot.com/2010/04/blog-post_18.html
आपका-
दीपक 'मशाल'

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

शुक्रिया डॉ.दराल सर.. लन्दन चित्र श्रृंखला भाग-२------>>>दीपक 'मशाल'

वैसे तो आप सभी मेरे प्रिय और सम्मानीय ब्लॉग मित्रों ने कल दर्शाई गई तस्वीरों को देख उत्साहवर्धन किया लेकिन डॉ. दराल सर जो खुद भी ब्लॉगवुड में एक कुशल फोटोग्राफर के रूप में जाने जाते हैं उनका आशीर्वाद मिला अपना सौभाग्य समझता हूँ. लन्दन के निकाले तो मैंने करीब १००० चित्र हैं लेकिन सभी ना तो मैं दिखा पाऊंगा और ना ही आपको बोर करना चाहूँगा इसलिए बस कुछ चित्र जो आपको पसंद आ सकते हैं आज दिखा देता हूँ और कुछ कल दिखा कर यह श्रृंखला ख़त्म कर देता हूँ बाकी यदि आप में से किसी को विज्ञान संग्रहालय देखने में रूचि हो तो बता दे मैं उन्हें अलग से चित्र भेज सकता हूँ. उम्मीद कम विश्वास ज्यादा है कि आप धैर्य के साथ चित्र देखेंगे :)

छायाकार- दीपक 'मशाल'

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

हाल ही में लन्दन टूर पर निकाली गयीं कुछ तस्वीरें:भाग-१ --------->>>दीपक 'मशाल'

हाल ही में लन्दन टूर पर निकाली गयीं कुछ तस्वीरें--
१- टेम्स नदी पर क्रूज़ से लिया गया शहर का एक दृश्य
२- लन्दन आई

३- लन्दन आई

४- वेस्टमिन्स्टर के पास घंटाघर ;-)

५- त्रेफ्ल्गर स्क्वायर


६- डायना मेमोरियल पार्क
७- उसी पार्क से हंस और एक चिडिया
८- कोहिनूर(ताज में जड़ा हुआ)


९- लन्दन ब्रिज

१०- सेंट पॉल कैथेड्रल
दीपक 'मशाल'

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