सोमवार, 28 मार्च 2011

हम कब तक ऐसा करते रहेंगे??--------->>>दीपक मशाल


हाल ही में होली के पूर्व भारत के कई हिस्सों में खाद्य निरीक्षकों द्वारा डाले गए छापों के दौरान जिस तरह से काफी बड़ी तादाद में नकली या मिलावटी खोवे, घी, क्रीम, दूध, मिठाई और किराना सामग्री इत्यादि के बरामद होने के मामले प्रकाश में आये, उससे मन में यह विश्वास बैठ गया है कि भ्रष्टाचार, मिलावट, मुनाफाखोरी अब सतही बुराइयां नहीं रहीं. बल्कि यह जन-जन में संस्कार के रूप में अपनी पैठ जमा चुकी हैं. अब शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति भारत में शेष हो जो इन क्रियाकलापों से अछूता रहा हो, चाहे वह इस अपराध के अपराधी के रूप में रहा हो या फिर भुक्तभोगी के रूप में. यूँ तो यह सब सिर्फ आज की बात नहीं है ये लालच की 'संतान' बुराइयां सालों पहले हमारे यहाँ पैदा हो चुकी थीं और कितने ही बार ऐसी ख़बरें हमारी आँखों के सामने से गुजरीं. लेकिन जिस तरह से इस होली और बीती दीवाली पर मिलावट की घटनाएं देखने को मिलीं उससे लगता है कि देश को तबाह करने के लिए एक अप्राकृतिक और अदृश्य सुनामी भारत और विशेष रूप से उत्तर और मध्य  भारत में भी आया हुआ है. 

समझ नहीं आता कि कैसे चंद पैसे कमाने के लालच में हमारे बीच ही उठने-बैठने वाले लोग हमारी ही जान खतरे में डालने को तैयार हो जाते हैं. कैसे ये लोग भूल जाते हैं कि अगर वो बबूल बो रहे हैं तो उन्हें भी आम नहीं हाथ आने वाले. कल को हर व्यक्ति मिलावट से ही मुनाफे के चक्कर में उलझकर एक दूसरे के स्वास्थ्य को नुक्सान पहुँचाता मिलेगा. एक व्यक्ति जो जल्दी अमीर बनने के लिए खोवा नकली बनाकर बेचेगा वो फिर उन्ही पैसों से खुद के लिए भी नकली दालें, सब्जियां, मसाले, तेल इत्यादि खरीदेगा. हम सभी तो एक दूसरे को कहने में लगे हैं की 'तू डाल-डाल, मैं पात-पात'. 
जिसके जो हाथ में आ रहा है वो उसी को मिलावटी बना देता है. पेट्रोल पम्प हाथ आ गया तो पेट्रोल, डीजल में किरासिन मिला दिया, किराने की दुकान है तो दाल-चावल, मसाले, घी में अशुद्धिकरण, दूधवाले हैं तो यूरिया मिलाकर दूध ही नकली बना दिया वरना कुछ नहीं अगर थोड़े ईमानदार हैं तो पानी मिला कर ही काम चला लिया. बाजारों में उपलब्ध सब्जियों, फलों को कृत्रिम तरीके से आकर्षक एवं बड़े आकार का बनाया जा रहा है. फलों को कैल्शियम कार्बाइड का छिड़काव कर पकाने की बातें तो हम सालों से सुनते आ रहे हैं, ये कार्बाइड मष्तिष्क से सम्बंधित कई छोटी-बड़ी बीमारियों का स्रोत है. सब्जियों को बड़ा आकार देने के लिए उनके पौधों की जड़ों में ऑक्सीटोसिन के इंजेक्शन लगाये जा रहे हैं, ये वही ऑक्सीटोसिन है जो कि प्राकृतिक रूप से मादा के शरीर में बनता है और प्रसव के दौरान शिशु को बाहर लाने में एवं उसके बाद दुग्ध उत्पन्न करने में सहायक होता है. गाय-भैंसों को यही इंजेक्शन देकर ज्यादा दूध निकाला जा रहा है, जबकि इस हारमोन के इस तरह मानव शरीर में पहुँचने से होने वाले गंभीर दुष्प्रभावों पर रिसर्च चल रही है. मटर को हरा रंग देने के लिए कॉपर सल्फेट का प्रयोग होता है जो हमारे शरीर के लिए काफी नुकसानदेह है. एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में बाज़ार में उपलब्ध खाद्य पदार्थों में ९०% खाद्य पदार्थ मिलावटी होते हैं. यानी हम हर रोज़ कितना धीमा ज़हर ले रहे हैं हमें पता भी नहीं है. अब हम इन्हें खाते हैं तो अपनी मौत को दावत देते हैं और नहीं खाते तो जिंदा कैसे रहें?

वैसे ये सब खेल सिर्फ भारत में ही नहीं अन्य कई विकसित देशों में भी चल रहा है, लेकिन वहां के शुद्धता मानक अलग हैं और वहाँ की सक्रिय मीडिया समय-समय पर सरकार और लोगों को इस सब के खिलाफ चेताती रहती है इसलिए स्थिति काफी हद तक नियंत्रण में रहती है.
ये मिलावटी पदार्थ भले ही तुरंत दुष्प्रभाव ना दिखाएँ लेकिन इनके दूरगामी परिणाम तब समझ आते हैं जब किसी व्यक्ति को या उसके परिवारीजन को किसी न किसी जानलेवा बीमारी के रूप में इसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं. उस समय हम सिर्फ यही कहते रह जाते हैं कि ''हे ईश्वर! हमने किसी का क्या बिगाड़ा था जो यह दिन देखने को मिला..'' 
उस समय वह यह भूल जाता है कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कहीं ना कहीं उसने स्वयं यह ज़हर अपने आस-पास फैलाया है. मोटे तौर पर कहें तो वो दस रुपये कमाने के लिए अपने ही लोगों का हज़ार रुपये का नुक्सान कर रहा है.

पिछले साल ऐसे अप्राकृतिक तरीके से आकर्षक और बड़े आकार की बनाई गई सब्जियां-फल बाज़ार में लाने वालों के खिलाफ कानपुर में एक समूह ने आवाज़ उठाई जरूर थी, लेकिन उसके बाद क्या हुआ पता नहीं चला. सरकारी अमला ऊपर से आदेश आने से पहले इस तरफ ध्यान देता नहीं और ऊपर से आदेश आने से रहा. क्योंकि देश को चलाने वाले ही इन माफियाओं के साथ लंच-डिनर करते देखे जाते हैं.
आखिर कब तक सिर्फ उस खनक के लिए हम अपने ही लोगों के प्राणों से खिलवाड़ करते रहेंगे जो कि तब भी यहीं थी जब हम धरती पर ना आये थे और तब भी रहेगी जब हम ना होंगे. हम सभी विश्व को खूबसूरत बनाने और जीवनशैली  को बेहतर बनाने की दिशा में एक इकाई कार्यकर्ता की तरह कार्य करें तो समाज, देश, दुनिया बदलने में ज्यादा देर नहीं लगेगी. इस सोच को दिल से निकालना होगा कि 'एक अकेले हम नहीं करेंगे तो क्या फर्क पड़ जाएगा?'.. हम सभी इसी सोच के तहत दूध की बजाय सुरम्य तालाब को पानी से भर रहे हैं, सभी यही सोच रहे हैं कि सारा गाँव तो दूध डाल रहा है एक मैं पानी डाल दूंगा तो किसे पता चलेगा. इस तरह सभी एक दूसरे को धोखा देते रहे तो हम और न जाने कितने सालों तक सिर्फ विकासशील ही बने रहेंगे.

दूसरी तरफ खाद्य और आपूर्ति विभाग को भी कड़े क़ानून बनाने, उनको पालन कराने और लोगों में जागरूकता फैलाने की सख्त आवश्यकता है. वर्ना पहले से ही हमारे यहाँ प्रति दस हज़ार व्यक्ति पर एक डॉक्टर है....
दीपक मशाल 

सोमवार, 21 मार्च 2011

ये जो भी है आपके दिल को छुएगी जरूर

यहाँ लिखी हर एक पंक्ति को आँख बंद कर एक बार दोहराएंगे तो यकीन मानिए आपको ये सब अपना सा लगेगा.. बिलकुल आपका लिखा हुआ.. आपके दिल से निकला हुआ. ये मेरा दावा है.. साथ ही कमियों की तरफ ध्यान दिलाएंगे तो मुझे भी खुशी होगी..

अलग-अलग वो बरसा छाया जो साथ था 
अरे काफिला-ए-बादल आया तो साथ था 

यहाँ की छाँव ने कितना अकेला कर दिया मुझे  
वहाँ धूप थी तो क्या मेरा साया तो साथ था 

बड़ी घुटन होती है मुझे इस खुशबू-ए-शहर में 
कहाँ है गंध माटी की मैं लाया जो साथ था 

क्यों मुझको नहीं सुहाते तेरे तन्हा सुरीले गाने 
मिरा गाना बेसुरा था पर गाया तो साथ था 

कहीं दिखता नहीं यहाँ ज़मीर मेरा खो गया है 
शहर के द्वार तक वो मेरे आया तो साथ था 

एक नेता बन गया है दूजा बन गया है आदमी 
माँ ने दोनों बच्चों को जाया तो साथ था 

तू मर गया कभी का 'मशाल' अभी ज़िन्दा है 
यूँ तो दोनों ने ही ज़हर खाया तो साथ था 
दीपक मशाल 

शनिवार, 19 मार्च 2011

फगुनाहट में हुलियाती लाल और मशाल की जुगलबंदी



आप सभी को सपरिवार होरी की हार्दिक शुभकामनाएं... फागुन की फगुनाहट से रोमांचित, ये हुलियाती और मस्ती करती लाल और मशाल की जुगलबंदी आपके सामने हाज़िर है. उम्मीद है पसंद आयेगी.


दो पलों की लेके खुशियाँ वो फिर से आ गई है 
हाँ पकी फसल की बाली लो फिर से आ गई है 

के रंग में मिले रसायन घुलते हैं उड़ रहे हैं
लो नकली खोवे की गुझिया मिरे घर से आ गई है 

मिलावट का खेल यारों इन तक तो चल भी जाता 
ये कड़वी महक मगर अब हर दिल में आ गई है 

दोस्ती औ प्यार अब बच्चे भी सीखें कैसे  
के पिचकारी रूप धर के पिस्टल सा आ गई है 

है प्रेम को जलाती हुई और सत्य को दुत्कारती 
अबकी प्रहलाद जल गया औ साबुत वो आ गई है 

नफरतों ने जिसको गूंगा सा कर दिया है 
तारीख बनके होली वो फिर से आ गई है

महंगाई ने मारा है कुछ लालच से मर गई है
अधजली लाश बनके हर घर में आ गई है 

जो बन गई है केवल दो दिन की प्यारी छुट्टी
वो फागुन की पूर्णमासी आँगन में आ गई है 

हुई मुद्दत 'मशाल' कि नहाया नहीं था वो, 
ये मुई कमबख्त होली लो फिर से आ गई है..

रंगे हैं भ्रष्ट्राचार के रंग में यहाँ नेता सभी 
रंगों को रंगने की भी अब झोली आ गई है

मिला हाथ कानून से यूँ नाचता अपराध रहा
नगाड़ों की आवाज में भी ताली आ गई है

राम और रहीम जो सदियों से मिलते आ रहे 
इनके मिलन में भी अब दलाली आ गई है

कितना विनाश हुआ संस्कृति का देख लो
शिष्टाचार की भाषा में अब गाली आ गई है

सुनते हैं गले मिलेंगे कल फिर सब ’समीर’ से
मौका भी है, दस्तूर भी है, होली आ गई है.

ओंटारियो से कोई, कोई निकला बेलफास्ट से  
हिन्दी ब्लोगिंग के मस्तानों की टोली आ गई है   

'मशाल' की ये लौ हुई तेज़ इतनी 'समीर' से
लग रहा ज्यों जमीं पे सूरज की डोली आ गई है

श्री समीर लाल एवं दीपक मशाल

 

शनिवार, 12 मार्च 2011

झील के पानी में भी वो इक रवानी ढूंढती है!!---------->>>दीपक मशाल


संयम की मूरत में उग्रता की निशानी ढूंढती है,
आस की देवी बूढ़ी रगों में जवानी ढूंढती है!
हय ढूंढती है भावनाएं कब्र के कंकाल में वो, 
झील के पानी में भी वो इक रवानी ढूंढती है!! 

कैसे तू भूली ऐ देवी काल ना सतजुग रहा अब,
जलजलों में जी रहा इंसां जो सचमुच रहा अब, 
सत्य की जय कह रहे हैं पर झूठ से भी मेल है, 
कहता कुछ है आदमी और कर कुछ रहा अब,

पूष में तो ढूंढती है तमतमाते सूर्य को और,
जेठ के महीने में वो पुरबाई सुहानी ढूंढती है!  

उसने समझा सच दिख रहा सुबह के अखबार में,  
देश प्रगति कर रहा संसार में संचार में व्यापार में, 
पर नई जमात आई है जिसने कलम बेच खाई है, 
जो करती चुपके से दलाली जनतंत्र के दरबार में, 

इसको क्या मालूम अस्ल ख़बरों की खबर क्या, 
हकीकत के दर्द में जो सनसनी कहानी ढूंढती है! 

डूबती है नब्ज़, साँस आख़िरी बस चल रही है,
रोज़ संसद में चिता गणतंत्र की जल रही है,
दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रहीं हैं कोठियां,
नींव भरने वाले की झोपड़ी पर खल रही है,  

नई दुनिया में अलग है महक आज रिश्तों की, 
तू किसलिए इनमे वही खुशबू पुरानी ढूंढती है!! 
दीपक मशाल 

तस्वीर- अमृता शेरगिल का एक सेल्फ पोर्ट्रेट 
 

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

इश्क़ में कभी तुम बंजारे नहीं लगे--------->>>दीपक मशाल



कल रात चक्खे थे आँसू वो खारे नहीं लगे !
तुम्हारे जाने के बाद हम हमारे नहीं लगे !!

ना जीते रहने की खुशी ना दहशत है मौत से
जिनकी आंच से डरते थे  अंगारे नहीं लगे !!


होली इस बार भी आई तो थी मोहल्ले में
मगर रंग चहरे पर हमारे तुम्हारे  नहीं लगे !!


मुश्किल नहीं था हमारे लिए यूँ  शादी रचाना
पर  मन के आईने में  खुद कुंआरे नहीं लगे !!


मौके  कई आए हाथ मझधार से बचने को
मगर तुम बिन डूबना था  सो किनारे नहीं लगे !!


इसमें भी ढूंढते हुए तुम जीत की मंजिल रहे
'मशाल' इश्क़ में कभी तुम बंजारे नहीं लगे !! 
दीपक मशाल 

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