बुधवार, 13 अप्रैल 2011

कुछ और लघुकथाएं------>>> दीपक मशाल

आपने पिछली पोस्ट की तीन लघुकथाएं पढ़ीं और सराहा उसके लिए आपका शुक्रगुज़ार हूँ.. एक गुजारिश है की जहाँ भी कमियाँ लगें निःसंकोच टोक दें, मैं कोशिश करूंगा की लेखन को आपके सुझावों, मार्गदर्शन के अनुसार बेहतर करून. 
आज तीन लघुकथाएं और पेश कर रहा हूँ, जिनको कि अपने हिन्दी ब्लोगर साथियों को समर्पित करता हूँ(आपमें से कुछ जो इन्हें साहित्यिक पत्रिका पाखी में पहले ही पढ़ चुके हैं उन्हें पुनः पढ़वाने के लिए क्षमा मांगता हूँ..)..

गाहक
जाड़े से कांपते लल्लू ने स्टोव पर दूध चढ़ा दिया और पिछली रात के गाहकों के गिलास-प्लेट मांजने में लग गया. गिलास पोंछ कर ठेले पर सजा ही रहा था कि सामने से आवाज़ आई 'लल्लू, एक चाय तो पिला कड़क सी.'
लल्लू ने भारी भरकम काले जूते और खाकी पेंट पहने उस गाहक को टके सा जवाब दे दिया, 'ज़रा ठहरो सा'ब सबेरे से बोहनी ना ख़राब करो'

न्याय
सब खुश थे, सबको न्याय मिलने लगा था. कुछ न्यायाधीश बिके हुए निकले तो क्या लोगों को अब भी भरोसा था कि जैसे इतनों को न्याय मिला वैसे जल्द ही उन्हें भी मिलेगा. कलावती को भी लगने लगा था कि दबंगों ने उसकी जो ज़मीन हथियाई थी वो वापस मिलेगी, उसकी आस और पक्की हो गई थी कि उसके मरद के हत्यारों को फांसी चढ़ाया जाएगा. 
वकील साब ने इस बार की पैरवी की फीस लेते हुए बताया था कि किसी जेसिका और नीतिश कटारा के हत्यारों को सज़ा मिल चुकी है जल्द ही उसे भी इन्साफ मिलेगा.
सुनकर कलावती को मजदूर पति की आखिरी निशानी बेंच देने का गम कुछ कम हुआ. फिर से हौसला हुआ.
उसे क्या पता था कि जिसे इन्साफ मिला उनमें एक हाई-प्रोफाइल मॉडल थी और दूसरा आई.ए.एस. का बेटा.

मूली और मामूली 
गली में छुट्टा घूमने वाला वो नगर पालिका का सांड कुछ दिनों से अचानक ही अजीब स्वभाव का हो चला था. बेवजह किसी के भी पीछे नथुने फुलाकर दौड़ पड़ता. अभी पिछले हफ्ते तो उसने मोहल्लेवालों का बड़ा मनोरंजन किया जब एक मामूली हाथ ठेलावाले के ठेले पर लदी हरी सब्जी के दो-तीन गट्ठे खा गया और रोकने पर अपने खतरनाक सींगों के दम पर उस गरीब को दूर तक खदेड़ दिया.
मगर आज नगरपालिका वाले उसे पकड़ कर ले ही गए. हद ही हो गई उसने सब्जी खरीद कर लौट रहे सभासद के चाचा की डोलची से मूली जो खा ली थी.
दीपक मशाल 
(सभी चित्र साभार गूगल इमेज से लिए गए)

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

तीन लघुकथाएं---------->>>दीपक मशाल

आप सबके सुझावों से सीख लेते हुए कुछ और लघुकथाएं लिखने की कोशिश की है. लेकिन उन्हें यहाँ नहीं बल्कि सृजनगाथा पर पढ़ा जा सकता है. विश्वास है कि वहां ये तीन लघुकथाएं पढ़कर पुनः अपने स्नेह से सिंचित करेंगे.

'सृजनगाथा' या 'तीन लघुकथाएं' शब्दों पर क्लिक करके वहां पहुंचा जा सकता है अन्यथा नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें---


शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

अन्ना लड़ाई लम्बी है और हम तुम्हारे साथ रहने लायक नहीं.-------->>>दीपक मशाल

आज देश भर में अन्ना की, दूसरी आज़ादी पाने की लहर चल रही है. हम सब जोश में हैं और होना भी चाहिए, मगर फिर भी कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें दिमाग में आने से खुद को नहीं रोक पा रहा. इस लड़ाई के साथ-साथ हमें खुद से भी कुछ सवाल पूछने की आवश्यकता जान पड़ती है, कुछ विचारणीय बिंदु हैं जैसे कि-
हम में से कितने हैं जिन्होंने कभी अपनी सुविधाओं के लिए इस शासन को भ्रष्ट बनाने में सहयोग नहीं दिया? क्या हमने कभी बेटिकट यात्रा नहीं की या टी.सी. को कुछ पैसे थमाकर अपने लिए सीट की व्यवस्था नहीं की? क्या समय बचाने हेतु किसी प्रसिद्द मंदिर में लगी लम्बी लाइन को धता बताने के लिए सिक्कों की खनक का उपयोग नहीं किया? या फिर कभी कोई कर बचाने की कोशिश नहीं की?
मैंने खुद अँगुलियों पर गिनी जा सकने वाली अपनी रेलयात्राओं में से कुछेक बार नींद पूरी करने के लिए सहर्ष सुविधा शुल्क दिया है.
जब तक हम अपने पिछले किये गए इन कार्यों को स्वीकार कर उनके लिए प्रायश्चित करके आगे कभी इस तरह के आचरण को दोहराने की शपथ नहीं लेते, तब तक न तो हम भ्रष्टाचारहीन समाज, देश मांगने के हक़दार हैं और न ऐसे देश में जीने के.
देखने वाली बात ये है की इस आन्दोलन में सबसे ज्यादा शोर करने वालों में वो भी शामिल हैं जो कई सालों से लोगों का शोषण करते आ रहे हैं और भ्रष्ट तंत्र का हिस्सा हैं. कुछ लोगों ने कहा की 'संभवतः उन्हें अब अपनी करनी पर अफ़सोस हो', मगर यह अफ़सोस कम और अपने आपको आने वाले नए तंत्र में सुरक्षित करने का उपाय कहीं अधिक दीखता है. ऐसे लोगों में चपरासी, बिचौलियों और क्लर्कों से लेकर छोटे-बड़े ठेकेदार, वकील, जज एवं पत्रकार तक शामिल हैं. 
देखकर बड़ा अचम्भा सा होता है की चंद दिनों में ही देश के जमाखोर, मिलावटखोर, मुनाफाखोर और कालाबाजारी के महारथी भी भ्रष्टाचारविहीन समाज की वकालत कैसे करने लगे. जिसके हाथ में एक छोटा सा भी अधिकार है वह भ्रष्ट हो चुका है, राशन, वजीफा बांटने वाले से लेकर विकास बांटने वाले तक.
क्या इस लेख के लेखक या पाठक ही दूध के धुले हुए हैं? 
मेरा मानना है इन हालात के लिए हम स्वयं भी दोषी हैं इसलिए संघर्ष सिर्फ नेताओं और अफसरों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए बल्कि हर महकमे के छोटे से बड़े अफसर तक यह नियम लागू हों. आज चाहे शिक्षा विभाग हो, पुलिस, रेलवे, बैंक या कोई और हर जगह आराम तलबी के चलते लगभग ना के बराबर कर्मचारी या अधिकारी अपनी जिम्मेवारियों को बखूबी निभाते हैं. अधिकाँश लोग संविधान, नियम-क़ानून की धज्जियां उड़ाते मिलते हैं और यह सब भ्रष्ट आचरण के अंतर्गत ही आता है. सिर्फ अधिकारी कर्मचारी ही क्यों दुकानदार, किसान, डॉक्टर, इंजीनियर हो या निठल्ले लोग सभी तो अपनी मनमानी में लगे हुए हैं. जब तक हम सभी स्वयं को इस देश के भ्रष्टाचारविहीन होने की दिशा में इकाई की तरह नहीं मानते और नियम-क़ानून का अनुपालन नहीं करते तब तक जो सपना हम देख रहे हैं वह अधूरा ही है.
एक डर ये भी है की पूर्व में अपहृत हो चुके आन्दोलनों की तरह इस आन्दोलन को भी कोई हाइजैक न कर ले, कहीं इस आन्दोलन से जुड़े बड़े नेताओं की मेहनत को नज़रंदाज़ कर कोई बड़ा नाम सिर्फ मलाई खाने के लिए आन्दोलन को बड़ा रूप देने का बहाना कर, जिम्मेदारी उठाने का दिखावा कर हमें वापस उसी जगह लाकर न खड़ा कर दे जहाँ से हम चलना शुरू कर रहे हैं. क्योंकि कई दूरदर्शी जो इस आन्दोलन में नए भारत का निर्माण देखने के साथ-२ अच्छा मौका तलाश रहे होंगे नया हिटलर बनने का...
यह आन्दोलन जो शुरू हुआ है तो अब पूर्ण सफाई के बाद ही समाप्त हो. लेकिन साथ ही अगर हम खुद अपने आप को इन बुराइयों से बाहर निकाल सकें तब ही अन्ना के साथ रहने का हक रखते हैं.

हाल कहीं वैसा ही ना हो जैसा कि श्री गणेश रायबोले जी की एक कविता कहती है.

सत्ता राक्षस
हिटलर को मारता हिटलर
लोग खुश हो जाते हैं
चलो मरा हिटलर
हिटलर हँसता है
अभी का नहीं
हजारों बरस का यह सिलसिला है.

एक और बात.. कहीं न कहीं लगता है की अभी भी ये एक बिखरा हुआ आन्दोलन ही है. हालांकि सब साथ दे रहे हैं मगर फिर भी अभी भी एक समुचित रणनीति की आवश्यकता है. बड़ी आज़ादी पाने के लिए बड़े संगठन की आवश्यकता है. हमें आगे बढ़ने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करना होगा. आप क्या कहते हैं? मैं तो बस इतना कहता हूँ कि-


चल पड़ी है बात
तो बस शाम तक ही ना चले
अब हमारी जंग 
अधूरे काम तक ही ना चले
विकास की पुरवाई गर 

इस बार जो आये यहाँ 
ध्यान रखना वो महज़ 
कुछ ग्राम तक ही ना चले

हर एक मस्जिद में चले 
चल पड़े इक-इक गुरुद्वारे में
ये बात 
सिर्फ चारों धाम तक ही ना चले

मैं इतनी दूर बैठा हूँ
हूँ मगर फिर भी वहीं 
पीने वालों बात सच्ची
बस जाम तक ही ना चले

हर आम का है हक अगर
हर आम को मिल जाए वो
रेवड़ी बनकर ये केवल
कुछ आम तक ही ना चले 

हर उम्र लांघे अगर
दहलीज देश के लिए
तो नया क़ानून
कुछ के काम तक ही ना चले

निशान भी छोड़े जो ये 
तब तो कोई बात हो
जो चल रहा है वो अकेले 

नाम तक ही ना चले.
दीपक मशाल 

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

अन्ना का समर्थन... गणेश रायबोले की कवितायें---->>>दीपक मशाल

श्री अन्ना हजारे 


मेरे पसंदीदा कवियों में से एक श्री गणेश रायबोले की कुछ कवितायें जो आजकल के हालात पर एकदम फिट हैं,  आदरणीय श्री अन्ना हजारे जी के समर्थन में, जन लोकपाल बिल के समर्थन में इन कविताओं के साथ एक हाथ मेरा भी.... 
आइये सन १९४७ में गोरे अंग्रेजों द्वारा काले अंग्रेजों को हुए सत्ता हस्तांतरण के बाद पुनः पुनः इन काले हिटलरों को होते आ रहे हस्तांतरण को विराम देने के लिए उठ खड़े हों. आइये भारत आज़ाद कराएं...

सत्ता राक्षस
हिटलर को मारता हिटलर
लोग खुश हो जाते हैं
चलो मरा हिटलर
हिटलर हँसता है
अभी का नहीं
हजारों बरस का यह सिलसिला है.
श्री गणेश रायबोले 


देश का मतलब

जब वह वोट मांगता है
तो उसके लिए
देश का मतलब 'हम लोग' हैं
हम लोग जो फैले हुए हैं
कश्मीर से कन्याकुमारी तक
गुजरात से अरुणांचल तक,
जबकि जीत जाता है
तो उसके लिए देश का अर्थ सिकुड़ जाता है
अम्बानी हो जाता है.

बदनाम जंगलराज
साजिशन बदनाम किया जाता है 
जंगलराज
जंगल में कोई अपनी जीविका के लिए 
आवश्यक धरती, आवश्यक आसमान से 
ज्यादा नहीं लेता
जंगल जानता है
जीविका के लिए
जितना जरूरी है
उससे ज्यादा लेना
जघन्य अपराध है,
जंगलराज में नहीं होते
कभी न भरने वाले सर्वभक्षी
सत्ताईस सत्ताईस मंजिला पेट
जंगलराज होता है
न्याय का राज
संतुलन का राज.

गणेश रायबोले 
(पत्रिका तीसरी दुनिया से ली गई कवितायें)

साथ में एक मेरी लघुकविता-
एक राजनैतिक सीमा पार करने की सज़ा 
सत्ताईस साल जेल..
एक देश लूटने की सज़ा?? 
एक देश पर हमले की सज़ा?
बेगुनाहों को गोलियों से भूनने की सज़ा?
अभी कुछ सोचा नहीं
तय भी नहीं 
मिलेगी या नहीं..
क्या पता दे ही दें 
सत्ताईस साल बाद..
दीपक मशाल 

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

एक तस्वीर बड़बड़ा रही थी ख्वाब में

मेरे अल्बम से  कुछ पुरानी तस्वीरें
झाँक रहीं थीं सूरज की ओर
उनके धुंधले पड़ते अक्स से
मानो सूरज के थे पुराने रिश्ते

तस्वीरें ढूंढ रहीं थीं 
आशा की किरण मेरे लिए

आग के महाकूप से निकलती लपटें झुलसा देतीं 
खामोश तस्वीरों की उमीदों को
मगर पगली तस्वीरें फिर नयी आस उगा लेतीं
उनके चारों कोने सोख लेते कुछ ऑक्सीजन
वो फिर लग जाती नई कोशिश में

तस्वीरें सपने नहीं देखतीं 
इसलिये कि तस्वीरें कभी नहीं सोतीं

पर आज जाने कैसे आँख लग गई उनकी
रात के तीसरे पहर
एक तस्वीर बड़बड़ा रही थी ख्वाब में
'अब तुम आ गए हो तो...
आशा की किरण का क्या करना'
पता नहीं जाने किसे देखकर
दीपक मशाल
(कविता गर्भनाल में पूर्व प्रकाशित)

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