शनिवार, 1 सितंबर 2012

लघुकथाएं



१- अपराध का ग्राफ
''मारो स्सारे खों.. हाँथ-गोड़े तोड़ देओ.. अगाऊं सें ऐसी हिम्मत ना परे जाकी. एकई दिना में भूखो मरो जा रओ थो कमीन.. हमायेई खलिहान सें दाल चुरान चलो... जौन थार में खात हेगो उअई में छेद कर रओ.. जासें कई हती के दो रोज बाद मजूरी दे देहें लेकिन रत्तीभर सबर नईयां...'' कहते हुए मुखिया ने दो किलो दाल चुराते पकड़े गए अपने खेतिहर मजदूर पर लात-घूंसे चलाने शुरू कर दिए.
''हाय मर जेँ मालिक, खाली पेट हें, पेट में लातें ना मारो.. हाय दद्दा मर जेहें'' वो गरीब रोये जा रहा था.
''औकात तो देखो जाकी अब्नों खें जुबान लड़ा रओ... मट्टी को तेल डारो ससुरे पे फूंक तो देओ जाए'' नशे में धुत मुखिया का बेटा गुर्राया..

रात बीती तो मुखिया और उसके बेटे का नशा उतर चुका था, दरवाज़े पर पुलिस थी. मजदूर ७० प्रतिशत जली हुई हालत में सरकारी हस्पताल में जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहा था.
पुलिस ने दोनों पक्षों को समझाया. मजदूर के सारे इलाज़ कराने की जिम्मेवारी लेने की बात पर दोनों पक्षों में तपशिया करा दिया गया.
बेचारी पुलिस भी क्या करती, राज्य सरकार का दबाव था कि राज्य में अपराध का ग्राफ नीचे जाना चाहिए.


2- इंतज़ार 
घंटाघर की घड़ी ने रात के दस घंटे टन्कारना शुरू किया.. टन-टन-टन की आवाज़ से 'उसने' अपने क़दमों की रफ़्तार तेज़ करने की कोशिश की.. भागा भी लेकिन सामने के स्टॉप से उसके मोहल्ले  की ओर जाने वाली आखिरी बस की रफ़्तार ज्यादा निकली. बस उसकी नज़रों के सामने देखते-२ ओझल हो गई. दिन भर की थकान हावी हो रही थी उसपर और घर अभी भी दो किलोमीटर बाकी था जो अब उसे मजबूरन पैदल ही तय करना था. सड़क के बीच में पड़े ईंटे के टुकड़े को जोर से ठोकर लगाकर सन्नाटे को सुनाते हुआ चीखा वो, ''साला कमीना, एक मिनट को नहीं रोक सकता था..''
अगले दिन वो समय से पहले बस में था.. अज़ब सी बेचैनी से घिरा हुआ. बार-२ घड़ी देखता, दस बजे का इंतज़ार था.. अभी तक घंटाघर की घड़ी चीखी नहीं थी. वह गुस्से में भुनभुना रहा था,''साला बेवकूफ.. अब कौन सवारी आयेगी इतनी रात को. पता नहीं कब चलेगा.''
दीपक मशाल

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