५-६ रेनकोट देखने के बाद भी उसे कोई पसंद नहीं आ रहा था. दुकानदार ने साहब को एक आखिरी डिजाइन दिखाने के लिए नौकर से कहा..
'पता नहीं ये आखिरी डिजाइन कैसा होगा? इन छोटे कस्बों में यही तो समस्या है कि जरूरत की कोई चीज आसानी से मिलती नहीं.' वो हीरो टाइप का शहरी लड़का इसी सोच में डूबा था कि बाहर हो रही बारिश से बचने के लिए एक आदमी दुकान के शटर के पास चबूतरे पर आकर खड़ा हो गया. शरीर पर कपड़ों के नाम पर एक सैंडो बनियान और एक मटमैला सा पैंट पहिने था वो और एक जोड़ी हवाई चप्पल. चबूतरे पर आते ही पैंट के पांयचे मोड़ने लगा.
रंग, शक्ल से और शारीरिक गठन से तो मजदूर लगता था.. उसके पसीने की बू दुकान में भी एक कड़वी सी बदबू फैला रही थी. बारिश थमती ना देख शायद उसने तेज़ पानी में ही निकलना चाहा. अचानक अपनी जेब में से कुछ निकालने लगा. हाँ ३-४ पांच-पांच रुपये के मुड़े-तुड़े नोट निकले.
उन नोटों को ले वो दुकान के अन्दर आया और २-२.५ मीटर पतली वाली बरसाती खरीदी. बरसाती को अपने सर पर डालते हुए उसने खुद को ऐसे ढँक लिया जैसे कछुए ने अपने आप को खोल में डाल लिया हो.. और दोनों सिरे दोनों कानों के पास से निकाल हाथों में पकड़ लिए. अब सिर्फ उसका चेहरा और पैर दिख रहे थे बाकी पूरा शरीर बरसाती में ढँक चुका था और वो मस्तमौला सा तेजी से भारी बारिश में ही सड़क पर बहते गंदे पानी को हवाई चप्पलों से उछालता हुआ अपने गंतव्य की ओर बढ़ गया.
उस जाते हुए आदमी को काफी देर से गौर से देख रहे उस हीरोनुमा शहरी शख्स को पहले दिखाए सारे रेनकोट अब एकाएक अच्छे लगने लगे थे.
दीपक 'मशाल'
चित्र साभार गूगल से
सच है ज़रूरत के वक्त जो चीज़ काम आ जाये वही अच्छी है....बढ़िया लघु कथा
जवाब देंहटाएंकाश कि ये मर्म लोग समझ जायें और किसी विशेष की तलाश अपने आप ही खत्म हो जायेगी।
जवाब देंहटाएंहमारे अन्दर पता नहीं कौन सा नशा है जो हमें आवश्यकता के ऊपर ले जाता है ।
जवाब देंहटाएंये हुई न बात, अरे भाई ज्यादा पैसा हो तो ज्यादा नखरे होते हैं, वरना ज़रूरत के लिए तो सबकुछ है ... बहुत सुन्दर कहानी ..
जवाब देंहटाएंइस कथा का मर्म समझने वाली बात है..हम सभी पर कहीं न कहीं कितना सही बैठती है. :)
जवाब देंहटाएंभाई दीपक जी ,
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लघुकथा।बधाई !
*संक्षिप्तिकरण की गुंजाइश तलाशते रहेँ! और निखार आएगा।
कम शब्दों में बहुत अच्छी बात कही ..कहते हैं इंसान अपने हालातों से खुश न हो तो उसे अपने से नीचे को देख लेना चाहिए तो उसे सन्तुष्ठी मिल जाती है.
जवाब देंहटाएंसही बात । जो वक्त पर काम आ जाये वही सही ।
जवाब देंहटाएंsundar sikh deti prastuti.
जवाब देंहटाएंAlbelaKhatri.com ने कहा…
जवाब देंहटाएंयही तो अंतर है सरल और कठिन में................
जो बहुत सरल होता है लोग उसे भी कठिन बना लेते हैं
सुन्दर बात........
बधाई इस रचना के लिए.........
२० मई २०१० ५:४९ PM
संजय कुमार चौरसिया ने कहा…
जवाब देंहटाएंआज बहुत से पड़े-लिखे इन्सान, जीवन मैं आगे बड़नेके लिए इन छोटी छोटी चीजों को देखकर ही आगे बढ रहे हैं!
अगर हमारे ऊपर से यह आधुनिकता और छोटे बड़े का चोला उतर जाए तो सब कुछ ठीक हो जायेगा
एक-एक कर, नयी प्रेरणा देने बाली लघु कथाएं आज आपके द्वारा मिल रही हैं
२० मई २०१० ६:०८ PM
बहुत खूब...इतने कम शब्दों में बड़ी बड़ी बात कह जाते हो....कितनी अच्छी तरह चीज़ों की महत्ता बता दी....बढ़िया सीख देती हुई सुन्दर लघु-कथा
जवाब देंहटाएं२० मई २०१० ६:३१ PM
waah achcha sandesh gaya...cheezein pehle zarurat ke hisaab se honi chahiye na ki dikhave ke hisaab se...waah sirji....bahut hi sundar...
जवाब देंहटाएं२० मई २०१० ७:०४ PM
सरल शब्दों में सुन्दर लघुकथा जो बड़ी बात बता गयी......
जवाब देंहटाएंकुंवर जी,
२० मई २०१० ७:०६ PM
हर लघुकथा पिछली से बेहतर .... कोई आँखों में नमी लाती हुई तो कोई सोचने पर मजबूर करती
जवाब देंहटाएंआभार
वाह. अच्छी कहानी. सन्देश देती हुई.
जवाब देंहटाएं२० मई २०१० ७:०८ PM
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंवक्त और हालात सब कुछ सिखा देता है
२० मई २०१० ७:२६ PM
आपकी पोस्ट देखकर सबसे पहले मुझे ये लगता है कि कोई ना कोई नहीं सिख मिली होगी ब्लॉग कि दुनिया को. इतनी गर्मी में बरसात कि बात सुनकर शुकून मिला , वैसे वो शहरी बाबु कार से नहीं आये थे क्या?? दूसरी बात भाई ये कि मजदुर ने भी रेनकोट (हिंदी में बरसाती) ही खरीदी.
जवाब देंहटाएं२० मई २०१० ८:५२ PM
आपकी लघुकथाओं की शृंखला बहुत ही बढ़िया चल रही है!
जवाब देंहटाएंबचपन मै मै जब नये जुतो के लिये घर मै अनशन करता था, ओर मंहगे से मंहगे जुते मांगता था, तब पिता जी हमेशा कहते थे कि हमे भगवान का शुक्र करना चाहिये, ओर जेसे मिलते है उन्हे पहन लेना चाहिये, बेटा उन लोगो को देखो जिन के पांव ही नही, ओर मै उस समय इस बात को तो नही समझ सकता था लेकिन पिता जी का कहना मान जाता था, आज आप की इस लघु कथा ने फ़िर से वो सब याद दिल दिया.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
कहते हैं सकून और सुख चाहिए तो अपने से निचे वालों को देखो और यह व्यवहारिकता है जो आपकी इस प्रस्तुती में नजर आ रही है / दीपक जी आज हमें सहयोग की अपेक्षा है और हम चाहते हैं की इंसानियत की मुहीम में आप भी अपना योगदान दें / पढ़ें इस पोस्ट को और हर संभव अपनी तरफ से प्रयास करें ------ http://honestyprojectrealdemocracy.blogspot.com/2010/05/blog-post_20.html
जवाब देंहटाएंसिख ------सीख
जवाब देंहटाएंनहीं---नई
ज़रूरत .... को कभी नज़रंदाज़ नहीं करना चाहिए....
जवाब देंहटाएंयही सच्चाई है............अच्छी लघुकथा है........लघुकथा के मानकों पर खरी....
जवाब देंहटाएंशुभाशीष
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
@honesty project democracy सर जी मैं आपकी टिप्पणी से पहले ही वहां पहुँच गया था.. बहुत-बहुत आभार आपका जनचेतना जगाने के लिए.. मैं जहाँ तक कर सकता हूँ, हर संभव प्रयास करूंगा..
जवाब देंहटाएंमैंने अपने ब्लाग पर आपके लिए एक कमेंट छोड़ा है देख लेना भाई.
जवाब देंहटाएंलघुकथा जानदार है। अब एक संग्रह तो निकल ही जाना चाहिए। बधाई।
संग्रह आजकल खरीदता कौन है सर जी?? :) लोगों तक किसी रूप में सन्देश पहुँच रहा है.. यही मैं चाहता था और ये हो रहा है.. फिर भी संग्रह लायक लघुकथा कहने के लिए आभार..
जवाब देंहटाएंएक बार फिर लाजवाब ।
जवाब देंहटाएंआप भी कमाल करते हो भैया!
जवाब देंहटाएंयह रचना आधुनिक अनुकरण प्रवृत्ति और अपसंस्कृति की दशा का वास्तविक चित्रण है।
जवाब देंहटाएंअति उत्तम ।कभी कभी किसी चीज की अहमियत हमें दूसरों के द्वारा ही नज़र आती है ।
जवाब देंहटाएंअपने पास क्या है, उसकी कद्र तभी होती है जब नीचा देखें, अपने से ऊंचों को देखने पर हमेशा खुद पर ग्लानि ही होगी...
जवाब देंहटाएंजय हिंद...
vaah bhai ''deepak''....isi tarah ''mashaal'' banane ki sadhanaa me rat raho.iss vaqt hindi mey laghu kathayen likhane vaale bahut kam hai. iss dish me aage barho.abhi se ye haal hai to aage kyaa hoga? kuchhek lagukathaayen parh li, (dekhi nahee...) maine bhi lagabhag pachaas laghukathaaye likhi hai. gagar me saagar bar jataa hai isame ye nai laghukathaa....dil ko chhho gai. badhai.
जवाब देंहटाएंबढ़िया लगी आपकी यह लघुकथा !! अपनेआप में बहुत सारा ज्ञान समेटे हुए !!
जवाब देंहटाएंअरे दीपक कुछ दिन आयी नही और जब आयी तो यहाँ लघु कथाओं की बरसात देख कर सोच रही हूँ कि कौन सा रेनकोट पहन कर देखूँ इन्हें। बहुत सुन्दर शिक्षाप्रद कथा है बधाई बाकी भी पढूँगी बाद मे आशीर्वाद्
जवाब देंहटाएंयही है शौक और जरुरत का फर्क .... लघु कथा अच्छी लगी ...!!
जवाब देंहटाएंज़रूरत केवल बारिश से बचने का था उसमें भी इतना पसंद नापसंद ठीक नही फिर भी ये बात तब समझ में आई जब उस आदमी के बरसाती को देखा...बढ़िया भावपूर्ण लघुकथा..धन्यवाद दीपक जी
जवाब देंहटाएंप्रेरक लघुकथा.
जवाब देंहटाएं...बधाई.
बहुत ही सुन्दर शैली.. और कन्टेन्ट भी मस्त.. बिटवीन द लाईन्स छोडने वाला.. यही पढना हमे भाता है.. वैसे आज ज्ञान जी ने तुम्हे रिकमेन्ड किया है.. तुम्हारी कहानिया शुरु से पढनी होगी..
जवाब देंहटाएंaapka comment ..."gayab"
जवाब देंहटाएंkuch samjh nahi aaya deepak ji..
?????????
gar aise hi jindagi se sikhte rahe to nischit hi
जवाब देंहटाएंduniya ke sabse khushnaseeb insaan ban sakte hai.. :)
सब कुछ दिया दीपक,लघु कथा के माध्यम से बहुत बड़ी बात कह दी।
जवाब देंहटाएंBaap re baap ! Kya gazab likhte hain aap!
जवाब देंहटाएंक्या कहें दीपक, आज आवश्यकता पर डिजाईन हावी हो गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लघुकथा है.
शायद ब्लोग्वानी में कुछ तकनीकि समस्या के कारण पोस्ट संकलक पर नहीं दिख रही फिर भी आप लोगों का प्यार और ब्लोगवाणी का सहयोग मिला इसके लिए आभारी हूँ..
जवाब देंहटाएंNEED AND WANT.....!!
जवाब देंहटाएंham to kaa kahein ab ..saare jo itni tareef kar rahe hain...ham bas padh padh kar khush ho rahe hain...
bahut hi badhiya...
dhnyvad dipakji
जवाब देंहटाएं... बेहतरीन !!!
जवाब देंहटाएंभाई दीपक जी ,
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लघुकथा।
बहुत खूब......!
yahi to nazariya hai dost,,,dekhen ka nazariya hi to badlna hota hai bas.. :)
जवाब देंहटाएंसही है आधुनिकता के चक्कर में बहुत से पल छुट जाते हैं, कभी कोई छोटी सी घटना इस का एहसास करवा देती है
जवाब देंहटाएंउम्दा प्रेरक प्रस्तुती / दीपक जी आप ऐसे ही विषयों पे लिखते रहिये कभी न कभी तो लोग संवेदना युक्त होंगे / दरअसल इन्सान और जानवर में एक ही फर्क है इन्सान संवेदना युक्त होता है और अपना पराया देखे बिना दूसरों के दुःख को देखकर दुखी होता है ,जबकि जानवर ठीक इसके विपरीत आचरण करता है /
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