हर सुबह समेटती हूँ ऊर्जाओं के बण्डल
और हर शाम होने से पहले
छितरा दिया जाता है उन्हें
कभी परायों के
तो कभी तथाकथित अपनों के हाथों..
कई बार तो.. कई-कई बार तो
भरनी चाही उड़ान
'हम परों से नहीं हौसलों से उड़ते हैं' सुनकर
पर ना तो थे असली पर
और न हौसलों वाले ही काम आये..
सिर्फ एक अप्रकट
एक अदृश्य सूली से खुद को बंधे पाया
हौसले के परों को बिंधे पाया
फिर भी हर बार लहु-लुहान हौसले लिए
बारम्बार उगने लगती हूँ 'कैक्टस' की तरह
उगने से पहले ही..
क्षितिज को चीरकर ऊपर बढ़ने से पहले ही
उम्मीदों का कर दिया जाता है सूर्यास्त
यथार्थ की रणभूमि की ओर कूच करने से पहले ही
मेरी सोच की सेनाओं को
कर दिया जाता है परास्त
उम्मीद से मेरा रिश्ता
केवल इतना ही लगता है
कि मुझ से जुड़े लोग खुश से नज़र आते हैं
जब जानते हैं कि 'मैं उम्मीद से हूँ'
पर ये खुशी भी परिणत हो जाती है दुःख में
कई बार जब उस उम्मीद के नतीजे में
मेरी जैसी कोई प्रतिरूप आ गिरती है मेरी झोली में
हाँ कुछ परछाइयां हैं मेरी
'जो शहर तक पहुँची तो हैं'
पर रात हो या दोपहर
शाम हो या सहर वो भी सहमी सी है
फिर भी हर हालत में भिड़ी रहती हैं हालात से..
लेकिन मेरा असल वजूद आज भी
गाँव की, कस्बों की
तंग गलियों में ही सिमटा है
यूं तो पूजाघर की दीवारों पर टंगी तस्वीरों में
मेरे हाथों में तीर है.. तलवार है.. त्रिशूल है
पर हकीकत में
सिर्फ बेलन है चिमटा है
सच है कि शायद डंके की चोट पर मैं कह न पाऊं
कानाफूसी से सही पर हर कान तक अपनी बात पहुंचाऊँगी
कि मैं नारी हूँ .. पर हारी नहीं हूँ
सिर्फ और सिर्फ दर्द की अधिकारी नहीं हूँ और हर शाम होने से पहले
छितरा दिया जाता है उन्हें
कभी परायों के
तो कभी तथाकथित अपनों के हाथों..
कई बार तो.. कई-कई बार तो
भरनी चाही उड़ान
'हम परों से नहीं हौसलों से उड़ते हैं' सुनकर
पर ना तो थे असली पर
और न हौसलों वाले ही काम आये..
सिर्फ एक अप्रकट
एक अदृश्य सूली से खुद को बंधे पाया
हौसले के परों को बिंधे पाया
फिर भी हर बार लहु-लुहान हौसले लिए
बारम्बार उगने लगती हूँ 'कैक्टस' की तरह
उगने से पहले ही..
क्षितिज को चीरकर ऊपर बढ़ने से पहले ही
उम्मीदों का कर दिया जाता है सूर्यास्त
यथार्थ की रणभूमि की ओर कूच करने से पहले ही
मेरी सोच की सेनाओं को
कर दिया जाता है परास्त
उम्मीद से मेरा रिश्ता
केवल इतना ही लगता है
कि मुझ से जुड़े लोग खुश से नज़र आते हैं
जब जानते हैं कि 'मैं उम्मीद से हूँ'
पर ये खुशी भी परिणत हो जाती है दुःख में
कई बार जब उस उम्मीद के नतीजे में
मेरी जैसी कोई प्रतिरूप आ गिरती है मेरी झोली में
हाँ कुछ परछाइयां हैं मेरी
'जो शहर तक पहुँची तो हैं'
पर रात हो या दोपहर
शाम हो या सहर वो भी सहमी सी है
फिर भी हर हालत में भिड़ी रहती हैं हालात से..
लेकिन मेरा असल वजूद आज भी
गाँव की, कस्बों की
तंग गलियों में ही सिमटा है
यूं तो पूजाघर की दीवारों पर टंगी तस्वीरों में
मेरे हाथों में तीर है.. तलवार है.. त्रिशूल है
पर हकीकत में
सिर्फ बेलन है चिमटा है
सच है कि शायद डंके की चोट पर मैं कह न पाऊं
कानाफूसी से सही पर हर कान तक अपनी बात पहुंचाऊँगी
कि मैं नारी हूँ .. पर हारी नहीं हूँ
दीपक 'मशाल'
बहुत खूबसूरत .एकदम सुबह की धुप जैसी थोड़ी रक्तिम थोड़ी मद्धम
जवाब देंहटाएंपर हकीकत में
जवाब देंहटाएंसिर्फ बेलन है चिमटा है
न जाने कितने रूपों में केवल दिखावे के स्तर पर ही देखा गया पर हकीकत तो यही है
ये पंक्तियाँ बहुत सुन्दर बन पड़ी हैं
कि मुझ से जुड़े लोग खुश से नज़र आते हैं
जब जानते हैं कि 'मैं उम्मीद से हूँ'
उम्मीद से मेरा रिश्ता
जवाब देंहटाएंकेवल इतना ही लगता है
कि मुझ से जुड़े लोग खुश से नज़र आते हैं
जब जानते हैं कि 'मैं उम्मीद से हूँ'
पर ये खुशी भी परिणत हो जाती है दुःख में
कई बार जब उस उम्मीद के नतीजे में
मेरी जैसी कोई प्रतिरूप आ गिरती है मेरी झोली में
bahut sundar dipakji
meri bhi new post dekhen
कि मैं नारी हूँ .. पर हारी नहीं हूँ
जवाब देंहटाएंसिर्फ और सिर्फ दर्द की अधिकारी नहीं हूँ
बेहतरीन प्रस्तुति है ।
यूं तो पूजाघर की दीवारों पर टंगी तस्वीरों में
जवाब देंहटाएंमेरे हाथों में तीर है.. तलवार है.. त्रिशूल है
पर हकीकत में
सिर्फ बेलन है चिमटा है
वाह , बहुत खूब । गहरे भाव लिए रचना ।
बहुत उम्दा और गहरे भाव!! वाह!
जवाब देंहटाएंमन के भावों को बहुत ही बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया है आपने ........अति उत्तम रचना .
जवाब देंहटाएंशीर्षक से ही भावनाओं की गहराई का एह्सास होता है।
जवाब देंहटाएंवाह दीपक, बहुत खूब लिखा है। एक संवेदनशील मन के भाव बहुत अच्छे से उकेरे हैं।
जवाब देंहटाएंवाह...बेहद सुन्दर और अद्वितीय पेशकश ,,,
जवाब देंहटाएंविचारों को शब्दों के माध्यम से क्या रूप दिया है....अतिसुन्दर
विकास पाण्डेय
www.vicharokadaroan.blogspot.com
Aah...adhiktar dard ke hee adhikaari hoti hai aurat.."taareekh ne marne ke baad khoob tareef likhi,zindagi ke rahte mai zinda jali,dekh lo Seeta ko,yaad karo Mahabharat kee Draupadi ..."
जवाब देंहटाएंकि मैं नारी हूँ .. पर हारी नहीं हूँ
जवाब देंहटाएंसिर्फ और सिर्फ दर्द की अधिकारी नहीं हूँ
--
बहुत ही सारगर्भित रचना!
बहुत सुंदर लगी आप की यह रचना
जवाब देंहटाएंहर पंक्ति अनमोल ..बहुत प्यारी रचना
जवाब देंहटाएंकिरणों की तरह ही स्वच्छ, निर्मल रचना...
जवाब देंहटाएंदीपक हम तो स्वयं को कभी भी नारी नहीं मानते बस मानते हैं तो माँ। हम कभी बेटी के रूप में घर में चहकते रहे हैं कभी बहन बनकर भाइयों के दिलों पर राज करते रहे हैं। हाँ बस इतना जरूर है कि आज भी कुछ लोग बेटी के आने को पसन्द नहीं करते क्योंकि उन्हें मालूम है कि ऐसे ही उसे दुत्कारा जाएगा। जिस दिन नारी के लिए पुरुषों का लिखना बन्द हो जाएगा मैं मानती हूँ कि उसी दिन से नारी की स्थिति स्वाभिमान से भर जाएगी। मेरी बात निश्चित ही बुरी लगी होगी लेकिन क्या करूं मैं नारी हूं और कभी भी अबला नहीं रही।
जवाब देंहटाएंदीपक हम तो स्वयं को कभी भी नारी नहीं मानते बस मानते हैं तो माँ। हम कभी बेटी के रूप में घर में चहकते रहे हैं कभी बहन बनकर भाइयों के दिलों पर राज करते रहे हैं। हाँ बस इतना जरूर है कि आज भी कुछ लोग बेटी के आने को पसन्द नहीं करते क्योंकि उन्हें मालूम है कि ऐसे ही उसे दुत्कारा जाएगा। ...@ अजीत जी की इस बात से सहमत....
जवाब देंहटाएंऔर ये रही मेरी बात---हर सुबह समेटती हूँ ऊर्जाओं के बण्डल.... कि मैं नारी हूँ .. पर हारी नहीं हूँ
उम्दा रचना दीपक भाई
जवाब देंहटाएंआभार
आपके ब्लाग की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर
नारी मन की वेदना का ऐसा चित्रण !!
जवाब देंहटाएंआपकी हर रचना बेमिसाल है! सच है कि शायद डंके की चोट पर मैं कह न पाऊं
जवाब देंहटाएंकानाफूसी से सही पर हर कान तक अपनी बात पहुंचाऊँगी
कि मैं नारी हूँ .. पर हारी नहीं हूँ
सिर्फ और सिर्फ दर्द की अधिकारी नहीं हूँ! नारी वेदना संवेदना की शानदार प्रस्तुति।
sach me ek bemishal rachna...:)
जवाब देंहटाएंnari ke vyathit mann ko bahut pyare dhang se aapne chitrit kiya..........badhai!
बहुत खूबसूरती से अभिव्यक्त किया है अपने विचारों को ....बधाई
जवाब देंहटाएंये ... शाबाश।
जवाब देंहटाएंवेरी गुड़। जबरदस्त.
वेलडन मेरे दोस्त।
कि मैं नारी हूँ .. पर हारी नहीं हूँ
जवाब देंहटाएंसिर्फ और सिर्फ दर्द की अधिकारी नहीं हूँ
बहुत गहरे भाव लिए संवेदनशील रचना....नारी मन के दर्द को जैसे महसूस करके लिखा हो...बहुत सुन्दर
लेकिन मेरा असल वजूद आज भी
जवाब देंहटाएंगाँव की, कस्बों की
तंग गलियों में ही सिमटा है
यूं तो पूजाघर की दीवारों पर टंगी तस्वीरों में
मेरे हाथों में तीर है.. तलवार है.. त्रिशूल है
पर हकीकत में
सिर्फ बेलन है चिमटा है
bahut hi badhiyaa likha hai
आदरणीया अजित मैम और अर्चना मासी.. आप लोगों के कथन में बुरा लगने वाली कोई बात नहीं, आप दोनों ही मेरे लिए माँ समान ही हैं.... पर हाँ ये बात एक स्वस्थ बहस को जरूर जन्म दे सकती है.. वैसे फिर भी आपसे मेरा यही सवाल है कि वो कितनी नारियां हैं जो आप दोनों की तरह शिक्षित और अपने पैरों पर खड़ी हैं... स्वाभिमान पैदा करने के लिए एक सहारे की जरूरत शुरुआत में ही सही पर पड़ती तो है.. कोई विशाल वृक्ष भी जब प्रारंभ में बहुत नाज़ुक होता है तो उसे बांस की खपंचियों का सहारा दिया ही जाता है.. आज भी भारत में ९०% या उससे ज्यादा महिलाओं की हालत इस लायक नहीं कही जा सकती कि वो अपनी लड़ाई खुद लड़ सकें.. और ये तो हमेशा से होता रहा है कि समाज का जो दुर्बल वर्ग है उसकी मदद के लिए अन्य वर्ग आगे आयें भले ही सहायक वर्ग दुर्बल हों या सबल.. अब अगर प्रेमचंद के साहित्य में दलितों की तकलीफों को उकेरा गया है तो इसका मतलब ये तो नहीं लगता कि उन्होंने दलितों के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाई.. अगर कोई अमेरिकी गैर- सरकारी संगठन या कोई अन्य विकसित देश किसी गरीब या विकासशील देश की मदद के लिए आगे आता है तो क्या वो दूसरे को नीचा दिखाना चाहता है.. या उसकी मदद की वैशाखी उस गरीब देश को और भी पंगु बना देगी? जहाँ तक मैं समझता हूँ कि एक हद तक मदद करने में तो कोई बुराई नहीं... बस उनकी गाड़ी को चलती हालत में लाके मुख्य सड़क पर ला दिया जाए तो अपना काम ख़त्म.. वो अपने आप ही मंजिल तक पहुँच लेगी. पर इतना तो करना ही पड़ेगा ना?.. सच कहिये कि अगर कल को ये दशा अधिकाँश पुरुषों की हुई तो क्या नारी लेखक आगे नहीं आयेंगीं? विश्वास कीजिए कि ये कविता लिखते वक़्त मैं एक पुरुष नहीं बल्कि एक बेटा, एक भाई एक मित्र था..
जवाब देंहटाएंऐसे आगे भी अपने विचार रखिये जिससे कि मुझे अहसास हो सके कि सच में इन कविताओं को गंभीरता से लिया जा रहा है.. आभार मैम..
दीपक भाई, आधुनिक नारी की चेतना को कविता में बखूबी पिरोया है आपने।
जवाब देंहटाएंहर सुबह समेटती हूँ ऊर्जाओं के बण्डल
जवाब देंहटाएंऔर हर शाम होने से पहले
छितरा दिया जाता है उन्हें
कभी परायों के
तो कभी तथाकथित अपनों के हाथों.
लाजवाब हूँ
सिर्फ एक अप्रकट
एक अदृश्य सूली से खुद को बंधे पाया
हौसले के परों को बिंधे पाया
फिर भी हर बार लहु-लुहान हौसले लिए
बारम्बार उगने लगती हूँ 'कैक्टस' की तरह
बहुत गहरे भाव, सश्क्त ाउर सटीक अभिवयक्ति है
कहाँ से इतने सुन्दर शब्द और गढ् लेते हो। आशीर्वाद्
नारी की तकलीफ को व्यक्त करना आसान नहीं ...शुभकामनायें दीपक
जवाब देंहटाएंकि मैं नारी हूँ .. पर हारी नहीं हूँ
जवाब देंहटाएंसिर्फ और सिर्फ दर्द की अधिकारी नहीं हूँ
itni sundar abhivyakti hai ki shabdhiin ho gayi hun.......nari man ko jaise aapne poora padh liya hai aur use lafzon mein utaar diya hai.........gazab.
बहुत सुन्दर शब्दों में बंधा है नारी मन को..बहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंआपकी ये पोस्ट कल २/७/१० के चर्चा मंच के लिए ली गयी है.
http://charchamanch.blogspot.com/
आभार
संवेदनाओं को बहुत ही खूबसूरती से शब्द दिए हैं .......आज पहली बार यहाँ आई, अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंलेखन के लिए शुभकामनाएं....
sashakt abhivykti ..........aapke vicharo kee..........
जवाब देंहटाएंaapne jaisaa dekha samjha mahsoos kiya prabhavshalee shavdo se prastut kiya .
hakeekat se muh moda nahee ja sakta.........
shiksha .aatm nirbharta hee parivartan laaegee par fir manzar kya hoga.....?
her pal naree par aashrit purush varg apane ko sambhal paegaa.......... ?belan hath me utha paega.....?apanee shirt me button swayam laga paega....apane baccho ka lalan palan kar paega......?
sahee artho me kaun kis par aashrit hai shayad tub use samajh aa jaegee.
aaj kal ham to aa hi nahi paa rahe hain blog par..
जवाब देंहटाएंbahut sundar likha hai dipak..
aur comments bhi abhut acche aaye hain..
didi..
सम्वेदना का प्रसार करती दिखाती उत्कृष्ट कविता
जवाब देंहटाएं।
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आई हूँ ! और कितनी प्रभावित हुई हूँ इस कविता से शब्दों एं ब्यान करना मुश्किल है ! आपके ह्रदय में नारी के लिये जितनी पीड़ा है उसका थोड़ा सा भी प्रतिशत अन्य पुरुषों के मन में भी जागृत हो जाए तो नारी इन अदृश्य सलीबों के बंधन से ज़रूर एक दिन मुक्त हो जायेगी ! मेरी बधाई एवं धन्यवाद स्वीकार करें !
जवाब देंहटाएंबहुत खूब....
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