बीज
और आज तुम लटके मिले हो फाँसी पर
मगर फिर भी शहीद ना बन पाए
अनगिन ख्वाबों के बीज अनगिनत
तुमने रोपे मेरी आँखों में
और चले गए बिन सींचे ही
मैंने कई बार सोचा
भून डालूँ इन बीजों को
अपने गुस्से की आग में
कई बार पूछना चाहा
कब सोना उगलेगी ज़मीन
कब अनाज से भरेंगे खलिहान
कब खिंच पायेगा ग्राफ
हक़ीक़त के सरकारी कागज़ पर
खालीपन से संतृप्तता की तरफ बढ़ता हुआ
अम्मा की कपड़े धोने वाली उस मुगरी से
जब पहली बार गेंद को पीटा था
तो झन्नाटेदार तमाचा मिला था इनाम तुमसे
इस कड़े निर्देश में पाग के कि
किसान का बेटा बनेगा सिर्फ किसान
और एकदिन झोंका गया था बल्ले को चूल्हे की आग में
जब जीत के लाया था मैं
मौजे के सबसे बेहतर बल्लेबाज़ का खिताब
अंकुरित होने से पहले ही
तुमने कर दी थी गुड़ाई उन बीजों की
जो सहमे से छिपाए थे खुद में
अस्तित्व एक उभरते खिलाड़ी का
फिर उन्हीं में जबरन बो दिए
जग के अन्नदाता बनने के सपने वाले बीज
ये समझा के कि बीज ही है आत्मा किसान की
बीज ही है जान इस जहान की..
दिन-बा-दिन बारिश बिना लीलती रही ये सूखी ज़मीन
हमारी खाद, हमारी आत्मा
और हर अगले साल
पुरानी को छोड़े बगैर पकड़ते गए हम
क़र्ज़ के काँटों वाली एक नयी डाली
खुशियाँ फिसलती गयीं
कभी अचार के तेल में सनी चम्मच की तरह
कभी गीले हाथ से निकलते साबुन की तरह
ना जाने क्यों लगा था तुम्हें
हमारे उगाये करोड़ों और अरबों ये दाने
हमें बना देंगे अन्नदाता दुनिया का
क्यों लगा कि वो उपज
बेहतर होगी किसी खिलाड़ी के बल्ले से उपजे
चार, पांच या छः छक्कों से
और बदले में मिल जायेंगे तुम्हें भी
लाखों नहीं तो कुछ हज़ार रुपये ही
जो आयेंगे काम चुकाने को क़र्ज़
चलाने को जीवन।
हरक्युलिस की तरह
कर्जों की धरती का बोझ तुम मुझसे कहे बगैर
मिरे काँधों पर कर गए स्थानांतरित
और आज तुम लटके मिले हो फाँसी पर
मगर फिर भी शहीद ना बन पाए...
मगर फिर भी शहीद ना बन पाए
अनगिन ख्वाबों के बीज अनगिनत
तुमने रोपे मेरी आँखों में
और चले गए बिन सींचे ही
मैंने कई बार सोचा
भून डालूँ इन बीजों को
अपने गुस्से की आग में
कई बार पूछना चाहा
कब सोना उगलेगी ज़मीन
कब अनाज से भरेंगे खलिहान
कब खिंच पायेगा ग्राफ
हक़ीक़त के सरकारी कागज़ पर
खालीपन से संतृप्तता की तरफ बढ़ता हुआ
अम्मा की कपड़े धोने वाली उस मुगरी से
जब पहली बार गेंद को पीटा था
तो झन्नाटेदार तमाचा मिला था इनाम तुमसे
इस कड़े निर्देश में पाग के कि
किसान का बेटा बनेगा सिर्फ किसान
और एकदिन झोंका गया था बल्ले को चूल्हे की आग में
जब जीत के लाया था मैं
मौजे के सबसे बेहतर बल्लेबाज़ का खिताब
अंकुरित होने से पहले ही
तुमने कर दी थी गुड़ाई उन बीजों की
जो सहमे से छिपाए थे खुद में
अस्तित्व एक उभरते खिलाड़ी का
फिर उन्हीं में जबरन बो दिए
जग के अन्नदाता बनने के सपने वाले बीज
ये समझा के कि बीज ही है आत्मा किसान की
बीज ही है जान इस जहान की..
दिन-बा-दिन बारिश बिना लीलती रही ये सूखी ज़मीन
हमारी खाद, हमारी आत्मा
और हर अगले साल
पुरानी को छोड़े बगैर पकड़ते गए हम
क़र्ज़ के काँटों वाली एक नयी डाली
खुशियाँ फिसलती गयीं
कभी अचार के तेल में सनी चम्मच की तरह
कभी गीले हाथ से निकलते साबुन की तरह
ना जाने क्यों लगा था तुम्हें
हमारे उगाये करोड़ों और अरबों ये दाने
हमें बना देंगे अन्नदाता दुनिया का
क्यों लगा कि वो उपज
बेहतर होगी किसी खिलाड़ी के बल्ले से उपजे
चार, पांच या छः छक्कों से
और बदले में मिल जायेंगे तुम्हें भी
लाखों नहीं तो कुछ हज़ार रुपये ही
जो आयेंगे काम चुकाने को क़र्ज़
चलाने को जीवन।
हरक्युलिस की तरह
कर्जों की धरती का बोझ तुम मुझसे कहे बगैर
मिरे काँधों पर कर गए स्थानांतरित
और आज तुम लटके मिले हो फाँसी पर
मगर फिर भी शहीद ना बन पाए...
दीपक 'मशाल'
http://kishorechoudhary.blogspot.com/2010/05/blog-post.html
ek kisan ki marmik vyatha
जवाब देंहटाएंjo vah jeeban bhar bhogta hai, aur ishwar bhi us par meharban nahin hota aur na prakari
dil ko chhoo lene baali baat kah di aapne
dipak ji aapko badhai
जवाब देंहटाएंaapki rachna abhi sirf 4 no. par hai
jald hi no. 1 par hogi
सार्थक ,संवेदनशील कविता
जवाब देंहटाएंकब अनाज से भरेंगे खलिहान
जवाब देंहटाएंकब खिंच पायेगा ग्राफ
हक़ीक़त के सरकारी कागज़ पर
खालीपन से संतृप्तता की तरफ बढ़ता हुआ
....संवेदनशील .
naye vishay ko chhua
जवाब देंहटाएंbadaai sweekar kare
सरकार के आर्थिक क्रिया कलापों में कार, टी.वी., और लैप टॉप मोबाइल आदि का उपयोग करने वाले शहरी मध्यवर्ग के जनों के लिए तरह-तरह की सुविधाएं और छूट प्रदान कर दी जाती हैं। पर मंहगाई की मार झेलते साधारण जन, के लिए कोई प्रावधान नहीं। कहते हैं लोगों को मंहगाई बर्दाश्त करनी होगी। ग़रीब किसानों की अत्महत्याओं को किस नज़र से देखे सरकार जब उनकी आंखें स्टॉक एक्स्चेंज की सेंसेक्स की उठा-पटक पर टिकी है।
जवाब देंहटाएंएक सशक्त और सटीक रचना।
कई बार पूछना चाहा
जवाब देंहटाएंकब सोना उगलेगी ज़मीन
कब अनाज से भरेंगे खलिहान
कब खिंच पायेगा ग्राफ
हक़ीक़त के सरकारी कागज़ पर
खालीपन से संतृप्तता की तरफ बढ़ता हुआ
अम्मा की कपड़े धोने वाली उस मुगरी से
जब पहली बार गेंद को पीटा था
तो झन्नाटेदार तमाचा मिला था इनाम तुमसे
इस कड़े निर्देश में पाग के कि
किसान का बेटा बनेगा सिर्फ किसान
और एकदिन झोंका गया था बल्ले को चूल्हे की आग में
जब जीत के लाया था मैं
मौजे के सबसे बेहतर बल्लेबाज़ का खिताब
वाह , रसमय कविता है दीपक जी !
जो हमे भर पेट देता है, उस का हाल आप ने अपनी कविता मै दे दिया, लेकिन गलती हमारी भी है जब कोई कमीना नेता मरता है तो हम भी हाथ जोडे चले जाते है, लेकिन क्यो??? ओर जब कोई किसान मरता है तो किसी की आंख से आंसू की एक बुंद भी नही टपकटी
जवाब देंहटाएंkisaan ki manodasha aur halat ka bahut hi marmik chitran kiya hai.
जवाब देंहटाएंक़र्ज़ में डूबे किसानों की व्यथा पर एक मर्मस्पर्शी रचना ।
जवाब देंहटाएंदरसल किसान सोना उपजाते है लेकिन ये दलाल और गावों में जनप्रतिनिधियों के चमचे इनके सोना को मिटटी में बदल देता है ,जिससे इनकी दुर्दशा हो गयी है और सरकारी व्यवस्था तो किसानो के नाम पर ढोंग और भ्रष्टाचार का खेल को अंजाम दे रही है |
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंदीपक भाई बहुत ही मार्मिक रचना
जवाब देंहटाएंजिन्दगी के २ साल बैक प्रबन्धक के रूप मे किसानो को नजदीक से देखने क मौका मिला. जाना कि किसानी कोई रोजगार नही है बल्कि छोटे किसानो के लिये एक जीवन शैली है. आपने समग्रता से उनके जीन की सचाई को सामने रखा है. बधाई
बहुत मार्मिक और सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंachhi rachna......badhaiiiiiii......
जवाब देंहटाएंबहुत संवेदनशील रचना ....
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति ..मैं खुद कृषक परिवार से हूँ ,,दशा समझ सकता हूँ
जवाब देंहटाएंbahut hi marmikkavitaa. kisano ke dard kosamajh kar use ukerane ki sarthak koshish. sach baat hai. kisaan ki maut hashiye par hi rah jati hai. lekin jab kavi ''mashal'' ban jata hai, to vah maut surkhiyon mey tabdeel ho jatee hai. badhai..iss samvedanaa ke liye.aise log chahiye sahitya ko.
जवाब देंहटाएंएक संवेदनशील विषय पर मार्मिक कविता, नया font अच्छा है
जवाब देंहटाएंऔर आज तुम लटके मिले हो फाँसी पर
जवाब देंहटाएंमगर फिर भी शहीद ना बन पाए...
और फिर शहीद का दर्जा मिल भी जाता ...
सुन्दर कविता
चूल्हे में झोंका गया अपना चेस बोर्ड याद आ गया :)
जवाब देंहटाएं@ पुरानी को छोड़े बगैर पकड़ते गए हम
क़र्ज़ के काँटों वाली एक नयी डाली
खुशियाँ फिसलती गयीं
कभी अचार के तेल में सनी चम्मच की तरह
कभी गीले हाथ से निकलते साबुन की तरह
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मगर फिर भी शहीद ना बन पाए...
ऐसे खण्ड अभिव्यक्ति की ताज़गी बनाए रखते हैं - पाठकों की भी। कुछ सीख कर जा रहा हूँ।
किशोर चौधरी,पंकज उपाध्याय, संजय व्यास, पूजा, शेफाली, कृष्ण मोहन मिश्र, हिमांशु पाण्डेय ... ये कुछ ऐसे नाम हैं जो मुझे पोल वॉल्ट के क्रॉस बार की तरह लगते हैं। इन्हें पढ़ने का आनन्द ही अलग है।
जवाब देंहटाएंइन्हें पढ़ कर चुपचाप वापस आ जाने में भी सुकूँ मिलता है।
ek aam insan ki dili halat he ye
जवाब देंहटाएंbahut achha laga pad kar
bahut khub
http://kavyawani.blogspot.com/
भाई कविता बहुत अच्छी है...
जवाब देंहटाएंpehle ek dvand aur fir maarmik ant...krishakon ki durdasha ko kya khoob dikhaya...aankh bhar aayi... :(
जवाब देंहटाएंयही एक अन्नदाता की नियति बना दी है इन ह ने... क्या लिखूं शब्द साथ नहीं दे रहे...
जवाब देंहटाएंबहुत ही मर्मस्पर्शी रचना...किसानों की व्यथा को इतनी मार्मिकता से शब्दों में ढाला है...कि दिल भर आया...सबका पेट भरनेवाले कबतक यूँ सलीब पर टंगे रहेंगे...क्षुब्ध हो जाता है मन ये सब देख सुन
जवाब देंहटाएंकिसानों के मनोभावों और दुख को समेटे हुए एक उत्कृष्ट रचना
जवाब देंहटाएंयही एक अन्नदाता की नियति बना दी है इन ह ने... क्या लिखूं शब्द साथ नहीं दे रहे...
जवाब देंहटाएंजीवन के कई सारे चित्र चलचित्र की तरह दिमाग में घूम गये आपकी कविता पढते हुए।
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना....
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क्या आप जवान रहना चाहते हैं?
ढ़ाक कहो टेसू कहो या फिर कहो पलाश...
बहुत ही मार्मिक रचना है!
जवाब देंहटाएंमन द्रवीभूत हो गया!
किसान के दर्द को बयान करती मार्मिक और सशक्त रचना के लिए बधाई.
जवाब देंहटाएंइन पंक्तियों ने अधिक आकर्षित किया..
..हरक्युलिस की तरह
कर्जों की धरती का बोझ तुम मुझसे कहे बगैर
मिरे काँधों पर कर गए स्थानांतरित..
दीपक जी, आपके सुझाव पर मैंने अपनी रचना में कुछ बदलाव करते हुए कुछ पंक्तियाँ और जोड़ी है .देखें www.mathurnilesh.blogspot.com
जवाब देंहटाएंहम लोग सिर्फ चिंता ही दर्शा सकते हैं, अगर मिल कर कोशिश करें तो शायद इस दिशा में कुछ सार्थक कर सकें.. शुक्रिया
जवाब देंहटाएंबहुत संवेदनशील रचना..आपका कहना सही है कि हालातों को बदलने के कुछ सार्थक कदम उठाना होंगे.
जवाब देंहटाएं