शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

श्री शरद कोकस जी को समर्पित एक रचना


प्रिय दोस्तों और अग्रजजनों, आप सभी को तहेदिल से दीवाली कि शुभकामनायें....और ना सिर्फ दीपावली बल्कि इसके बाद गोवर्धनपूजा एवं भाईदूज की भी...
ये एक रचना जो मैं आज भावुक होकर आपके सामने रख रहा हूँ इसको पूरा करने में बहुत बड़ा हाथ श्री शरद कोकस जी का है(और उन तक पहुँचने में मदद की श्री महफूज अली भाई ने). मैंने हर बार की तरह एक तारीख की तरह गुजर रहे इस त्यौहार पे सोचने की कोशिश की के मैं तो वतन से इतने दूर बैठा हूँ, क्या मेरे माता-पिता, जिनका की मैं इकलौता बेटा हूँ, सोचते होंगे. बस मन में जो भी भाव आये उन्हें कागज़ पे संकलित कर लिया(जब मैंने अपनी मम्मी को ये पढ़ के सुनाया और उनसे पूछा की मैं कितना सही सोच पाया, तो फ़ोन के दूसरे सिरे पे बहती अश्रुधारा सहज ही महसूस की जा सकती थी). लेकिन उन कच्चे भावों को  एक हीरे की तरह तराशा श्री शरद जी ने और मैं नहीं चाहता था की उन्होंने मेरा जो मार्गदर्शन किया वो मैं अपनी रचना बना कर दुनिया को दिखाऊं. इसलिए जो टूटा फूटा मैंने लिखा उसे और उसको शरद जी द्वारा अलंकृत करके खूबसूरत जामा पहना कर एक पढने लायक रचना बनाने के बाद जो रूप आया उसे, दोनों को पोस्ट कर रहा हूँ जिससे की आप भी एक उत्कृष्ट समीक्षक से रूबरू हो सकें जो की सिर्फ सामाजिक न्याय दिलाने और अन्धविश्वास मिटाने में ही नहीं कलम को एक वृक्ष बनाने के लिए उसका सहारा बनने से भी गुरेज़ नहीं करते.
पहले बिखरे भावों के साथ टूटी-फूटी रचना-
इस बार दिवाली सूनी सी है,
दिल की उदासी दूनी सी है.
बेटा है परदेस में बैठा,
माँ-बाप की आँख में धूली सी है.
कितने दीप जले आँगन में,
पर अँधेरा फैला था मन में.
इकबार अगर तू आ जाता,
हलचल सी हो जाती तन में.
देखो-देखो तो ये बाती,
बुझी-बुझी सी लगती है,
कितनी चीनी पड़ी खीर में,
पर फीकी सी लगती है.
जो नयन हमारे हुए समंदर,
क्या याद तुझे ना आती होगी.
उड़के बादल की कोई टुकडी,
क्या तेरी आँख ना छाती होगी.
तारीखें अब याद कहाँ हैं,
बस ऐसे गिनते हैं दिन.
कितने दिन के गए हुए तुम,
आने में कितने हैं दिन.
दिन गिनते हैं अब तो केवल,
उल्टे अपने जीवन के.
जीते जी इकबार तू आजा,
चाहे ना आना बाद मरन के.
जाने क्यों ये ख्वाब क्यों आया,
के तू लौट के आया है.
शायद उमर का असर भी हमपे,
पागलपन सा छाया है.
सुख से रहो जहाँ भी जाओ,
धन पाओ और नाम कमाओ.
अच्छा है मर जाएँ हम,
इक नया जनम फिर पायें हम,
इतनी है बिनती भगवन से,
हम आयें तेरे बच्चे बन के
हम आयें तेरे बच्चे बन के..
दीपक 'मशाल'


अब गुरु श्री शरद जी द्वारा संशोधित करने के बाद रचना जो की एक पूर्ण कविता बनी-
इस बार दिवाली सूनी है,
उनकी उदासी दूनी है.
जिनके बच्चे है परदेस में
माँ-बाप की आँखें सूनी हैं
कितने दीप जले आँगन में,
पर तम फैला था मन में.
इकबार अगर वे आ जाते
हलचल सी हो जाती तन में.

देखो-यह जलती बाती भी
बुझी-बुझी क्यों लगती है,
मीठे लड्डू मीठी है खीर ,
पर फीकी सी लगती है.

ये नयन उनके हुए समंदर,
क्या याद उसे ना आती होगी.
क्या यादों की कोई बदली
उसके मन पर् ना छाती होगी.

तारीखें अब याद कहाँ हैं,
बस ऐसे ही गिनते हैं दिन.
कितने दिन गए हो गए,
आने में कितने हैं दिन.

दिन गिनते हैं अब तो केवल,
उल्टे अपने जीवन के.
जीते जी इकबार वो आये
ना आये बाद वो मरने के.

रोज़ रोज़ यह ख्वाब है आता
जैसे वह लौट के आया है.
शायद यह उमर का असर है
पागलपन सा छाया है.

सुख से रहे जहाँ भी जाये,
धन पाये और नाम कमाये.
बस इतनी अभिलाषा है
जीवन का क्या है
पानी मे भीगा बताशा है ।
दीपक 'मशाल' एवं श्री शरद कोकस

15 टिप्‍पणियां:

  1. दीपक जी आपकी रचना ने तो मुझे भावुक कर दिया...कोकास जी की मेहनत ने उसमें और चाँद लगा दिए।
    वैसे तो मुझे कविता की समझ नहीं है लेकिन इतना ज़रूर जान पाया हूँ मैँ कि पहले वाली रचना में एक माँ-बाप की अपने बच्चे के प्रति भावनाओं को जिक्र है जबकि दूसरी संशोधित रचना में समस्त माता-पिताओं भावनाएँ भी सम्मिलित हो गई हैँ

    बहुत ही आला दर्ज़े की रचना...एक बार फिर से इसे पढवाने के लिए आपका तथा कोकास जी का बहुत-बहुत धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह जी वाह, बहुत खूबसूरत बात ---

    इतनी सी बिनती है भगवन से,
    हम आयें तेरे बच्चे बन के।


    दीवाली की ढ़ेरों शुभकामनायें।

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  3. यह सही समर्पण है शरद कोकस जी को.. :)

    सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
    दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
    खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
    दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!

    सादर

    -समीर लाल 'समीर'

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  4. कविता तो भाव है वह तो तभी जन्म गई जब उस का विचार पैदा हुआ। बाद की सजावट उसे संप्रेष्य बनाती है। शरद जी ने संवारने का काम भलीभांति किया है। आप को और शरद जी को बधाई!
    दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  5. bahut sahi bhav hain.. main bhi 3 saal se ghar se bahar hun..
    sharad kokas ji ne rachna ko nikhar diya hai...
    deepawali ki shubhkamanayein..

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  6. कविता तो बहुत ही भावप्रवण थी पर देखिये शरद जी के आशीर्वाद ने इसे समष्टि का बना दिया.... ये और सुन्दर, निखर गयी...

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  7. इस दीपावली में प्यार के ऐसे दीए जलाए

    जिसमें सारे बैर-पूर्वाग्रह मिट जाए

    हिन्दी ब्लाग जगत इतना ऊपर जाए

    सारी दुनिया उसके लिए छोटी पड़ जाए

    चलो आज प्यार से जीने की कसम खाए

    और सारे गिले-शिकवे भूल जाए

    सभी को दीप पर्व की मीठी-मीठी बधाई

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  8. बहुत सुन्दर दीपक, लगता है बाहर बहुत दिन रहने के कारण घर की ज्यादा ही याद आ रही है?
    वैसे तुम्हारी कलम के जादू से तो बहुत पहले ही परिचय हो चुका था. फिर से बधाई, शुभकामनायें

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  9. आपके भाव और शरद जी के शब्द!
    दोनों मिल कर बन गए एक चित्र!!

    दीपोत्सव का यह पावन पर्व आपके जीवन को धन-धान्य-सुख-समृद्धि से परिपूर्ण करे!!!

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  10. दर्द के भाव जैसे भी हों , दिल पे असर करते हैं,शरद जी का साथ मिला....महफूज़ वहां तक ले गए.....यह इस दर्द का कमाल है..
    मैं इस उदासी को समझ सकती हूँ

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  11. इतनी शिद्दत से मेरी तकलीफ समझने के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद्.
    आपका-
    मशाल

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  12. आज बहुत दिनों बाद तुम्हारा ब्लॉग देखा अच्छा लगा

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