शनिवार, 10 अक्तूबर 2009
बेज़ार मैं रोती रही, वो बे-इन्तेहाँ हँसता रहा.
बेज़ार मैं रोती रही, वो बे-इन्तेहाँ हँसता रहा.
वक़्त का हर एक कदम, राहे ज़ुल्म पर बढ़ता रहा.
ये सोच के कि आँच से प्यार की पिघलेगा कभी,
मैं मोमदिल कहती रही, वो पत्थर बना ठगता रहा.
उसको खबर नहीं थी कि मैं बेखबर नहीं,
मैं अमृत समझ पीती रही, वो जब भी ज़हर देता रहा.
मैं बारहा कहती रही, ए सब्र मेरे सब्र कर,
वो बारहा इस सब्र कि, हद नयी गढ़ता रहा.
था कहाँ आसाँ यूँ रखना, कायम वजूद परदेस में,
पानी मुझे गंगा का लेकिन, हिम्मत बहुत देता रहा.
बन्ध कितने ढंग के, लगवा दिए उसने मगर,
'मशाल' तेरा प्रेम मुझको, हौसला देता रहा.
दीपक 'मशाल'
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
खूबसूरत रचना..भावों और विचारों का सुंदर वर्णन कविता के माध्यम से..बधाई दीपक जी..
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा, बेहतरीन भाव!
जवाब देंहटाएंbahut khoob likha "Mashal" bhai..
जवाब देंहटाएंबहुत ही गहरी और दिल को छु लेने वाली कविता, दर्द से निकली हुयी लगती है.
जवाब देंहटाएंबेजार मैं रोती रही ...वो बेइन्तहा हँसता रहा ..
जवाब देंहटाएंमगर प्रेम हौसला देता रहा ...बहुत खूब ...
भावों का अच्छा चित्रण ..!!
main barha kehti rahi, aye sabra mere sabra kar,
जवाब देंहटाएंwo barha is sabra ki, had nahi gadhta raha...
bahut achha likha aapne...
था कहाँ आसान यूँ रखना कायम वजूद परदेस में
जवाब देंहटाएंपानी लेकिन गंगा का मुझे बहुत हिम्मत देता रहा
क्या बात कह दी....हम भी तो यही झेलते हैं और रगों में बहती गंगा से हिम्मत लेते रहते हैं...बहुत सुन्दर लिखते हो..
दी ...
बहुत ही सुन्दर...दिल से निकली हुई रचना ...
जवाब देंहटाएंलगता है कि आपके ब्लॉग पर लगातार आना होगा
Aapka shukriya
जवाब देंहटाएंvery nice!!!
जवाब देंहटाएं