बुधवार, 30 जून 2010

एक अदृश्य सूली

हर सुबह समेटती हूँ ऊर्जाओं के बण्डल
और हर शाम होने से पहले
छितरा दिया जाता है उन्हें
कभी परायों के
तो कभी तथाकथित अपनों के हाथों..

कई बार तो.. कई-कई बार तो
भरनी चाही उड़ान
'हम परों से नहीं हौसलों से उड़ते हैं' सुनकर
पर ना तो थे असली पर
और न हौसलों वाले ही काम आये..
सिर्फ एक अप्रकट
एक अदृश्य सूली से खुद को बंधे पाया
हौसले के परों को बिंधे पाया
फिर भी हर बार लहु-लुहान हौसले लिए
बारम्बार उगने लगती हूँ 'कैक्टस' की तरह

उगने से पहले ही..
क्षितिज को चीरकर ऊपर बढ़ने से पहले ही
उम्मीदों का कर दिया जाता है सूर्यास्त
यथार्थ की रणभूमि की ओर कूच करने से पहले ही
मेरी सोच की सेनाओं को
कर दिया जाता है परास्त

उम्मीद से मेरा रिश्ता
केवल इतना ही लगता है
कि मुझ से जुड़े लोग खुश से नज़र आते हैं
जब जानते हैं कि 'मैं उम्मीद से हूँ'
पर ये खुशी भी परिणत हो जाती है दुःख में
कई बार जब उस उम्मीद के नतीजे में
मेरी जैसी कोई प्रतिरूप आ गिरती है मेरी झोली में

हाँ कुछ परछाइयां हैं मेरी
'जो शहर तक पहुँची तो हैं'
पर रात हो या दोपहर
शाम हो या सहर वो भी सहमी सी है
फिर भी हर हालत में भिड़ी रहती हैं हालात से..

लेकिन मेरा असल वजूद आज भी
गाँव की, कस्बों की
तंग गलियों में ही सिमटा है
यूं तो पूजाघर की दीवारों पर टंगी तस्वीरों में
मेरे हाथों में तीर है.. तलवार है.. त्रिशूल है
पर हकीकत में
सिर्फ बेलन है चिमटा है

सच है कि शायद डंके की चोट पर मैं कह न पाऊं
कानाफूसी से सही पर हर कान तक अपनी बात पहुंचाऊँगी
कि मैं नारी हूँ .. पर हारी नहीं हूँ
सिर्फ और सिर्फ दर्द की अधिकारी नहीं हूँ 
 दीपक 'मशाल'

रविवार, 27 जून 2010

खुराफाती मीडिया----------------->>>दीपक 'मशाल'


मीडिया जिसका नाम है, वो है तो एक खुराफाती जीव ही.. चाहे वो भारत का हो या वहाँ से बाहर का. आज मैं बात करना चाहता हूँ यहाँ यू.के. की पत्रिकाओं के बारे में.. एक बात जो मुझे यहाँ की लगभग हर पत्रिका के साथ दिखी सो आप सबको भी बताना चाहता हूँ.. आप चाहे 'हैलो' पत्रिका उठा लें चाहे, 'लुक' या 'हाय', 'ओके', 'न्यू' या 'नाओ'.. सभी जगह जो भी आलेख होते हैं वो सिर्फ चंद बातों के आस-पास घूमते रहते हैं..
हरबार बातें वही ८-१० होती हैं हाँ जो बदल जाते हैं वो हैं सिर्फ सेलेब्रिटी चेहरे.. वैसे  वो लोग भी १०-१२ ही हैं जिनके बारे में बात होती है.. हर बार या तो गप्प वही रहती है इंसान बदल जाता है या फिर इंसान वही रहता है गप्प बदल जाती है.. बेचारे लोगों को यही पढ़ाते रहते हैं कि इस बार फलां-फलां ने पिछले साल से इतना-इतना वजन कम कर लिया.. इतना-इतना बढ़ा लिया.. उसका बॉयफ्रैंड छोड़ गया उसकी गर्लफ्रैंड छोड़ गई.. उसकी अंगुली में अब इंगेजमेंट रिंग नहीं.. उसकी में है.. आजकल वो सिर्फ कार्ब खा रहा/रही है.. वो सिर्फ पत्ते वाला भोजन ले रही है.. और वो प्रोटीन ज्यादा ले रहा है.. किसने वैसी ड्रेस पहनी जो महीने भर पहले किसी और ने पहनी थी और किसने सैंडिल... किसने बच्चे को गोद लिया किसने नया घर लिया, कौन अपने बोय्फ्रैंड/ गर्लफ्रैंड से झगड़ कर या तलाक लेकर नए घर में रहने चला गया.. कौन तन्हा रहना चाह रहा या रही है.. कौन माँ बनने वाली है, कौन बाप? कौन बन चुकी/चुका है किसका पेट कितना बड़ा है और गर्भवती सेलिब्रिटी कैसी लग रही है इन सब बातों का बाकायदा सचित्र वर्णन या तुलना होती है.. लगता है यहाँ तभी एम.डी.एच. का चंकी चाट मसाला या कोई चटपटा मसाला नहीं खाया जाता क्योंकि मीडिया महान खुद ही इतने चटपटे व्यंजन परोसता रहता है..
इस सबसे इतर वहाँ भारत में भी असंवेदनशील मीडिया का एक चेहरा देखने को मिल रहा है जहाँ एक मॉडल की मौत को कभी फ़िल्मी कहानी से जोड़ा जा रहा है तो कभी किसी और की मौत से..उसकी मौत का तमाशा बनाया जा रहा है.. इससे तो लगता है कि मीडिया परसन होने की पहली शर्त ही यही है कि दिल नाम के बकवास अंग को निकाल फेंको..
दीपक 'मशाल'

शुक्रवार, 18 जून 2010

मेरी किस्मत कहाँ ऐसी--------------->>>दीपक 'मशाल'




कोई इक खूबसूरत, गुनगुनाता गीत बन जाऊँ,
मेरी किस्मत कहाँ ऐसी, कि तेरा मीत बन जाऊँ.


तेरे न मुस्कुराने से, यहाँ खामोश है महफ़िल,
मेरी वीरान है फितरत, मैं कैसे प्रीत बन जाऊँ.

तेरे आने से आती है, ईद मेरी औ दीवाली,
तेरी दीवाली का मैं भी, कोई एक दीप बन जाऊँ.

लहू-ए-जिस्म का इक-इक, क़तरा तेरा है अब,
सिर्फ इतनी रज़ा दे दे, मैं तुझपे जीत बन जाऊँ.

नाम मेरा भी शामिल हो, जो चर्चा इश्क का आये,
जो सदियों तक जहाँ माने, मैं ऐसी रीत बन जाऊँ.

मुझसे देखे नहीं जाते, तेरे झुलसे हुए आँसू,
मेरी फरियाद है मौला, मैं मौसम शीत बन जाऊँ.


कहाँ जाये खफा होके, 'मशाल' तेरे आँगन से,
कोई ऐसी दवा दे दे, कि बस अतीत बन जाऊँ.
दीपक 'मशाल'
चित्र साभार गूगल से 

बुधवार, 16 जून 2010

दो खुशखबरियां, सिगरेट छोड़ने के नुस्खे के साथ--------------->>>दीपक 'मशाल'

चलिए आज आपको २ समाचार सुनाता हूँ.
पहली तो खुशखबरी है कि अंतर्राष्ट्रीय चिकित्सा समुदाय का आयुर्वेद में विश्वास बढ़ता ही जा रहा है.. खुद ही देख लीजिये, 'हाथ कंगन को आरसी क्या??(चित्र पर चटका लगा बड़ा कर देखें..)

अब बढ़ते हैं दूसरे समाचार की तरफ जिसमे की आपकी वर्षों पुरानी परेशानी का हल ले के आया हूँ...
'तो अबकी बार जब आपके घर कोई मेहमान आये और ''क्या लेंगे''? पूछने पर जवाब मिले की ''कुछ नहीं..'' तो अंततः आपके लिए अब कुछ नहीं बाज़ार में उपलब्ध है..' चित्रों को बड़ा कर एक नज़र डालियेगा... :) (ये दोनों समाचार एक सार्वजनिक ई पत्र से लिए गए हैं..) आप यहाँ भी देख सकते हैं- http://www.kuchhnai.com/where.htm


अब अंत में कि अगर आपको सिगरेट की आदत पड़ जाए और लगे कि ये छूटती नहीं तो ये प्रेरक प्रसंग बांचें(वैसे ये एक टिप्पणी दी थी समीर जी की पोस्ट पर लेकिन उनका आदेश था कि इसे पोस्ट बनाया जाए)....

एक पहुंचे हुए महात्मा के पास एक हताश-निराश व्यक्ति पहुँचता है और उनसे कहता है कि 'महात्मा जी, मैं बहुत परेशानी में हूँ.. कई सालों से सिगरेट पीने की बुरी लत लगी हुई है.. वैसे मुझे इसके सारे दुष्प्रभावों के बारे में पता है और कई बार इसे छुड़ाने की बहुत कोशिश की पर ये आदत है कि मुझे छोडती ही नहीं.' 
इतना कह कर वो खामोश हो गया और महात्मा जी की तरफ बड़ी उम्मीद से देखने लगा.
महात्मा बहुत सिद्ध पुरुष थे और बड़ी से बड़ी समस्या का हल चुटकियों में निकाल देते थे लेकिन उन्होंने धैर्य पूर्वक बात सुनने के बाद उस व्यक्ति से सुबह ५ बजे उनके पास आने के लिए कहा..
वो व्यक्ति कुछ समझा नहीं लेकिन जैसा कि महात्मा जी ने कहा था वैसे ही अगले दिन सुबह ५ बजे उनके समक्ष उपस्थित हो गया.
महात्मा जी ने कहा कि 'भाई सुबह का वक़्त है चलो नज़दीक के बगीचे में टहल कर आते हैं..'
अब उन सज्जन को अपनी समस्या का हल जो चाहिए था तो जैसे महात्मा जी ने कहा वैसे वो करते गए..
बगीचे में दोनों काफी देर तक चुपचाप टहलते रहे.. जब वापस लौटने का वक़्त हुआ तो अचानक महात्मा जी ने एक पेड़ की डाल को जोर से पकड़ लिया और लगे चिल्लाने कि 'बचाओ.. बचाओ..'
अब वो व्यक्ति देख परेशान हो गया मगर फिर भी उनके हाथ पकड़ कर डाल को छुड़ाने लगा..
व्यक्ति जितनी छुडाने की कोशिश करता महात्मा जी उतनी ही जोर से डाल को और कस के पकड़ लेते..
जब काफी देर हो गई तो उस व्यक्ति ने कोशिश करनी बंद कर दी और महात्मा जी पर झल्लाते हुए बोला, 'अजीब आदमी हैं आप खुद तो डाल छोड़ नहीं रहे और दुनिया भर का शोर मचा रहे हैं.. भला ये डाल भी किसी को पकड़ सकती है क्या?'
महात्मा जी ने मुस्कुराते हुए तुरंत डाल को छोड़ दिया और कहा, ' यही बात तो मेरे समझ में नहीं आ रही कि सिगरेट किसी को कैसे पकड़ सकती है.. ये सिगरेट तुम्हें नहीं छोड़ना चाहती या तुम सिगरेट को?'
कहने की जरूरत नहीं कि दृढ निश्चय से कुछ ही दिन में उन महाशय की सिगरेट की लत छूट गई.
दीपक 'मशाल' 

सोमवार, 14 जून 2010

पहली बार दारु.. मैगी, सुट्टे के बाद(झाँसी के किस्से... हास्य से)--------->>>दीपक 'मशाल'

अब जब मैगी और सुट्टे के प्रथम पान की कथा आपसे बिन पूछे ही कह सुनाई तो सोचता हूँ कि मदिरापान पुराण क्यों छोड़ा जाए??? वैसे भी इस मामले में मैं मोतीलाल नेहरु जी को ठीक मानता हूँ कि जब गांधी जी ने उनसे एक बार कहा कि, ''मोती तुम्हे अगर पीना ही है तो घर के अन्दर पियो, इस तरह महफ़िलों में लोगों के सामने पीयोगे तो तुम्हारे बारे में लोग क्या राय कायम करेंगे?''
तो पंडित मोतीलाल नेहरु जी का जवाब था, ''बापू, मैं जिस दिन पीना बंद करूंगा तो कहीं नहीं पियूंगा.. और जब तक पियूंगा तब तक सबको बता के पियूंगा.. मुझसे दिखावा नहीं होता..''..
और वैसे भी किसी शायर ने क्या खूब ही कहा है कि, 'पाल ले इक रोग नादाँ.. ज़िंदगी के वास्ते.. सिर्फ सेहत के सहारे ज़िंदगी कटती नहीं.'
तो एक दिन की बात है मैं किसी बात को लेकर जरा ज्यादा ही ग़मगीन था.. मेरे गोरखपुरी अजीजों से देखा न गया और लगे पूछने कि 'भाई बता बात क्या है?' पर मैं था कुछ अंतर्मुखी सा और फिर आपसे कोई कुछ भाव देकर पूछ रहा हो तो मनौवा लेने का मज़ा भी एक अलग ही सुख देता है. बढ़ते-बढ़ते बात यहाँ तक पहुँच गयी कि उनमे से एक भाई बोले कि 'बोल के तो तुम रहोगे.. चाहे कुछ भी हो जाये'
मैं भी अड़ गया कि 'नहीं बोलूँगा'.. कई नुस्खे आजमाए गए.. मार सेंटी-वेंटी बातां हुईं.. आखिर में शर्त लगी कि उनकी पिलाई शराब मुझे मेरे दिल का गम लोगों को बताने पर मजबूर कर देगी(सुधि पाठकों को सनद रहे कि इससे पहले तक ये शुभ हरकतें मेरी नज़र में पाप की श्रेणी में आती थीं.. ठीक वैसे ही जैसे 'झूठ बोलना पाप है, नदी किनारे सांप है').. मैंने वो भी आजमाने की हामी भर दी. पर दारु खरीदनी/पिलानी उन्हें थी, मुझे सिर्फ गटकनी थी. तो मेरे २ गोरखपुरी अज़ीज़ भाई और एक मैं एक सुनसान से ढाबे पर पहुंचे.. बाकायदा एक टेबल पर ३ कांच के सस्ते से गिलास, बर्फ, स्टील की तश्तरी में प्याज-निम्बू-मिर्ची-खीरे का सलाद सजाया गया, मूंगफली के चिरपिरे-चटपटे बेसन कोटेड दाने लाये गए(कुल मिलाके मुझ नए-नवेले पियक्कड़ के लिए वैसे ही इंतजामात थे जैसे नयी नवेली दुल्हन के लिए होते हैं). अब बस व्हिस्की का खम्बा खोला गया(वैसे ये खम्बा नाम से भी मैं पहली बार परिचित हुआ था.. खम्बे के चित्र के दर्शन के लिए कृपया ऊपर जाएँ..).. दौर चला.. चलता गया. वो दोनों महाशय माहौल को मयमय बनाने के लिए सिगरेट के लच्छे बना रहे थे... और मैं निष्क्रिय धूम्रपान कर रहा था क्योंकि तब तक मैं इस सक्रिय सुट्टापान कला से विरक्त हो चुका था.
अब हर २ पैग बाद मुझे टटोला जाता कि पट्ठा कितने पानी में उतर गया..
दोनों पूछते,''अब बता दे साले क्या हुआ? घर में कोई टेंशन है?''
मैंने कहा ''ऊँहूँ''.. अगला सवाल- ''महबूबा से झगड़ा हुआ?''
जवाब दिया, ''ना''
''पैसे की जरूरत है?''
अबकी सर हिला के जता दिया कि ना.
कोई नहीं फिर २ दौर चले.. और फिर एक सवाल- ''घर की याद आ रही है?''
''क्क्च'' गाल अन्दर से घुमाकर मोड़ा और अजीब सी आवाज़ निकलते हुए नकारात्मक उत्तर उन्हें फिर थमा दिया.
ऐसे-ऐसे होते-होते तीन-सवा तीन घंटे में २ खम्बे और १ अद्धा तीन लोगों ने फिनिश कर दिए और जानबूझकर ज्यादातर मुझे ही पिलाई गयी कि ये गम बताएगा अपना.. पर मैं कनखजूरा चुपचाप रह कर ही गम-गलत करने के मूड में था.
आखिरकार दोनों ने मुझे गरियाना शुरू किया कि ''इतनी दारू पी गया और बता कुछ रहा नहीं है, अब हमें आधे महीने आधे पेट दिन काटने पड़ेंगे कमीने'' 
बस अब वापस चलने को हुए तो तीनों की ही हालत स्प्रिंग वाले बन्दर की सी हो रही थी(आप चाहें तो अपनी समझ के कुत्ते दौड़ा इसे ब्रेकडांसर की सी हालत भी कह सकते हैं.. खैर विकल्पों पर न जाएँ अपनी अकल लगायें).. सोचा चलो ऑटो करते हैं.. बस स्टैंड से मेडिकल जाने वाले रास्ते के बीच में यूनिवर्सिटी पड़ती थी और हम लोग स्टैंड और यूनिवर्सिटी के बीच में ही कहीं थे.. पर खुद को होश नहीं आ रहा था कि दादा लोग थे कहाँ?
मेनरोड पर आकर एक ऑटो(विक्रम) रोका गया.. अब उसमे अन्दर झांक कर देखा तो ३-४ लड़कियां पहले ही विराजमान थीं.. सो संस्कारों के वशीभूत होकर मैंने बाकी के दोनों साथियों से कहा कि, ''भाई इसे जाने दो दूसरा ऑटो रोकेंगे.. इसमें लड़कियां हैं''
पर कहते हैं न कि 'जो मजबूत नहीं वो पहिये की धुरी क्या... जो आराम से मान जाये वो गोरखपुरी क्या??'(वैसे आपने इससे पहले ये सुना हो इसकी गुंजाइश मुझे तो नहीं लगती.. क्योंकि इस लोकोक्ति की प्रसूति अभी-अभी मेरे द्वारा ही हुई है..)
तो भाई को नहीं मानना था सो नईं माने.. उल्टा उस बेचारे ऑटो वाले की मातृशक्ति एवं भगिनीशक्ति को अपमान से विभूषित और उसे अविचलित करने वाली उपमाओं से नवाजने लगे और जा बैठे सबको ठेलते हुए ऑटो के अन्दर.. हमारा अन्दर घुसना था कि प्लांक सिद्धांत को सही ठहराते हुए हम तीन दिग्गजों के आयतन के अन्दर जाते ही उसी अनुपात में तीन बेबस, बेचारी, मासूम, शरीफ लड़कियों का आयतन चुपचाप ऑटो से कम हो गया.. वो बाहर आकर ऑटो वाले से बाकी के पैसे लेकर किसी नए साधन का इंतज़ार करने लगीं..
हम अपने गंतव्य पर पहुंचे और शान से ३ के बजाये १ रुपये देकर उतर लिए.. अब एक तो यूनिवर्सिटी के लड़के ऊपर से सुरा का प्रताप कि वो वाहन चालक कुछ नहीं बोला(वैसे ये तय है कि उसने पीठ पीछे जी भर के गालियाँ दी होंगीं).
थोड़ा आगे चले तो शर्मा पी.सी.ओ. था.. बस मैं बिदक गया कि एक कॉल करके आता हूँ.. एक जगह(कहाँ का नंबर लगाया ये नहीं बताऊंगा) कॉल किया पर भेद खुलने के डर से ज्यादा बात नहीं की, अब ज्यों ही मैं फोन रखने वाला था कि दोनों में से एक मदहोश साथी मेरे पास आये और बोले,''मैं भी बात करूंगा'' किसी तरह मैंने समझाया कि ''देख तेरे मुंह से बहुत बदबू आ रही है.. दूसरी तरफ जो लाइन पर है वो सूंघ के समझ जाएगा/जायेगी'' मद्यदेवी का कमाल देखिये कि बंदा तुरंत मान गया और बोला, ''कोई नईं तो हम सुबह बात करेंगे''.. उसके बाद नवाबी में अपने खाते में पैसे लिखाये और चल दिए अपने-अपने कमरे की तरफ.. उनका तो पता नहीं कैसे कहाँ पहुंचे पर मैं उस ईद वाले दिन अपने कमरे पर सकुशल पहुँच गया.
लेकिन बिस्तर पर बैठा ही था कि जाने कहाँ बिस्तर, जाने कहाँ फर्श, जाने कहाँ छत और कहाँ दीवारें.. कुछ न पता जी. बस सीधा लहरा के बिस्तर पे धम्म.. ठीक वैसे-जैसे मैराथन जीतने के बाद खिलाड़ी ज़मीन पर गिरता है... अब हर पांच मिनट में पलंग के नीचे घूमती दुनिया देखने के लिए झांकते और सब खाया-पिया बाहर कर देते, रामजाने कित्ती देर ये सिलसिला चला होगा. वो तो भला हो एक अन्य गोरखपुरी मित्र का जो किसी काम से कमरे पर आये और आके प्रत्यक्ष नरक के भोगी बने. फिर वो विभिन्न गंधों से महकते कमरे को कब धो गए, कब मुझे पनाले पर ले जाके  सामान्य किया कुच्छ न पता चला.. जाना तो बस सीधा अगले दिन जब वो अज़ीज़ अपना-अपना हैंगओवर(ये बड़ा ही शुद्ध साहित्यिक शब्द है जिससे पियक्कड़ बन्धु अच्छे से वाकिफ होंगे) उतार कर आये जिनके साथ हम हमप्याला हुए थे.. और मेरी मकान मालकिन ने उन्हें जी भर के गालियाँ दीं कि ''शरीफ लड़के की क्या दशा कर दी? कितनी शराब पिला दी.. पीना सिखा रहे हैं.. बिगाड़ रहे हैं..भागो यहाँ से. खबरदार जो कभी इस बच्चे के आसपास भी दिखाई दिए तो.''
अब मैं भी नवाज़ शरीफ बन गया.. कैसे कहता कि मैं भी महज़ जूनियर कलाकार नहीं था इस कलाकारी में..
अब जब भी कभी कहीं पार्टी में या किसी के साथ चीयर्स बोल रहे होते हैं तो वो पीने का उद्घाटन जरूर याद करते हैं और साथ ही तय कर लेते हैं कि कितना पीना है..( वैसे मैं रोज या हफ्ते वाला नहीं भाई.. इस तरह के महासम्मेलन द्विमासिक या त्रिमासिक ही होते हैं और अब ज्यादातर बीयर से ही काम चला लिया जाता है..)
और आखिर में अगर शराब, सिगरेट छुड़ाने की मुफ्त तकनीक चाहिए हो तो अगली पोस्ट में बता दूंगा जो आपकी आज्ञा हो तो..
अब मेरी पसंद के दो चिट्ठे-
पंकज उपाध्याय http://pupadhyay.blogspot.com/
शरद कोकास http://kavikokas.blogspot.com/2010/06/blog-post.html
दीपक 'मशाल'
चित्र गूगल बाबा की किरपा से...

शनिवार, 12 जून 2010

पहली बार मैगी.. पहली बार सुट्टा (झांसी के किस्से.. हास्य से)--------------->>>दीपक 'मशाल'

ये तो आपको पता ही होगा कि भोजन के आधार पर मनुष्य को सामान्यरूप से दो प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है... एक शाकाहारी और दूसरा माँसाहारी वर्ग, लेकिन जो लोग संविधान, न्याय और कानून में भरोसा करते हैं उनके लिए एक और वर्ग अंडाहारी भी मान्य है.. किन्तु-परन्तु-अगर-मगर भाईसाहब बीते कुछ सालों से एक नया वर्ग बड़ी तेज़ी से उभरकर सामने आया है और वो है भी ऐसा लुभावना वर्ग जिसकी तरफ अन्य वर्गों के सदस्य बिना खरीद-फरोख्त के सरकार को समर्थन देने वाले सांसदों(जो कि प्राकृतिक रूप से असंभव प्रक्रिया/घटना है इसलिए इस वाक्य पर ज्यादा मगज़मारी न करें) की तरह खिंचते ही चले आ रहे है.. 
आप घर से  किसी दूसरे शहर में पढ़ने, नौकरी करने, कुछ सीखने के लिए निकले नहीं कि हो गए उस वर्ग के आहारी.. या उस वर्ग के शिकार.... जी-जी-जी वो वर्ग है मैगीहारी वर्ग.
हाँ हाँ वही वाला मैगी जिसके तारीफ के पुल हम बचपन से ''मम्मी भूख लगी....... दो मिनट रुक सकते हैं.. सर के बल रह सकते हैं.. मैगी-मैगी-मैगी'' के उद्घोष के साथ सुनते आ रहे हैं. एक बात बताऊँ? कभी मैं इस मैगी को लेकर खुद को बड़ा ही स्तरहीन समझा था कि 'साला इत्ता बड़ा हो गया अभी तक मैंने मैगी नहीं खाई'.. १९९२ की बात है जब मैंने इस सुपाच्य आहार को कभी चखा तक नहीं था, पर इसका विज्ञापन जब भी आता तो उन टेढ़ी-मेढ़ी, रेशमी सेवईयों के लच्छों को देख मुंह में पानी भर आता. 
एक दिन हुआ क्या कि मेरा एक दोस्त स्कूल में बड़े गर्व मिश्रित स्वर में बोला ''पता है आज मैं फिर मैगी ले के आया हूँ''.. मैं बेचारा पराठा निगलने वाला जीव उससे जाने किस रौ में पूछ बैठा, ''मुझे चखायेगा?'' उसने अहसान सा जताते हुए मुझे इंटरवल में अपना टिफिन खोल के दिया तो बड़े खुश होके मैंने जैसे ही पहली चम्मच भर के अपने मुंह में उड़ेली कि अजीब सी वमन टाइप फीलिंग हुई.. कारण कि सुबह ६ बजे बनी मैगी मैं दोपहर ११ बजे निगल रहा था, पहली बार में इस अतिप्रभावी खाद्यपदार्थ ने मेरा मोह भंग कर दिया. (इस तरह यह बन्दा जीवन में पहली बार मैगियातत्व को प्राप्त हुआ)
बस फिर कई सालों तक मैगी नहीं खाई... एकबार मेरी बहना ने जब मैगी में प्याज-मिर्चा-टमाटर-अदरक डाल कर गरमागरम परोसा तब जाकर इसका असली जायका समझ में आया और बस तबसे जब भी कुछ खाने को नहीं होता तो मैगी होता है न!!!!.. कोंच से निकल कर फिर उरई, झाँसी, लखनऊ, जबलपुर, दिल्ली, यू.के. तक के सफ़र में हमेशा हमसफ़र रही मैगी.
अब आते हैं उन आदतों की तरफ जिन्हें एक तबका बुरा कहता है तो दूसरा जीवन-शैली.. जैसे कि सुट्टापान(धूम्रपान का सबसे प्रचलित प्रकार याने सिगरेट).. तो बताते हुए कोई शर्म नहीं आ रही(बेशर्म हो गया हूँ.. क्या करूँ?) कि जब मैंने झांसी में परास्नातक में प्रवेश लिया तो पहली बार गोरखियों(गोरखपुर निवासी) से पाला पड़ा.. जहाँ ये सब राजसी शौक माने जाते हैं.. अब ये देखिये कि इतने लोग गोरखपुर क्षेत्र से थे कि मेरे रूममेट, क्लासमेट, बैचमेट, मोहल्लामेट सब गोरखपुरी.. लगता था पूरा झाँसी ही गुरखामय हो गया.. जो भी हो.. थे मेरे बड़े अज़ीज़ दोस्त(हमप्याला-हमनिवाला वाले), दो-चार ऐब तो सभी में होते हैं पर देखा जाए तो दिल के सभी अच्छे और सच्चे थे.. या यूं कहें कि दिल के सभी अच्छे और सच्चे थे पर क्या है कि दो-चार ऐब तो सभी में होते हैं(जो भी ज्यादा प्रभावी लगे आप वही बांचियेगा).. 
तो जो हमारे सबसे तगड़े मित्र थे(तगड़े इन द सेन्स... वैरी मच सिमिलर टू माय पर्सनैलिटी एंड आइडियाज) उन्हें एक शौक चढ़ा था कि सुट्टेबाजों के समुदाय को बड़ा किया जाए... शुरू में मैंने ना-नुकुर तो की लेकिन जल्द ही उनके रंग में रंग गया और उनके कहने पर उन्ही के पैसों पर एक महीने तक जम के सिगरेट पी.. हो ना हो उन कड़की के दिनों में भी रोज के ५-६ सुट्टे तो पी ही जाता था मुफ्त के.. ये बात और है कि कभी इस सब में कोई सवाद ना मिला और एक महीना होते होते मोहभंग भी होने लगा.. ऐसे में इस मोहभंग रूपी कोढ़ में खाज कर दिया उन भाई ने.. इस तरह से कि एक दिन लगे कहने कि, ''भाई मैं एक महीने से तुम्हें पिला रहा हूँ आज तुम्हारी बारी है..''
बस जाने वो मोहभंग था या उनकी बात नागवार गुज़री कि मैंने बोल दिया,'' देख भाई तुम एक महीने में भी मुझे आदत ना डाल पाए और इसे पीते हुए ३० दिन गुजरने के बाद भी मुझे समझ नहीं आता कि लोग इसे पीते क्यों हैं.. सिवाय मुंह कड़वा करने के ये करता क्या है सुट्टा तुम्हारा?''  भाई वो सब मुझे ऐसे देखने लगे जैसे हफ्ते भर से भूखे शेर ने मांस खाने से इंकार कर दिया हो..
''स्स्साला हम समझते रहे कि ढाई रुपये में किसी का लौंडा बिगड़ रहा है तो अपने बाप का क्या जाता है(उस समय विल्स नेवीकट इतने में ही आती थी).. कल को लत पड़ेगी तो हमें भी पिलाएगा. पर यहाँ तो हमें ही चूना लगा दिए.'' प्यार मिश्रित गुस्से में जनाब बोल पड़े..
मैंने समझाया, '' देख भाई, जो चीज मुझे पसंद नहीं और जिसको पीने का कोई फ़ायदा नहीं वो तो मैं नहीं पिला सकता.. हाँ अगर श्याम(एक चायवाले भाई जी) के यहाँ चाय और ब्रेडपकोड़े खाने हों तो अभी चलो..''
बस सभी 'दुश्मन' फिल्म के आशुतोष राणा की स्टाइल में बोले' ''जो मिले सो अच्छा'' और इस तरह ये बुरी आदत(मेरे हिसाब से) पड़ कर भी नहीं पड़ी... :)
अगली बार सुनाते हैं पहली बार शराब पीने का किस्सा जो इससे भी ज्यादा रोचक है... सुनना चाहें अगर तो...
दीपक 'मशाल'
चित्र गूगल से मारे हैं..आभार बोल देते हैं भाई.. अब ठीक?


मंगलवार, 8 जून 2010

कीमत(लघुकथा)------------------------>>>दीपक 'मशाल'

रमा के मामा रमेश के घर में कदम रखते ही रमा के पिताजी को लगा कि जैसे उनकी सारी समस्याओं का निराकरण हो गया.
रमेश फ्रेश होने के पश्चात, चाय की चुस्कियां लेने अपने जीजाजी के साथ कमरे के बाहर बरामदे में आ गया. ठंडी हवा चल रही थी.. जिससे शाम का मज़ा दोगुना हो गया. पश्चिम में सूर्य उनींदा सा बिस्तर में घुसने कि तैयारी में लगा था.. कि चुस्कियों के बीच में ही जीजाजी ने अपने आपातकालीन संकट का कालीन खोल दिया-

''यार रमेश, अब तो तुम ही एकमात्र सहारा हो, मैं तो हर तरफ से हताश हो चुका हूँ.''

मगर जीजाजी की बात ने जैसे रमेश की चाय में करेले का रस घोल दिया, उसे महसूस हुआ की उस पर अभी बिन मौसम बरसात होने वाली है.. लेकिन बखूबी अपने मनोभावों को छुपाते हुए उसने कहा-

''मगर जीजाजी, हुआ क्या है?''

''अरे होना क्या है, वही पुराना रगडा... तीन साल हो गए रमा के लिए घर तलाशते हुए. अभी वो ग्वालियर वाले शर्मा जी के यहाँ तो हमने रिश्ता पक्का ही समझा था मगर..... उन्होंने ये कह के टाल दिया की लड़की कम से कम पोस्ट ग्रेज़ुएट तो चाहिए ही चाहिए. उससे पहिले जो कानपूर वाले मिश्रा जी के यहाँ आस लगाई तो उन्होंने सांवले रंग की दुहाई देके बात आई गई कर दी.''

''वैसे ये लड़के करते क्या थे जीजा जी?''

''अरे वो शर्मा जी का लड़का तो इंजीनिअर था किसी प्राइवेट कंपनी में और उनका मिश्रा जी का बैंक में क्लर्क..'' लम्बी सांस लेते हुए रमा के पिताजी बोले.

''आप कितने घर देख चुके हैं अभी तक बिटिया के लिए?'' रमेश ने पड़ताल करते हुए पूछा.

''वही कोई १०-१२ घर तो देख ही चुके हैं बीते ३ सालों में'' जवाब मिला.

'' वैसे जीजा जी आप बुरा ना मानें तो एक बात पूछूं?'' रमेश ने एक कुशल विश्लेषक की तरह तह तक जाने की कोशिश प्रारंभ कर दी.

''हाँ-हाँ जरूर''

''आप लेन-देन का क्या हिसाब रखना चाहते हैं? कहीं हलके फुल्के में तो नहीं निपटाना चाहते?'' सकुचाते हुए रमेश बोला.

''नहीं यार १६-१७ लाख तक दे देंगे पर कोई मिले तो..'' जवाब में थोड़ा गर्व मिश्रित था.

रमेश अचानक चहका-
''अरे इतने में तो कोई भी भले घर का बेहतरीन लड़का फंस जायेगा, जबलपुर में वही मेरे पड़ोस वाले दुबे जी हैं ना, उनका लड़का भी तो पिछले महीने ऍम.डी. कर के लौटा है रूस से... उन्हें भी ऐसे घर की तलाश है जो उनके लड़के की अच्छी कीमत दे सके.''

रमा के पिताजी को लगा जैसे ज़माने भर का बोझ उनके कन्धों से उतर गया..
मगर परदे के पीछे खड़ी रमा को इस बात ने सोचने पे मजबूर कर दिया कि यह उसकी खुशियों की कीमत है या उसके होने वाले पति की????

दीपक 'मशाल'
चित्र सभार गूगल से..

शनिवार, 5 जून 2010

''चोर कहीं का..''(लघुकथा)----------------------------------->>> दीपक 'मशाल'

''कल तो किसी तरह बच गया लेकिन आज? आज कैसे बच पाऊँगा पिटाई से, जब घर पर पता चलेगा तो....'' ये सोच-सोच कर सिहरा जा रहा था वो. थोड़ी-थोड़ी देर बाद क्लास के बाहर टंगी घंटी को देखता जाता और फिर चपरासी को.. ठीक ऐसे जैसे जेठ की दोपहर में प्यास से व्याकुल कोई मेमना हाथ में पानी की बाल्टी लिए खड़े अपने मालिक को तके जा रहा हो कि कब वो बाल्टी करीब रखे और बेचारा जानवर अपनी प्यास बुझाये. उसका मन आज पढ़ाई में बिलकुल नहीं लग रहा था जबकि क्लास में वो हमेशा अब्बल रहने वालों में से था. कुछ देर बाद जैसे ही चपरासी मध्यावकाश(इंटरवल) की घंटी बजाने के लिए आता दिखा तो वो खुशी से लगभग चीख उठा, ''इंटरवल्ल्ल्ल ............''
''गौरव!!!!!!!!!!'' अंगरेजी वाले मास्टर जी ने डांट कर उसे चुप कराया. हाँ यही नाम था उसका.
उसे पहली बार पढ़ाई से ध्यान हटाकर इस तरह चिल्लाते देख मास्टर जी और उसके साथियों को तो अजीब लगा ही.. वो खुद भी अपने आप को ऐसे देखने लगा जैसे वो एलियन(बाहरी गृहवासी) में तब्दील हो गया हो. सब अपना-अपना टिफिन लेकर लंच के लिए चले गए.. मगर वो नहीं गया जबकि उसके सबसे ख़ास दोस्त ने उससे कितनी बार चलने के लिए कहा भी.
इंटरवल के बाद सब कुछ वैसा सा ही हुआ जैसे रोज चलता था.. वही मास्टर जी, वही क्लासवर्क, वही होमवर्क और अब वो भी सामान्य सा दिख रहा था रोज की तरह. पर आखिरी क्लास के बाद जब सारे बच्चे अपने-अपने जूते-मोज़े(जुराबें) पहिनने लगे तो उसका एक सहपाठी रोनी सूरत लिए हुए मास्टर जी के पास जाके बोला, ''मास्टर जी, एक हफ्ते पहले ही मेरे पापा ने नए मोज़े दिलवाए थे और मैं आज पहली बार वो पहिन कर आया था लेकिन अभी वो मेरे जूतों में नहीं हैं..''
मास्टर जी ने समझाया, ''नहीं अंकित यहाँ कोई ऐसा काम नहीं कर सकता.. जरा सीट के नीचे देखो शायद किसी के पैर से छिटक कर दूर गिर गए हों..''
''नहीं सर मैंने देख लिया सब जगह'' अंकित ने रोआँसे होते हुए कहा..
''मगर स्कूल ड्रेस के सभी मोज़े एक जैसे होते हैं.. अगर किसी ने लिए होंगे तो तुम पहिचानोगे भी कैसे? क्या कोई निशान लगाया हुआ था उनपर?'' मास्टर जी ने सवाल किया.
''हाँ सर, मैंने सुबह जल्दबाजी में उसपर लगा लेबल नहीं हटाया और उस पर सर्टेक्स लिखा हुआ है..''
''हम्म.. देखो मैं सबसे कह रहा हूँ जिसने भी अंकित के मोज़े लिए हों वो चुपचाप आके यहाँ वापस करदे, मैं उसे कुछ नहीं कहूँगा..'' पर किसी ने भी मास्टर जी की बात का कोई जवाब नहीं दिया..
''ठीक है फिर.. सब लोग एक-एक कर आगे आयें और अपने मोज़े अंकित को दिखाएँ.. जिससे कि वो अपने मोज़े पहिचान सके.'' मास्टर जी ने तमतमाते चेहरे से सबको आदेश दिया.
मगर किसी के मोज़े दिखाने से पहले ही गौरव के सबसे खास दोस्त ने खड़े होकर बताया, ''ये चोरी गौरव ने की है..''
अब सबकी नज़र गौरव की ओर थी जो ये सुनते ही राम बिलईया(एक बरसाती कीड़ा) की तरह अपने आप में दुबक सा गया.
काफी जोर देने पर भी जब वो उन सर्टेक्स के लेबल वाले मोजों के उसके खुद के होने का दावा करता रहा तो गौरव ने फिर कहा, '' 'विद्या कसम' खा के बोलो कि तुमने थोड़ी देर पहले मुझसे ये नहीं कहा था कि 'कल किसी ने मेरे नए मोज़े चुरा लिए थे और मैंने किसी तरह ये बात घर पर छुपा ली क्योंकि बताता तो मार खाता और मेरे पापा के पास इतने पैसे भी नहीं कि मुझे इतनी जल्दी फिर से नए मोज़े दिला सकें.. इसलिए आज मैंने अंकित के मोज़े, जो बिलकुल वैसे ही हैं जैसे मेरे थे, उठा लिए'..'' 
बाकी सब गौरव की चुप्पी ने कह दिया..
''चोर कहीं का..'' मास्टर साहब तो बिना उसे पीटे इतना कह कर चले गए..
लेकिन आज भी उसके स्कूल के 'साथी' उसे यही कह कर बुलाते हैं......  ''चोर कहीं का..''
दीपक 'मशाल'
चित्र गूगल से साभार 

गुरुवार, 3 जून 2010

असली बुद्धिजीवी- नकली बुद्धिजीवी (ज़रा सी मसखरी)------------------>>>दीपक 'मशाल'

बुद्धिजीवी!!! एक ऐसा शब्द जिससे मेरा तब पाला पड़ा जब उसका मतलब समझ में आने लगा था.. असल में है क्या कि मैंने ये महसूसयाया है कि शब्दों का भी ज़िंदगी के सफ़र में पहिचान होने के आधार पर वर्गीकरण कर सकते हैं.. जैसे कि कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनके आप नाम पहले जानते हैं और मतलब बाद में, कुछ ऐसे होते हैं जिनके मतलब पहले जानते हैं और उनसे आमना-सामना बाद में होता है.. बहुतो ऐसे भी होत हैं कि जिनके न ता नाम से मुठभेड़ होती है और न मतलब से लेकिन जिन्हें बेमतलब में आप खुदई ईजाद कर लेते हैं.. अपने हुनर के बल बूते पे. लेकिन अब अगर इहाँ हम इस बेकार के लफड़े में पड़ गए कि इनके उदाहरण कौन-कौन हैं तो   पोस्ट के मूल मुद्दे से भटक जावेंगे और फिर जिस नाम को लेकर ये पोस्ट लिख रहे हैं तनिक उनके सोचवे काजे भी कछू छोड़ दिया जावे..
तो बात हो रही थी बुद्धिजीवी की.. नाम के हिसाब से देखें तो एक ऐसा जीव जिसके पास बुद्धि या बुद्धि का बक्सा या बुद्धि का खजाना हो(जीव क्या इंसान कहो ना यार, अब गाय-भैंस, भेड़-बकरियां  थोड़ेई ना इस गिनती में चलेंगे)........ सिर्फ हो नहीं बल्कि जो उसका उपयोग भी करना जानता हो.. लेकिन ऐसा उपयोग नहीं जैसा आजकल यहाँ छद्म जगत में कुछ लोग कर रहे हैं.... अरे भाई यहाँ उपयोग की बात हो रही है दुरूपयोग की थोड़े ना.. 

अब यूंकी देखने वाली बात ये है कि बाज़ार में बढ़ रही महंगाई के मद्देनज़र हर चीज़ नकली आने लगी तो ये बुद्धिजीवी प्राणी कैसे इससे अछूता रहता. तो असली बुद्धिजीवी के बीच कुछ नकली भी पनप गए. अब जब पनपे तो ऐसे पनपे कि जैसे पार्थेनियम हिस्टीरियोपोरस (एक बहुत तेजी से फैलने वाला खर-पतवार जिसे कांग्रेस घास भी कहते हैं) यानी बाकी की जमी-जमाई फसलों अर्रर्रर मेरा मतलब असली बुद्धिजीवियों को अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल पड़ गया. उफ्फ्फ्फफ्फ़... मैं जाने क्या गच्च-पच्च बोल रहा हूँ .. क्योंकि वो बुद्धिजीवी ही क्या जो अपने अस्तित्व के बारे में सोचने लगे, अगर सच्ची-सच्ची परिभाषा बताऊँ तो असली बुद्धिजीवी है ही वही जिसे कोई परवाह न हो कि कहाँ कौन उसे क्या कह रहा है और क्या कर रहा है.. क्योंकि वो तो पहले ही जीवन का सार जान चुका होता है  और फिर उसे इन थोथे तमगों में कोई इंटरेस्ट भी नहीं रह जाता. 

अब यहाँ मतभेद हों उससे पहले ही मैं नकली और असली बुद्धिजीवी दोनों में भिन्नताएं बतलाये देता हूँ.. तो देखिये जनाब ये जो हम सब दिन-रात जान खपा-खपा कर और ठोड मार-मार कर पोस्टें ब्लॉग पर लाने में लगे हैं ये सब नकली या छद्म बुद्धिजीवीगीरी है(मेरी राय में). अब कहें 'काहे ई बात की गारंटी का है???' तो है का कि हम जब अपनी अक्कल लगा के कौनौऊ पोस्ट लिखने का सोचते हैं तो कहीं न कहीं मन में ससुरा ये ख्याल आ ही जाता है कि कितने चटके, कितने टिप्पणी, कितने पिछलग्गू(अरे वही फोलोवर) आ जावे करेंगे.... और कितना हम इम्प्रेशन झाड लेंगे पब्लिक के ऊपर एक ज़रा सी पोस्ट से... लिखेंगे और फिर नेपोलियन बोनापार्ट की मूर्ती की तरह इठ के, अकड़ के बैठ जायंगे ये दिखाने को कि 'ओ तेरे की मैंने तेरे से कित्ता बेहतर लिख दिया रे.... देख तूने ६ पुराने क्षेत्रीय शब्द ढूंढ के, फेंक के मारे थे पढने वालों को और मैंने पूरे ८ मारे हैं...  अब तो पक्का हो गया मैं तेरे से बेहतर बुद्धिजीवी.. कोई मेरी पोस्ट आसानी से समझ ही नहीं सकता.. जो समझेंगे वो समझेंगे.. जो ना समझेंगे वो बिचारे इस लपेटे में नतमस्तक हो जावेंगे कि ऊंचे लोगों की बातें हम मूरख नहीं समझ सकते.. हम सिद्ध कर देंगे और तब लोग कहवे करेंगे कि 'महाराज बस जेई हैं किरपानिधान और जिनके अलावा अक्कलमंद कोऊ हेई नईयां'..

अब देखा जाए तो अक्कलमंद और अक्कलबंद में लिखने में ज़रा सा फर्क होता है म को ब से फेर दिया तो बेडा गरक ही समझिये..  जब भी अक्कल के घोड़े दौड़ते हैं और बुद्धिजीवी बनने या दिखने के लिए कोई षड़यंत्र रचाते हैं तो बुद्धिजीवी बनने का ख्याल जैसे ही उपजता है कि तैसे ही हम हो जाते हैं नकली बुद्धिजीवी(वैसे सिर्फ नकली कहना बेहतर होगा क्योंकि बुद्धिजीवी समझना न समझना तो पोस्ट पढने वालों की समझ का फेर है).

फिर भी हमारा दिमाग संसार के माया-मोह में पढ़कर बुद्धिजीविता के कीड़े को कुलबुलाने के लिए स्पेस दे ही देता है.. और बस फिर   दिखलाऊ/ नकली/आर्टिफिशियल बुद्धिजीवी बनने के लिए आजीवन प्रयास करने की कसम खा के बैठ जाते हैं और सतत अपनी साधना में बगुला-भगत की तरह लींन रहते हैं एक टंटा पाल कर..... बहुत सारे समझदार तिकड़मबाज़ ये सिद्ध करने में कामयाब भी हो जाते हैं कि वो बुद्धिजीवी हैं.. पर हकीकत में नकली शब्द उपसर्ग बना उसके साथ-साथ चिपका ही रहता है... और जब भी वो अंतर्मन में झांकते हैं तो ये 'नकली' नालायक ''पकड़े रहना......... पकड़े रहना'' की रट लगाये फेविकोल के एड की तरह मुंह चिढ़ाता रहता है....
किया क्या जाए भाई???? है भी यही कि बुद्धिजीविता और दिखावे का न जाने किस जनम का बैर है कि दोनों एक दुसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते.. ३६ का आंकड़ा धरा है दोनों में. जरा पीछे मुड़ के एक बार फिर नज़र तो डालियेगा इस छत्तीस के ३ और ६ पर कैसे इठे जा रहे हैं एक दूसरे से दोनों.. जो ज़रा सा पलटा नईं कि दूसरे की तरह होके मान ही बदल देता है. बिलकुल ऐसे ही अगर दिखावे की तरफ बुद्धिजीविता ने मुंह कर लिया तो नकली बुद्धिजीविता और अगर दिखावे ने दिखवइयापन(दिखावा) छोड़कर बुद्धिजीविता की तरफ मुंह कर लिया तो असली बुद्धिजीविता.....

यही तो संकट है भाई कि हम जीवन भर लाख- करोड़ और अरब की संख्या में कोशिश कर-कर के बुद्धिजीवी बनते रहते हैं और दुनिया को दिखाते रहते हैं पर जब असल बुद्धिजीविता आती है तो फिर न तो इस नवागंतुक बुद्धिजीविता को दुनिया को दिखाते हैं और ना ही ये अहसास बाकी रह जाता है कि हम बुद्धिजीवी हैं..  अर्थात जब यह अहसास ख़त्म हो जाए कि हम कुछ हैं.. बस समझ लीज़िये कि उसी दिन आप बुद्धिजीवी हो गए.
पर देखिये न फिर वही धर्म संकट, वही अज़ब खेल कि बुद्धिजीवी होकर न तो जश्न मना सकते हैं कि बुद्धिजीवी हो गए, न तो फिर किसी से कहने का या जतलाने का मन करता है कि हम बुद्धिजीवी हैं और ना ही अपनी लालबुझक्कड़ोइं दिखा औरों का अंटागफील करने में लगे रहते हैं .  ये तो वही बात हो गयी कि बर्फ उबलने को मचले तो पानी हो जाए और पानी ज़मने को मचले तो बर्फ हो जाये और वाष्प संघनित होने को मचले तो पानी हो जाये.. यानी अगर कुछ बनना है तो हर हाल में अपना अस्तित्व खोना ही खोना है.. तो फिर धरा ही क्या है इस छद्मभेषधारी, महाठगिनी बुद्धिजीवीबाज़ी याने बुद्धिजीविता में.. सबके साथ सबकी तरह रहो ना यार..

दीपक 'मशाल' (अब देखिये यहाँ भी पेल ही दिए अपना नाम ये सिद्ध करने के लिए कि ये नाम बुद्धिजीवी है


देखिये मेरी पसंद के चिट्ठे भी- http://archanachaoji.blogspot.com/
http://rashmiravija.blogspot.com/
चित्र साभार गूगल से 

मंगलवार, 1 जून 2010

आज तुम लटके मिले हो फाँसी पर----------------->>>दीपक 'मशाल'

आज मई माह की हिन्दयुग्म यूनिकवि प्रतियोगिता में चौथा स्थान प्राप्त एक रचना जो कि किसान आत्महत्या पर केन्द्रित है देखिएगा.

बीज
और आज तुम लटके मिले हो फाँसी पर
मगर फिर भी शहीद ना बन पाए

अनगिन ख्वाबों के बीज अनगिनत
तुमने रोपे मेरी आँखों में
और चले गए बिन सींचे ही 
मैंने कई बार सोचा 
भून डालूँ इन बीजों को
अपने गुस्से की आग में

कई बार पूछना चाहा
कब सोना उगलेगी ज़मीन
कब अनाज से भरेंगे खलिहान
कब खिंच पायेगा ग्राफ
हक़ीक़त के सरकारी कागज़ पर
खालीपन से संतृप्तता की तरफ बढ़ता हुआ

अम्मा की कपड़े धोने वाली उस मुगरी से 
जब पहली बार गेंद को पीटा था
तो झन्नाटेदार तमाचा मिला था इनाम तुमसे 
इस कड़े निर्देश में पाग के कि
किसान का बेटा बनेगा सिर्फ किसान
और एकदिन झोंका गया था बल्ले को चूल्हे की आग में
जब जीत के लाया था मैं 
मौजे के सबसे बेहतर बल्लेबाज़ का खिताब

अंकुरित होने से पहले ही 
तुमने कर दी थी गुड़ाई उन बीजों की 
जो सहमे से छिपाए थे खुद में 
अस्तित्व एक उभरते खिलाड़ी का 
फिर उन्हीं में जबरन बो दिए 
जग के अन्नदाता बनने के सपने वाले बीज 
ये समझा के कि बीज ही है आत्मा किसान की
बीज ही है जान इस जहान की.. 

दिन-बा-दिन बारिश बिना लीलती रही ये सूखी ज़मीन
हमारी खाद, हमारी आत्मा 
और हर अगले साल 
पुरानी को छोड़े बगैर पकड़ते गए हम 
क़र्ज़ के काँटों वाली एक नयी डाली

खुशियाँ फिसलती गयीं
कभी अचार के तेल में सनी चम्मच की तरह

कभी गीले हाथ से निकलते साबुन की तरह
ना जाने क्यों लगा था तुम्हें 
हमारे उगाये करोड़ों और अरबों ये दाने

हमें बना देंगे अन्नदाता दुनिया का

क्यों लगा कि वो उपज 
बेहतर होगी किसी खिलाड़ी के बल्ले से उपजे 
चार, पांच या छः छक्कों से 
और बदले में मिल जायेंगे तुम्हें भी
लाखों नहीं तो कुछ हज़ार रुपये ही
जो आयेंगे काम चुकाने को क़र्ज़ 
चलाने को जीवन।

हरक्युलिस की तरह 
कर्जों की धरती का बोझ तुम मुझसे कहे बगैर 
मिरे काँधों पर कर गए स्थानांतरित

और आज तुम लटके मिले हो फाँसी पर
मगर फिर भी शहीद ना बन पाए...
दीपक 'मशाल'
 चित्र गूगल से उठाकर परिवर्तित किया गया 


निवेदन: मेरी पसंद के दो चिट्ठे भी देखें-
http://kishorechoudhary.blogspot.com/2010/05/blog-post.html
http://sadbhawanadarpan.blogspot.com/2010/05/blog-post_31.html

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