रविवार, 2 जनवरी 2011

सब्जियों-दालों की बढ़ती कीमतें सरकारी षड़यंत्र------>>>दीपक 'मशाल'

एक बार फिर से भारत में सब्जियों खासतौर पर प्याज, टमाटर और लहसुन की कीमतें आम आदमी की जेब में छेद करती दिख रही हैं. हालांकि केंद्र सरकार कोशिशों में लगी हुई है कि कीमतों को अर्श से वापस फर्श पर ना सही तो कम से कम टेबल पर तो लाया ही जाए. यदि गंभीरतापूर्वक देखा जाए तो पता चलता है कि ये बढ़ती कीमतें भी सरकार की दूसरी शरारतों का नतीजा हैं. वैसे ही जैसे 'धूम्रपान करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है' कहते हैं फिर भी बेचते ही हैं. 
ये हर व्यक्ति समझता होगा कि पाकिस्तान से प्याज वापस खरीदे जाने के फैसले के अगले दिन ही कीमतों की उछाल ठंडी क्यों पड़ी और अचानक ही वो ८० रुपये के खुदरा मूल्य से ५० के आसपास क्यों फटकने लगीं. माना कि प्राकृतिक आपदाओं के कारण उत्पादन कम होता है लेकिन इतना भी नहीं कि अवाम को सब्जियां-दालें तक खाने के लाले पड़ जाएँ. ये सिर्फ कालाबाजारी का नतीजा है जिसमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से फुटकर विक्रेता, थोक विक्रेता, खाद्यपूर्ति अधिकारी, पुलिस, कृषि मंत्रालय और सरकार सभी का भरपूर सहयोग रहा है. वर्ना बिना इन सबकी आपसी मिली-भगत के ये संभव ही नहीं कि कभी अरहर थाली को छोड़ कर भाग जाए तो कभी प्याज.
देश के सत्ताधारियों को अपने और अपने कारपोरेट मित्रों, जिनके बिना इनकी अंगुलियाँ भी नहीं हिलतीं, के लाभ के लिए हर साल ऐसे छोटे-मोटे प्रयास करते रहने पड़ते हैं. ज्यादा कुछ नहीं बस हर परिवार की जेब से रोज का ५०-१०० रुपये अतिरिक्त खर्च होते हैं. अब अपने प्रतिनिधियों और उद्यमियों की सातवीं पुश्तों तक के ऐश-ओ-आराम को आरक्षित कराने के लिए इतने महान देश की अवाम इतना बलिदान तो कर ही सकती है ना!! 
अब भले ही ये बात व्यंग्य रूप में कही जा रही हो मगर है उतनी ही सत्य जितना ये कि आप ये आलेख पढ़ रहे हैं. वर्ना क्या अगर ये लोग चाहते तो पुलिस मुख्यालय को आदेशित कर २००-३०० प्रतिशत मुनाफा कमाने के चक्कर में ये सब करने वाले मुनाफाखोरों, कालाबाजारी के आकाओं के गोदामों तक नहीं पहुँच सकते थे? क्या कई बार जुर्म के होने से पहले ही उनके होने की जानकारी रखने वाली भारतीय पुलिस के लिए ये पाकिस्तान से तालिबानियों का नामोनिशान मिटाने जैसा असंभव काम था? 
कहीं ना कहीं यह सब शक्तिशाली कुर्सियों पर बैठे विद्वानों और उन कुर्सियों को सम्हालने वाले हाथों द्वारा रचे जा रहे षड़यंत्र का हिस्सा है जिसके तहत दाल, आटे, सब्जियों और फलों की कीमत हर साल अचानक जबरदस्त उछाली जायेगी और फिर थोड़ी सी कम कर दी जायेगी. ऐसा होते-होते २-३ साल में इनकी कीमत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक जैसी हो जायेगी अर्थात अमेरिका और ब्रिटेन के बराबर हो जायेगी, वैसे अभी भी भारत में जो प्याज, अन्य सब्ज़ियाँ और दाल की कीमतें  हैं वह यूरोप या यहाँ यू.के. की कीमतों के लगभग बराबर ही है. इससे होगा ये कि चंद वर्षों बाद सरकार के मित्र उद्योगपति और टेस्को, वालमार्ट, स्पार, मेस जैसी अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियां जो भारत को एक बाज़ार से ज्यादा कुछ नहीं समझतीं, वहाँ दाल-आटा भी मॉल में आकर बेचेंगीं.. जैसे कि रिलायंस ने पहले ही शुरू कर दिया है. अब जब मॉल संस्कृति की चमक से चकाचौंध लोगों को लगने लगेगा कि बनिए की दुकान के और मॉल में मिलने वाली, मानकों पर खरी खाद्य सामग्री, का भाव एक जैसा ही है 'तो कोई वो क्यों ले, ये ना ले?'.
इस तरह बेरोजगारी बढ़े तो बढ़े, फुटकर विक्रेता बर्बाद हों तो हों, नौकरी के अभाव में छोटे-मोटे व्यवसाय करके आजीविका चलाने वाला मध्यम वर्ग भुखमरी के जाल में उलझे ना उलझे मगर सरकार और उसके मित्रों को लाभ तो पहुंचेगा ही ना.
चलिए हम तो चेतने से रहे फिर भी उम्मीद है कि एक दिन क्रान्ति आयेगी और भारत में अक्षरशः लोकतंत्र की पुनर्स्थापना हो सकेगी. आमीन. इसी सन्दर्भ में सुनियेगा महान पाकिस्तानी शायर फैज़ अहमद फैज़ का लिखा और बेगम इकबाल बानो का गाया ये क्रांतिकारी गीत जिसने हजारों नागरिकों को तीन दशक पूर्व वहाँ की सैन्य सरकार की तानाशाही के खिलाफ जगाया था. गौर से सुनेंगे तो जोश में 'जिंदाबाद' के नारे लगाये जा रहे हैं. शर्तिया कुछ क्षणों के लिए ही सही लेकिन इसमें आपमें भी जोश भरने की क्षमता है.



वीडिओ साभार यू-ट्यूब व चित्र गूगल से प्राप्त.
दीपक 'मशाल'

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