गर्भनाल के दिसंबर अंक में प्रकाशित एक लघुकथा 'कृपा'(पेज ५५)
पूरी पत्रिका पढ़ने के लिए देखिएगा- http://issuu.com/dipakmashal/docs/garbhanal_49th.
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कृपा
एक समय था जब बरसात के जाते-जाते मलेरिया के मारे मरीज उनके क्लीनिक के फेरे लगाने लगते थे और वो पूरी ईमानदारी से कम से कम समय में मरीज को ठीक भी कर देते थे... पर चाहे अमीर हो या गरीब सबको समान भाव से देखते हुए ताक़त के सीरप के नाम पर कुछ अनावश्यक दवाएं लिख ही दिया करते थे. उन दवाओं में होता सिर्फ चीनी का इलायची या ओरेंज फ्लेवर्ड घोल. लेकिन ये सब पता किसे था सिवाय खुद उनके, एम.आर. और केमिस्ट के.. उनमें भी केमिस्ट तो घर का आदमी था, रही बात एम.आर. की तो उसे अपनी सेल बढ़ानी थी, अब वो चाहे कैसे भी बढ़े. उस छोटे कस्बे के अल्पशिक्षित लोगों की डॉक्टर में बड़ी आस्था थी, डॉक्टर सा'ब के मरीज को छू लेने भर से आधी बीमारी ठीक हो जाती थी.
लेकिन अभी कुछ सालों से लोग कुछ ज्यादा ही चतुर हो गए थे... उधर एक लम्बे अरसे से किसी बीमारी ने इधर का रुख भी तो नहीं किया था, धंधा मंदा हो चला था और अब डॉक्टर सा'ब खुद ही मरीजों की तरह लगने लगे थे.
पर इस बार लगता है सावन-भादों-वसंत सब एक साथ आ गए. मच्छरों ने डॉक्टर का आर्तनाद सुन लिया शायद. तभी तो दोनों शिफ्टों में बीमारियाँ फैलाने लगे. दिन वाले मच्छर डेंगू और रात वाले मलेरिया.
डॉक्टर सा'ब आजकल बहुत खुश हैं , उनके साथी.. केमिस्ट, एम.आर. सब फिर से काफी व्यस्त हो गए.
मैं भी कल ज़रा हरारत महसूस कर रहा था तो मजबूरन उनके मोबाइल पर फोन लगाना पड़ गया..
नंबर मिलते ही डॉक्टर सा'ब की कॉलर टोन सुनाई पड़ने लगी- ''मेरा आपकी कृपा से सब काम हो रहा है... करते हो तुम....''
इधर मेरे दूसरे कान के पास एक मच्छर मस्ती में अपनी तान छेड़े हुए था.
दीपक मशाल
साथ में मेरी पसंद- http://objectionmelord.blogspot.com/2011/02/blog-post_13.html?showComment=1297724498229#c3162034556731430027
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