मंगलवार, 30 मार्च 2010

आज मुनईयाँ के ससुरे सें चिट्ठी आई है------->>>मशाल

साहित्यप्रेमियों के सामने एक बुन्देलखंडी गीत प्रदर्शित कर रहा हूँ.. जो कि एक लडकी जो अपने ससुराल में है और कई दिनों तक अपने मायके(पीहर) से कोई खोज-खबर ना लिए जाने पर कुछ दुखी है को ध्यान में रख कर लिखी गई सी लगती है, गीतकार हैं मेरे साहित्यिक गुरु श्री वैदेही शरण लोहकर 'जोगी' जी
मेरा मानना है कि यदि हमें हिंदी को समृद्ध करना है तो क्षेत्रीय भाषायों को भी जीवित करना होगा और उन्हें साहित्य की मुख्यधारा से जोड़ना होगा.. आपका क्या ख्याल है???--

आज मुनईयाँ के ससुरे सें चिट्ठी आई है
उए बांच कें जी उमगो.. छाती भर आई है..
(आज मुन्नी के ससुराल से चिट्ठी आई है
उसको पढ़कर मन में एक अजीब सी हूक उठी और दिल भर आया है)

दद्दा बाई खों उनकी, मोड़ी परनाम करत है
हलके दद्दे सुमरे से आंखन अँसुआ ढरकत है
आंखन से टारी ना टरवे हल्कीबाई है
उए बांच कें जी उमगो.. छाती भर आई है..
(लिखा है कि-
पापा-मम्मी को उनकी बेटी प्रणाम करती है
चाचा को याद करके आँख से आँसू निकलने लगते हैं
और प्यारी चाची आँख से ओझल ही नहीं होतीं
उसे पढ़ कर मन भर आया और...)

महादेव देव की किरपा से, सब भांत कुशल है मोरी
रामलला सें नित मांगत हों, मैं खुशियाली तोरी
मुलक दिनन सें खबर मायके की ना पाई है
उए बांच कें जी उमगो.. छाती भर आई है..
(शिव जी की कृपा से मैं हर तरह से ठीक हूँ
भगवान् राम से रोज आपकी खुशहाली मांगती हूँ
कई दिनों से मायके कि कोई खबर नहीं आई
उसको पढ़कर मन भर आया और...)
हलको भईया आज दिखानो, मोये बर्राटन में
कए रओ मोरी जिज्जी आकें बस जा तें प्रानन में
आँख खुली फिर ऊ की जिज्जी, सो ना पाई है
उए बांच कें जी उमगो.. छाती भर आई है..
(मेरा छोटा भाई आज मुझे सपनों में दिखाई दिया
कह रहा था कि दीदी आप आकर मेरे प्राणों में बस जाइए
आँख खुलने पर उसे याद कर उसकी दीदी सो नहीं पाई है
उसको पढ़कर...)

राखी के डोरा भींजी पलकें तोए पुकारें
तोरी बहना राह तकत है रोजईं सांझ सकारें
वीरन तुम का भूल गए, प्यारी माँ जाई है
उए बांच कें जी उमगो.. छाती भर आई है..
(राखी के धागे से भींगी पलकें तुझे बुलाती हैं
हर सुबह-शाम तेरी बहन रास्ता देखती है
मेरे प्यारे भाई क्या तुम भूल गए कि हमें और तुम्हें एक ही माँ ने पैदा किया
उसको पढ़कर...)

मईंदार कका, मईंदारिन काकी नईं भुलानी
परी और दाने, चंदा की उनकी कही कहानी
हाथ जोर उनसे कइयो मुई रामरमाई है
उए बांच कें जी उमगो.. छाती भर आई है..
(नौकर चाचा और चाची(उनकी पत्नी) भी मैं भूल नहीं पाई
और ना ही उनकी कही हुईं परी, दानव और चाँद कि कहानी 
उनसे भी मेरा हाथ जोड़कर राम-राम कहना
उसको पढ़कर....)

सखियाँ संग अमुआं की डारन झूला चईयाँ-मईयाँ
टेसू-झिंझिया को ब्याओ अब लों मोय बिसरत नईयां
लिपे चोंतरन रंग-बिरंगी चौक पुराई है
उए बांच कें जी उमगो.. छाती भर आई है..
(सहेलियों के साथ आम की डालों पर का झूला और वो चईयाँ-मईयाँ(एक बुन्देलखंडी खेल)
वो टेसू-झिन्झियाँ का व्याह(बुन्देलखंडी ग्रामीण पर्व) अब तक मुझसे नहीं भुलाया जाता
वो गोबर से लीपे गए चबूतरे और चौक(आटे की रंगोली की तरह) भी नहीं भूल पाती
उसको पढ़कर...)
इक बात नईं जो समझ पात का चूक भई है मोरी
खबर लई तुमने ना मोरी पाती आई ना तोरी
तुमने दद्दा धारी काये जा निठुराई है
उए बांच कें जी उमगो.. छाती भर आई है..
(एक बात जो मेरी समझ में नहीं आती कि मुझसे क्या गलती हुई है
जो आपने मेरा ना तो मेरा समाचार लिया ना आपका ही कोई पत्र आया
पिताजी आपने क्यों इतनी निष्ठुरता को धारण किया हुआ है
उसको पढ़कर....)

माई-बाप तुम जैसे मोरे सास ससुर हैं प्यारे
जो सुख तुमने उते दये इते मिले हैं सारे
फली अशीषें सबकी सब जो तुमसे पाई है
उए बांच कें जी उमगो.. छाती भर आई है..
(जैसे आप मेरे माता-पिता हैं वैसे ही मुझे सास-ससुर प्यारे हैं
जो सुख आपने वहाँ दिए वाही सब मुझे यहाँ मिलते हैं
आप सबसे मिले सबके सब आशीर्वाद फलीभूत हुए हैं
उसको पढ़कर....)
कोनऊ फिकर मोई ना करियो इते सबई खुशियाली
भूल ना जइयो अपनी बिटिया लाड-प्यार सें पाली
चिठिया लिख 'जोगी' के हाथन सें पहुंचाई है
उए बांच कें जी उमगो.. छाती भर आई है..
(मेरी कोई फिक्र मत करियेगा यहाँ सब खुशहाली है
लेकिन अपनी लाड-प्यार से पाली बेटी को भूल भी मत जाना
चिट्ठी लिख कर संदेशवाहक 'जोगी' जी के हाथों भेज रही हूँ
उसको पढ़कर...)
वैदेहीशरण लोहकर 'जोगी'
चित्र साभार गूगल से..

सोमवार, 29 मार्च 2010

आपके जैसा ही कुछ हमारे माँ-बाप भी हमारे बारे में समझते हैं(लघुकथा)------>>>दीपक 'मशाल'


आप से निवेदन है कि कृपया सुझाव दें कि ये लघुकथा पूरी रखें या जहाँ पर £ लिखा हुआ है वहाँ से ऊपर तक का भाग हटा दें.. आपके मार्गदर्शन के लिए आभारी रहूँगा. 

यूनिवर्सिटी ने जब से कई नए कोर्स शुरू किये हैं, तब से नए छात्रों के रहने की उचित व्यवस्था(हॉस्टल) ना होने से यूनिवर्सिटी के पास वाली कालोनी के लोगों को एक नया व्यापार घर बैठे मिल गया. उस नयी बसी कालोनी के लगभग हर घर के कुछ कमरे इस बात को ध्यान में रखकर बनाये जाने लगे कि कम से कम १-२ कमरे किराये पर देना ही देना है और साथ ही पुराने घरों में भी लोगों ने अपनी आवश्यकताओं में से एक-दो कमरों की कटौती कर के उन्हें किराए पर उठा दिया. ये सब कुछ लोगों को फ़ायदा जरूर देता था लेकिन झा साब इस सब से बड़े परेशान थे, उनका खुद का बेटा तो दिल्ली से इंजीनिअरिंग कर रहा था लेकिन फिर भी उन्होंने शोर-शराबे से बचने के लिए कोई कमरा किराए पर नहीं उठाया. हालाँकि काफी बड़ा घर था उनका और वो खुद भी रिटायर होकर अपनी पत्नी के साथ शांति से वहाँ पर रह रहे थे लेकिन कुछ दिनों से उन्हें इन लड़कों से परेशानी होने लगी थी.
असल में £ यूनिवर्सिटी के आवारा लड़के देर रात तक घर के बाहर गली में चहलकदमी करते रहते और शोर मचाते रहते, लेकिन आज तो हद ही हो गई रात में साढ़े बारह तक जब शोर कम ना हुआ तो गुस्से में उन्होंने दरवाज़ा खोला और बाहर आ गए.
''ऐ लड़के, इधर आओ'' गुस्से में झा साब ने उनमे से एक लड़के को बुलाया.
लेकिन सब उनपर हंसने लगे और कोई भी पास नहीं आया, ये देख झा साब का गुस्सा और बढ़ गया.. वहीँ से चिल्ला कर बोले- ''तुम लोग चुपचाप पढ़ाई नहीं कर सकते या फिर कोई काम नहीं है तो सो क्यों नहीं जाते? ढीठ कहीं के''
एक लड़का हाथ में शराब की बोतल लिए उनके पास लडखडाता हुआ आया और बोला- '' ऐ अंकल क्यों टेंशन लेते हैं, अभी चले जायेंगे ना थोड़ी देर में. अरे यही तो हमारे खेलने-खाने के दिन हैं..''
शराब की बदबू से झा साब और भी भड़क गए- '' बिलकुल शर्म नहीं आती तुम्हें इस तरह शराब पीकर आवारागर्दी कर रहे हो.. अरे मेरा भी एक बेटा है तुम्हारी उम्र का लेकिन मज्जाल कि कभी सिगरेट-शराब को हाथ भी लगाया हो उसने, क्यों अपने माँ-बाप का नाम ख़राब रहे हो जाहिलों..''
उनका बोलना अभी रुका भी नहीं था कि एक दूसरा शराबी लड़का उनींदा सा चलता हुआ उनके पास आते हुए बोला- ''अरे अंकल, आप निष्फिकर रहिये आपके जैसा ही कुछ हमारे माँ-बाप भी हमारे बारे में समझते हैं इसलिए आप जा के सो जाइये.. खामख्वाह में हमारा मज़ा मती ख़राब करिए.''
और वो सब एक दूसरे के हाथ पे ताली देते हुए ठहाका मार के हंस दिए.
अब झा साब को कोई जवाब ना सूझा और उन्हें अन्दर जाना ही ठीक लगा.. उनका मकसद तो पूरा ना हुआ लेकिन उस लड़के की बात ने एक शक जरूर पैदा कर दिया.
दीपक 'मशाल'       
चित्र साभार गूगल से

शनिवार, 27 मार्च 2010

अंग्रेजी घर तो चकाचक हिंदी के कमरे रीते हैं------->>>दीपक 'मशाल'

आबादी में इतने आगे होकर भी आबाद नहीं
सरकारी एडों में सुनते हम बिलकुल बर्बाद नहीं
सुनते हैं इतिहास मगर अब कहते हम इरशाद नहीं
तन से तो हम मुक्त हो गए मन से पर आज़ाद नहीं

पेट की आग बुझाने को नारी शोलों पे सिंकती है
देखो तो चौराहे पर फिर किसकी बेटी बिकती है
शाम हुई और बच्चों में जो भूख किसी को लगती है
राणा के महलों में अब भी घास की रोटी बनती है
दुग्धविहीन हैं माँ के स्तन इससे बड़ा अवसाद नहीं
आबादी में इतने.......

ये होंठ प्यास से सूख गए वो जोनी वाकर पीते हैं
अंग्रेजी घर तो चकाचक हिंदी के कमरे रीते हैं
बैठ के माँ के आँचल में हम होंठ उसी के सींते हैं
हम से अच्छे वो कुत्ते हैं जो टुकड़ों पे जीते हैं
लड़ना खुद से ही है यारों गैरों से कोई विवाद नहीं
आबादी में इतने.......

संसद में हैं खड़े भेड़िये भेड़ों की बोली लगती हैं
कुछ हिन्दू कुछ मुस्लिम हैं कुछ औरों जैसीं लगती हैं
जीवन की थाली में अब मज़हब की रोटी सजती हैं
हम कोरी भेड़ें हैं हम तो भावनाओं में बहती हैं
वोट बनेंगे कैसे गर जो होगा कोई फसाद नहीं
आबादी में इतने.......

इक डिब्बे में भरे हज़ार इक में सेठ और साहूकार
सेवा में सबकी तत्पर है देखो ये भारत की रेल
शयनयान के डिब्बे खाली और जनरल का निकले तेल
नेताओं सी अदला बदली कर दी गर तो जाओ जेल
जीना हो तो खाकी वर्दी से करना कभी विवाद नहीं
आबादी में इतने.......

मार के भईया जाओ जेल फिर कुछ दिन में पाओ बेल
शहाबुद्दीन औ पप्पू यादव यादव खेलें अक्कड़-बक्कड़ खेल
कारागार में मोबाईल है पुलिस-चोर का सुन्दर मेल
 गुण्डे पाके पुलिस सुरक्षा खूब मचाएं रेलमपेल
जीभ जो उनकी चख ना पाए ऐसा कोई सवाद नहीं
आबादी में इतने.......

हल्का हुआ कानून तराजू पल-पल देखो इत-उत डोले
 कोयले वाले शीबू भैया सीधे-सादे कुछ ना बोले
लेकर जान बेजुबान की सल्लू गाये ओले-ओले
पत्रकार साहब ने अब तो झूठे सारे चिट्ठे खोले
बिक गया चौथा स्तम्भ भी बाकी कोई विषाद नहीं
आबादी में इतने.......

बोलो-बोलो कीमत बोलो हर बाबू बिक जायेगा
राम नाम का सौदा करके हर साधू बिक जायेगा
अब भी अगर ना अंकुर फूटा चेतनाओं के बीजों से
तलवारों की नोकों से फिर इतिहास नया लिख जायेगा
और मरा पेड़ जीवित जो कर दे ऐसी कोई खाद नहीं
आबादी में इतने.......

दीपक 'मशाल'

गुरुवार, 25 मार्च 2010

कविता----------------->>>>दीपक 'मशाल'


ज़िन्दगी वेताल बनके हर रोज़ सुनाती रहती है
एक नई कहानी उसे
और शाम को.. जब वो उसका बोझ ढोते-ढोते थक जाता है
तो भयानक अट्टहास के साथ लगती है पूछने रहस्यमय जवाब
उस कहानी से उपजे.. उससे जन्मे
पुरानी दिल्ली की ज़मीं और आसमाँ के बीच के
मकड़जाली बिजली के तारों के से उलझे सवाल का

वो विक्रम की तरह मजबूर होकर
दे तो देता है कुछ तार्किक सा जवाब
मगर तब भी हार ही जाता है
वो जीत कर भी हार ही जाता है
क्योंकि जान कर भी चुप रहने पर
और बोलने पर भी
उसे खोना ही होता है कुछ तो.. सबकुछ तो

और इसी तरह चलती रहती है
ज़िन्दगी की वेताल-पचीसी
उफ्फफ्फ्फ़.. पचीसी नहीं वेताल-अनन्ती..
दीपक 'मशाल'

बुधवार, 24 मार्च 2010

लघुकथा------------------------>>>दीपक 'मशाल'


पूजा के लिए सुबह मुँहअँधेरे उठ गया था वो, धरती पर पाँव रखने से पहले दोनों हाथों की हथेलियों के दर्शन कर प्रातःस्मरण मंत्र गाया 'कराग्रे बसते लक्ष्मी.. कर मध्ये सरस्वती, कर मूले तु.....'. पिछली रात देर से काम से घर लौटे पड़ोसी को बेवजह जगा दिया अनजाने में.
जनेऊ को कान में अटका सपरा-खोरा(नहाया-धोया), बाग़ से कुछ फूल, कुछ कलियाँ तोड़ लाया, अटारी पर से बच्चों से छुपा के रखे पेड़े निकाले और धूप, चन्दन, अगरबत्ती, अक्षत और जल के लोटे से सजी थाली ले मंदिर निकल गया. रस्ते में एक हड्डियों के ढाँचे जैसे खजैले कुत्ते को हाथ में लिए डंडे से मार के भगा दिया.
ख़ुशी-ख़ुशी मंदिर पहुँच विधिवत पूजा अर्चना की और लौटते समय एक भिखारी के बढ़े हाथ को अनदेखा कर प्रसाद बचा कर घर ले आया. मन फिर भी शांत ना था...
शाम को एक ज्योतिषी जी के पास जाकर दुविधा बताई और हाथ की हथेली उसके सामने बिछा दी. ज्योतिषी का कहना था- ''आजकल तुम पर शनि की छाया है इसलिए की गई कोई पूजा नहीं लग रही.. मन अशांत होने का यही कारण है. अगले शनिवार को घर पर एक छोटा सा यज्ञ रख लो मैं पूरा करा दूंगा.''
'अशांत मन' की शांति के लिए उसने चुपचाप सहमती में सर हिला दिया.
दीपक 'मशाल', लघुकथा

मंगलवार, 23 मार्च 2010

आज शहीदी दिवस है----->>>दीपक 'मशाल'


आज शहीदी दिवस है भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का.. कुछ याद आ रहा है-

''भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु..पहन वसंती चोले
रात मेरे सपने में आये आके मुझसे बोले
हमारा व्यर्थ गया बलिदान.. हमारा व्यर्थ गया बलिदान..
हम भी अगर चाहते तो सम्मान मांग सकते थे
फांसी के तख्ते पर जीवनदान मांग सकते थे
कुछ ना माँगा, माँगा हमने प्यारा हिन्दुस्तान
हमारा व्यर्थ गया बलिदान.. हमारा व्यर्थ गया बलिदान..''
पूरा याद नहीं
(इस गीत के/की रचयिता कोई मेरे नगरीय कवि/कवियत्री हैं)

कुछ कहना नहीं चाहता बस दो मिनट मौन रहना चाहता हूँ इन महान बलिदानियों के लिए और आपसे भी यही आशा करता हूँ.. हालाँकि पता है इस मौन पर भी अंगुली उठाने वाले बहुत हैं कि 'मौन रख के क्या कर लोगे?'
पर फिक्र नहीं

साथ ही सुनियेगा 'शहीद' फिल्म का ये अमर गीत-

ऐ वतन.. ऐ वतन हमको तेरी कसम..

जय हिंद
दीपक 'मशाल'

रविवार, 21 मार्च 2010

अनुभूतियाँ------->>>दीपक 'मशाल'

प्रकाश के व्युत्क्रम से जब..
मन घबरा जाता है,
सोना-जागना/ खाना-पीना..
जीवन का क्रम बन जाता है..
सर-दर्द तो मुझको
याद है रहता
अपनी स्वयं की देह का,
आसपास की.. मौतों को पर
जब मन बिसरा जाता है...
आगे बढ़ने को आतुर हो जब
एड लगाता हूँ खुद को,
कोई मुझसे बेहतर हो ना जाये
मैं टांग अड़ाता हूँ सबको..
जब सौ रुपये के शौक में से
दस-बीस रुपये की..
कटौती नहीं कर पाता,
एक भूखे का पेट भरने के लिए...
जब मैं बस में..
साथ बैठी लड़की को,
ऐसे ही छोड़ देता हूँ
मनचलों से डरने के लिए...
जब अपना काम जल्दी कराने के लिए,
'सत्यमेव जयते' छपे रंगीन करारे कागज़,
गंदले होने के वास्ते मेज़ के नीचे,
घूसखोरी के कीचड़ में सने हाथों में थमाता हूँ...
जब अपने फायदे के लिए,
औरों के हितों को भाड़ में झोंक,
किसी जान पहिचान के गुंडे के नाम पे
मोहर लगाता हूँ या बटन दबाता हूँ...
''तू सामाजिक प्राणी हैं मानव..
ऐसे ही जीना होता है..''
ऐसा ही कुछ कुछ कह के जब
चेतन मन को बहला लेता हूँ
खुद को समझा लेता हूँ...
तब नीम बेहोशी में,
स्वप्नों में आकर...
धमकाती हैं,
धिक्कारती हैं मुझको..
मेरे अंतस की अनदेखियाँ..
झपकती पलकों की अनुभूतियाँ....
झपकती पलकों की अनुभूतियाँ....
दीपक 'मशाल'

सोमवार, 15 मार्च 2010

उसका खुदा-मेरा खुदा---->>>दीपक 'मशाल'

बेतरतीब सा मैं
मुड़े-तुड़े किसी बीड़ी के बण्डल की तरह के
सिकुड़नों वाले उस कुरते को
हलकी सी सीयन उधड़ी जींस के ऊपर डाल
चल दिया था उसके घर की तरफ अनायास ही..
तोड़ दिया था मेरी जिद को
उसकी हफ्ते भर पहले जायी
उस चट्टानी नराजगी ने..
यूँ तो हिम्मत ना थी
कि घर में अन्दर जाके
सीधे मांग लेता मुआफी उससे
अपनी उस गलती की जिसके लिए कि
अभी तक मैं ना मान पाया था दोषी खुद को..
उसके घर के सामने के इक
दर्जी की दुकान पर खड़ा हो
करने लगा था इन्तेज़ार
कपड़े सुखाने के लिए
उसके बालकनी में प्रकट होने का..
सोच के तो आया यही था
कि मना लूँगा आज रूठे अपने खुदा को
और अपने छोटे से घोंसले में
खुशियों की ईद औ दिवाली
ले आऊंगा वापस.
सड़क के दूसरे छोर से अचानक उभरी
सैकड़ों छछूंदरों के समवेत स्वर में
चीखने की सी एक आवाज़ ने
दौड़ा लिया था मुझे अचानक ही अपनी ओर..
कोई कार थी शायद जिसने
जबतक की थी कोशिश
काबू में लाने की, अपनी स्वच्छंद रफ़्तार को
तब तक कुचल चुका था
उस अपंग भिखारी के अल्पविकसित से पैरों को
और सर्पीले अंदाज़ में दौड़ा ले गया था
अपनी कार को, वो गरीब को कुचलने वाला..
उस दर्द से तड़पते असहाय को
तमाशे की तरह देखती भीड़ ने
मजबूर कर दिया मुझे सोचने को कि
'अभी इसका खुदा ज्यादा रूठा है शायद'
और अब मैं रोक रहा था एक टैक्सी
हस्पताल जाने के लिए.
दीपक 'मशाल'
चित्र साभार गूगल से

रविवार, 14 मार्च 2010

एक अज़ब-गज़ब लोकगीत---->>>दीपक 'मशाल'

आज मस्तिष्क के समंदर में विचारों की लहरें उठने का नाम ही नहीं ले रही थीं, साथ ही तन और मन के देव और दानवों ने थके होने का बहाना बना के मंथन से भी इंकार कर दिया.
ऐसे में सोचा की आपको कुछ ऐसा पढवाता हूँ जो औरों से काफी अलग हो. अगर आपको याद हो तो कुछ समय पहले मैंने एक कविता छोटी बऊ आप लोगों को पढ़ाई थी, हाँ तो उन्ही छोटी बऊ के मुख से सुना हुआ एक बुन्देलखंडी गीत जो कि कई पंछियों को सिमेटे हुए है.. और वस्तुतः यह गीत एक चिरवा और बुलबुल की शादी का सजीव सा विवरण है. अब ये तो नहीं पता कि ये उनका खुद का सृजित किया हुआ गीत है या फिर उनके बचपन का कोई प्रचलित गीत जो सिर्फ उनके गाँव-क्षेत्र में ही लोकप्रिय हो पाया हो..
आप लोगों ने अगर कहीं और भी इसे सुना हो तो बताएं जरूर.. और जो भी शब्द समझ में ना आये पूछें जरूर..
मुझे ख़ुशी होगी बताते हुए..
और हाँ ज़रा गिनके बताइए तो इस गीत में कितने पंछी पकड़ पाए आप???????

मैना बोली चिरईयन के नोते हम जाएँ
मैना बोल गई..
सुआ ने पक्यात करी चिरवा के साथ
लगुन लिखाउन चले कौआ समझदार
बोले तीतर सरदार बाज़ बाँके चटकदार
करे मोरन सत्कार
मैना बोल गई..

सारस चंद्रेल हंस सजे बराती
टीका होउन लगे सजे कठकोला परेवा
चढाव ले के जाएँ नीलकंठ अडियाला अतंश
पपियारा के झंक, छंटा सोने सर्वंक
मैना बोल गई..

चितरू बुलबुल के संग भाँवर पड़ी
भाँवरन में गारीं गवीं
गुनवाली डोकिया है प्यारी
नाचे चमगोदर न्यारी
मैना बोल गई...

बहनी बिहान चले चिरवा ठसकदार
सजन घर ब्याह चले गावें नर-नार
मैना बोल गई...
दीपक 'मशाल'

शनिवार, 13 मार्च 2010

कविता------>>>दीपक 'मशाल'


1-
कारे-कारे से शीशे हैं
उजरा-उजरा सा है काजर
गूंगेपन के रुनकों से मिल
बनती है इस जुग की झांझर
जाने कहाँ हैं सरमनपूत
गई कहाँ काँधे की कांवर
कहाँ सुबीती है महतारी
झुला सके जो लाल की चांवर
धुंआ सा बन उड़ गए कहीं सब
वो प्रेम के रिश्ते, बड़ों का आदर
भूखे कृषक की लाश पे रिमझिम
कितनी जोर से बरसे बादर

2-
याद में तेरी ना अश्क बहायेंगे
जानते हैं वरना सो ना पाओगे
उम्र बिता देंगे इसी उम्मीद पे
लौट के इक दिन कभी तो आओगे
टूट के जब भी बिखर जाऊँगा मैं
बाँधने बाँहों में तुमही तो आओगे
खाक होके जब मिलूंगा इस हवा में
सांसों में भरने तुमही तो आओगे
पूछती है हर घड़ी तुमसे जुड़ी
नाम आधा किस तरह भुलाओगे
बीते लम्हे बारहा आते नहीं
कम से कम इतना तो कहने आओगे

दीपक 'मशाल'
रंगोली- दीपक 'मशाल'

बुधवार, 10 मार्च 2010

~~मुझे नहीं होना बड़ा~~------->>>>दीपक 'मशाल'

~~मुझे नहीं होना बड़ा~~

आज फिर सुबह-सुबह से शर्मा जी के घर से आता शोर सुनाई दे रहा था. मालूम पड़ा किसी बात को लेकर उनकी अपने छोटे भाई से फिर कलह हो गयी.. बातों ही बातों में बात बहुत बढ़ने लगी और जब हाथापाई की नौबत आ पहुँची तो मुझसे रहा नहीं गया. हालांकि बीच बचाव में मैं भी नाक पर एक घूँसा खा गया और चेहरे पर उनके झगड़े की निशानी कुछ खरोंचें चस्पा हो गयीं, मगर संतोष इस बात का रहा कि मेरे ज़रा से लहू के चढ़ावे से उनका युद्ध किसी महाभारत में तब्दील होने से बच गया. चूंकि मेरे और उनके घर के बीच में सिर्फ एक दीवार का फासला है, लेकिन हमारे रिश्तों में वो फासला भी नहीं. बड़ी आसानी से मैं उनके घर में ज़रा सी भी ऊंची आवाज़ में चलने वाली बातचीत को सुन सकता था. वैसे तो बड़े भाई अमित शर्मा और छोटे अनुराग शर्मा दोनों से ही मेरे दोस्ताना बल्कि कहें तो तीसरे भाई जैसे ही रिश्ते थे लेकिन अल्लाह की मेहरबानी थी कि उन दोनों के बीच आये दिन होने वाले आपसी झगड़े की तरह इस तीसरे भाई से कोई झगडा ना होता था.
जिस वक़्त दोनों भाइयों में झगडा चल रहा था तब अमित जी के दोनों बेटे, बड़ा ७-८ साल का और छोटा ४-५ साल का, सिसियाने से दाल्हान के बाहरी खम्भों ऐसे टिके खड़े थे जैसे कि खम्भे के साथ उन्हें भी मूर्तियों में ढाल दिया गया हो. मगर साथ ही उनकी फटी सी आँखें, खुला मुँह और ज़ोरों से धड़कते सीने की धड़कनों को देख उनके मूर्ति ना होने का भी अहसास होता था.
झगड़ा निपटने के लगभग आधे घंटे बाद जब दोनों कुछ संयत होते दिखे तो उनकी माँ, सुहासिनी भाभी, दोनों बच्चों के लिए दूध से भरे गिलास लेके आयी..

''चलो तुम लोग जल्दी से दूध पी लो और पढ़ने बैठ जाओ..'' भाभी की आवाज़ से उनके उखड़े हुए मूड का पता चलता था
बड़े ने तो आदेश का पालन करते हुए एक सांस में गिलास खाली कर दिया लेकिन छोटा बेटा ना-नुकुर करने लगा..

भाभी ने उसे बहलाने की कोशिश की- ''दूध नहीं पियोगे तो बड़े कैसे होओगे, बेटा..''

''मुझे नहीं होना बड़ा'' कहते हुए छोटा अचानक फूट-फूट कर रोने लगा.. ''मुझे छोटा ही रहने दो... भईया मुझे प्यार तो करते हैं, मुझसे झगड़ा तो नहीं करते..''
दीपक 'मशाल'
चित्र साभार गूगल से

सोमवार, 8 मार्च 2010

जो बिकाऊ नहीं उसे भारत रत्न नहीं मिलेगा क्या??------>>>दीपक 'मशाल'

जैसा कि दुनिया की आदत है हर बात पर दो खेमों में बँट जाने की और अपने खेमे को ही सच्चा-सच्चा चिल्लाने की, उसी आदत के चलते आजकल एक मांग जोर पकडती जा रही है और वो है सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने की. पहले ये स्पष्ट कर दूँ कि ना तो मैं इस बात के समर्थन में और ना ही विरोध में कि सचिन को भारत रत्न मिले.
सुना है ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे तथाकथित 'खेलविशेषज्ञ' ने भी संसद में मांग उठाई है कि जल्दी से जल्दी ये इनाम सचिन को दिया जाये. जिससे की कल सचिन भी ताउम्र सिंधिया का अहसान मानें और जब वो पुकारे तब ग्वालिअर दौड़े चले आयें.
समझ में नहीं आता कि इस इतने महत्त्वपूर्ण सम्मान देने के लिए लोग इतने उतावले क्यों रहते हैं कि जल्दी जल्दी दे के निपटा दिया जाये. कहना नहीं होगा कि इसी जल्दबाजी के कारण पहले की सरकारों ने जाने कितने कच्चे हाथों में ये पुरस्कार दे दिया या कहें की गिफ्ट समझ कर बाँट दिया. ऐसा नहीं की सचिन इस पुरस्कार के बिलकुल भी योग्य नहीं लेकिन हाँ एक सच ये भी है कि सचिन अभी भी भारत रत्न बनने की प्रक्रिया में ही हैं ना कि भारतरत्न बनने लायक हो गए. वो एक महान खिलाडी हैं और कई खिलाडियों के आदर्श भी, लेकिन क्या ये सच नहीं कि अभी तक सचिन ने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे कि आम जनता को फ़ायदा पहुंचे? हाँ कोई शक नहीं कि सचिन से बेहतर आज तक किसी अन्य क्रिकेटर ने क्रिकेट को नहीं बेंचा या फ़ायदा पहुँचाया.. उनकी वजह से दर्शक बढ़े और दर्शकों की वजह से प्रायोजक और प्रायोजकों की वजह से क्रिकेट, BCCI और सरकार को मुनाफा पहुंचा. लेकिन क्या बेचने के खेल में शाहरुख़, अमिताभ और आमिर माहिर नहीं, जिन्होंने My name is Khan और 3 Idiots जैसी साधारण कहानी वाली फ़िल्में इतनी बड़ी बना कर बेंचीं? तो क्या उन्हें भी भारत रत्न दे देना चाहिए?
भारत रत्न बनने के लिए सिर्फ एक बेहतरीन खिलाडी होना ही पर्याप्त नहीं बल्कि एक ऐसा खिलाडी होना जरूरी है जिसके पास अपना एक अलग ही दृष्टिकोण हो, जिससे वो उस खेल को पहले से कहीं अधिक और कई गुना लोकप्रिय बना दे. उसका ना सिर्फ अपने रिकॉर्ड बनाने में बल्कि उस खेल के सर्वांगीण विकास में योगदान हो, वो खेल को एक नई दिशा ही नहीं दे सके बल्कि लोगों के मन में उसके लिए एक जुनून पैदा कर दे. क्या सचिन ने कभी कोई ऐसा प्रयास किया है कि जिससे भारत में कुछ और सचिन पैदा हो सकें? क्या उन्होंने अभी तक किसी ऐसे प्रतिभावान खिलाडी को गोद लिया जो बेहतरीन खिलाडी तो बन सकता हो मगर इस सब का खर्चा वहन करने में अक्षम हो? क्या उन्होंने कभी गली मोहल्लों या छोटे गाँवों( छोटे गाँव इसलिए क्योंकि आजकल छोटे शहर का मतलब लखनऊ, इलाहबाद, रांची, पटना, पुणे और भोपाल जैसे ३०-४० लाख की आवादी वाले शहर हो गया है, जहाँ पहले से ही कोई ना कोई क्रिकेट अकादमी है) में किसी प्रतिभा को तलाशने में मदद की या उनका कोई ऐसा मंसूबा है? आज भी हमारा देश खेलों के प्रति उतना ही उदासीन है जितना कि सचिन के आने से पहले हुआ करता था, हम एक स्पोर्टिंग नेशन के रूप मे नहीं जाने जाते है. हमें आज भी ओलंपिक्स जैसी स्पर्धाओं मे एक पदक लेने के लाले पड़े रहते है? क्या तेंदुलकर ने ऐसा कुछ किया है की जिससे हमारी खेल के प्रति धारणा बदली है? क्या हमारी सालों पुरानी ये सोच बदली है कि 'पढ़ोगे, लिखोगे बनोगे नवाब.. खेलोगे कूदोगे बनोगे ख़राब'? क्या अब ज्यादातर बच्चे मैदानों में क्रिकेट या अन्य कोई खेल खेलते आसानी से मिल जाते है? क्या पता कल को सचिन भी रिटायरमेंट के बाद अपने समय के अन्य खिलाड़ियों की मानिंद कमेंटेटर बन कर आराम से अपनी जिंदगी बिता रहे होंगे. फिर अभी तो ये भी तय नहीं कि कल को टेस्ट मैच और एकदिवसीय मैचों का कौन सा स्वरुप जीवित रहेगा? लेकिन हाँ फिर भी मैं यही कहूँगा कि अगर भविष्य में सचिन ऐसी कोई संस्था बनाते हैं जो नई प्रतिभाएं देश के सामने लाने में मदद कर सके तो निश्चय ही वो भारत रत्न बनेंगे.
आज भी भारत में ऐसी अनेकों प्रतिभाएं हैं जो वास्तव में भारत रत्न हैं मगर अब तक या तो वो दुनिया से जा चुकी हैं या उम्र के आखिरी पड़ाव में हैं. क्या मुंबई स्थित भाभा नाभिकीय अनुसंधान संस्थान(BARC) के संस्थापक डॉक्टर होमी जहाँगीर भाभा को ये सम्मान नहीं मिलना चाहिए था? ये बताने की जरूरत नहीं कि BARC ने देश को कितनी प्रतिभाएं दीं. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान(ISRO) के संस्थापक श्री विक्रम साराभाई का योगदान किस तरह से कमतर आँका गया? क्या किरन बेदी ने समाज और देश को कम योगदान दिया है? क्या धर्मवीर भारती भारत रत्न नहीं? क्या जो नाम बाज़ार में बेचे नहीं जा सकते वो भारत रत्न लायक नहीं थे या नहीं हैं? ऐसे तो फिर कल को अमिताभ बच्चन और परसों शाहरुख़ खान के नाम सामने आयेंगे. क्या क्रिकेट और बोलीवुड सिर्फ ये दो नाम ही भारत में शेष बचे हैं? कहीं ऐसा ना हो कि ये क्रिकेट और बोलीवुड की अंधभक्ति हमें कहीं का ना छोड़े.
अब एक नज़र भारत रत्न सम्मान के सम्मान पर... आपने श्री भगवान दास, महर्षी डॉ. धोंडो केशव कर्वे, बिधन चन्द्र रॉय, डॉ. पांडुरंग वामन काणे का नाम तो सुना ही होगा. अगर नहीं सुना तो हैरान ना हों ये जानकर कि ये हमारे भारत रत्न हैं.. अगर आज आप इनके नाम नहीं जानते तो क्या ये सरकार की जिम्मेवारी नहीं कि इनके बारे में लोगों को बताया जाये? अगर हम अपने भारत रत्नों के बारे में ही नहीं जानेंगे तो और क्या जानेंगे और किन पर गर्व करेंगे?
मुझे तो डर है कि कहीं कल को भारत रत्न भी पद्म विभूषण, पद्म भूषन और पद्म श्री की तरह आलोचना का शिकार ना हो जाएँ. इसलिए सरकार से निवेदन है कि भारत रत्न का सम्मान बचाएं और किसी नाम को इस सम्मान पर हावी ना होने दें.
दीपक 'मशाल'

समय ठीक करने के अनुरोध को स्वीकारने के लिए ब्लोगवाणी नियंत्रक का आभार.. :)

शनिवार, 6 मार्च 2010

नई जिल्दें.. ------>>>दीपक 'मशाल'

मैं कुछ रोज से तंग आ गया उन लोगों से जो आजकल अपने अपने मज़हब को बेहतर बताने और दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिश में लगे हैं और असल मज़हब इंसानियत का गला घोंट रहे हैं... कल रात मन तकलीफ से भर उठा और उस पीड़ा के भाव ने कलम को एक और कविता को जन्म देने को विवश किया.. और कर भी क्या सकता हूँ?? किसको रोकूँ?? सब अपने ही भाई हैं... देने को तो मैं अपने खून की एक-एक बूँद दे दूँ अगर इसके देने से ये लोग अमन-चैन कि जुबां समझ सकें तो.... मगर जिनको गांधी और सफ़दर हाशमी जैसों की मौत ना सिखा सकी उनपर मेरी किसी बात का क्या असर पड़ने वाला है??
कविता को शिल्प प्रदान किया बड़े भैया शरद कोकास जी ने--

नई जिल्दें..
बहुत सिखाया था उसने दूर रहना बुराई से
हरेक बात पे टोका.. था समझाया था
एक किताब की तरह दी थी ज़िन्दगी
जिसमे लिखे थे जीने के नियम
और मतलब जीने का .
'कि क्यो आये हैं हम ज़मीं पर
ये मकसद भुला ना दें
सीख लें अपने पैरों पर खड़े होना
अपने दिमाग से अपनी तरह सोचना
तरक्की करना और . चैन से रहना'


मगर उसके भरोसे को..तोड़ा हर कदम हमने
हुई शुरुआत बुराई की उसी दिन से ..
जब आते ही ज़मीं पर..
उतार फेंकी जिल्द हमने..ज़िन्दगी की किताब की

और चढ़ा बैठे नई जिल्दें.. पसंद की अपनी-अपनी
अब तकलीफ से उसके सीने को रोज भरते हैं
बस इक झूठी सी बात पे.. हम हर रोज़ लड़ते हैं
अपनी ज़िल्द को असली बताते हुए
आपस में झगडते हैं
दीपक 'मशाल'

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

पहली बारिश में ही ये रंग उतर जाते हैं'--->>>दीपक 'मशाल'


जाने क्यों आजकल ये शेर
'नर्म आवाज़ भली बातें मुहज्ज़ब लहजे
पहली बारिश में ही ये रंग उतर जाते हैं'
बार-बार और हर बार दिमाग पर छा जाता है जबकि ये जावेद साब की लिखी और जगजीत साब की गायी हुई ग़ज़ल पिछले ७ सालों से नहीं सुनी.. आज सुनी है आप भी सुनियेगा...
सुनने के लिए यहाँ क्लिक करिए..
दीपक 'मशाल'

बुधवार, 3 मार्च 2010

तुमने समझा तो मगर शायर ही बस समझा मुझे...--->>> दीपक 'मशाल'


शायर
तुमको खोने का वो डर था जिससे मैं डरता रहा
मेरे डर को देख तुमने कायर ही बस समझा मुझे
जब भी अपना हाल-ए-दिल मैंने लफ़्ज़ों में कहा
तुमने समझा तो मगर शायर ही बस समझा मुझे...
दीपक 'मशाल'
छवि गूगल से

मंगलवार, 2 मार्च 2010

ब्लोगवाणी नियंत्रक ध्यान दें/ भाई दूज पर कविता---->>>>दीपक 'मशाल'

माफ़ी चाहूँगा लेकिन मुझे पता नहीं कि ब्लोगवाणी नियंत्रक तक कैसे अपनी बात पहुंचाई जाती है.. बस सिर्फ इसीलिए यहाँ पर लिख कर उनका ध्यान बंटाना चाहूंगा उस एक गलती पर जो मैं कई महीनों से देख रहा हूँ लेकिन अभी तक सुधर नहीं पायी और इस पर किसी का ध्यान भी नहीं गया.. 
--> जब भी कोई पोस्ट दोपहर के १२ बजे के बाद प्रकट होती है तो उसके प्रकाशन का समय ब्लोगवाणी पर P.M. में भी दिखाई पड़ता है और २४ घंटे के अनुसार भी.. यानी शाम ८ बजे प्रकाशित हुई पोस्ट के साथ समय दर्शाया जायेगा २० P.M. .. मुझे ये भी पता नहीं कि ये यहाँ यू.के. में ही दिखता है या सारी दुनिया में..  लेकिन बस आपसे इतनी गुजारिश है कि या तो इसे A.M. और P.M. के अनुसार रखें या २४ घंटे के अनुसार.. और ऐसा समय हर ब्लॉग की उस पोस्ट के साथ दिखता है जो दोपहर १२ बजे के बाद लगाई जाती है... सुधार अपेक्षित है.. धन्यवाद.
 
वैसे भारत में अधिकांश जगहों पर रक्षा-बंधन के अलावा भाई-बहिन के प्यार का पर्व भाईदूज सिर्फ दिवाली की पडवा के अगले दिन मनाया जाता है.. लेकिन मेरे क्षेत्र में इसे होली की पडवा के अगले दिन भी मनाते हैं..
बस इसीलिए आज अपनी छोटी और इकलौती बहिन को याद कर ये कविता फूट निकली..

मेरे ज़ज्बातों को हालातों के पत्थर
हर दिन ऊंची होती दीवार में चिनते जा रहे थे..
कि अचानक आज के दिन ने आकर
उस दीवार में एक ऐसी ठोड लगा दी
कि संवेदनहीनता के सीमेंट में सनी इन पत्थरों की दीवार
गिर पड़ी है.. भरभरा के...
अचानक फिर से ज़ज्बातों को ताज़ी हवा जो मिली तो
होश आया कि आज तेरा दिन है छुटकी..
भाईदूज है आज... भाई-बहिन के प्रेम के प्रतीक तीन पर्वों में से एक..

याद आया कि कैसे तेरे साथ दुफरिया भर
घर की दाल्हान में खेलते हुए
बिता देते थे गर्मी की छुट्टियां...
अपने बचपन में पहाड़ ना तूने देखे ना मैंने..
हिलस्टेशन कहें, देश भ्रमण या पिकनिक
हमारे लिए तो बस पैंतीस किलोमीटर की दूरी पर बसा
धूल में नहाता वो नानी का गाँव ही सब कुछ था..

याद आया कैसे खाते थे सर्दी के दिनों में
परांठे आलू के... बैठकर के मम्मी के आँचल में
और करते थे वो बनावटी झगडा..
मेरी मम्मी- मेरी मम्मी चिल्ला के..
तेरे सांवले रंग को लेकर वो तुझे चिढाना
के तू मेरी बहिन नहीं.. किसी भंगी के घर जायी है..
सब याद आया.. पलकों पर पानी के साथ..

याद आया तेरी गुड़िया की शादी के वास्ते
दहेज़ जुटाने की कवायद में
ईंट को दुरदुरे फर्श पर घिस कर बनायी गई वो बर्फ..
और बर्फ की वो दुकान.. वो बर्फवाले का स्वांग..
शायद इसी खेल ने पहली बार अहसास कराया था मुझे
उस बाप, भाई की तकलीफ का.. जिनके खेल के हिस्से में गुड़िया
और घर में बेटियाँ आती हैं..
हाँ.. अगर आज मैं दहेजविरोधी हूँ तो..
खेल-खेल में सीखे उस सबक के कारण..

याद आया कैसे तेरी आँख में आये एक आँसू के कारण
मैंने पीटा था उस लड़के को जिसने...
चोरी से स्कूल में तुम्हारा टिफिन खा लिया था..
ये और बात है कि बाद में आचार्य जी से खुद भी मार खाई थी..
लेकिन इसी से मिलता-जुलता सबक लिखा है गीता में
कि घात पाप है.. प्रतिघात नहीं..
और ये भी कि कानून भी कुछ होता है..

खेल-खेल में तेरे कारण कितने ही सबक सीख लिए मैंने ज़िंदगी के..
और जाने कितने जान कर ही नहीं सीखा..
आज... भाईदूज पर.. तेरा इतनी दूर होना
तकलीफ भी देता है.. और कराता है अहसास भी
कि क्या होता है एक बहिन का भाई होना
और कैसा होता है अहसास
अपनी बहिन के लिए.. इक भाई के जज़्बात का..
(मेरी प्रिय बहिन रानी को समर्पित)
दीपक 'मशाल'
चित्र- साभार गूगल से..

सोमवार, 1 मार्च 2010

टाइटैनिक के शहर में होली------>>>>दीपक 'मशाल'

बेलफास्ट में होली दिवाली एक साथ.. आप कह रहे होंगे कि दोनों महा-त्यौहार एक साथ कैसे??? बेवक़ूफ़ बना रहा है.. लेकिन नहीं भाई... सच में धमाकेदार पटाखों के चलने से उपजी बारूदी गंध और होली के रंग को देख कर तो यही लगा कि होली और दिवाली दोनों आज ही हैं.. :)

दोस्तों वैसे वतन से दूर रह कर होली मनाने का सोचकर लगता तो ऐसा है कि ये सब रस्म-अदायगी के अलावा और कुछ नहीं होगा....लेकिन हकीकत एकदम उलट है.. यानी की जितने खूबसूरत ढंग से इसे हम भारत में नहीं मनाते उतने से यहाँ मनाते हैं... ये मेरी यहाँ बेलफास्ट, उत्तरी आयरलैंड(यूनाईटेड किंगडम) में मनी दूसरी होली है.. भारत के अलावा दुनिया के किसी और हिस्से में होली कैसे मनाई जाती है ये उत्सुकता हर उस व्यक्ति के मन में रहती है जिसने अपने देश से बाहर ये पर्व ना मनाया हो... तो चलिए मैं आप लोगों की आँख और कान बनकर आपको थोड़ा-थोड़ा अहसास कराने की कोशिश करूंगा उस पल का जो मैंने अभी-अभी यहाँ जिया है...
१- घर से होली स्थल की ओर निकलते ही रास्ते का दृश्य, घर से अच्छे से ऊनी कपड़ों में लिपट के निकले.. आखिर जीरो डिग्री तापमान जो था-
२- होली महोत्सव के लिए आमंत्रण पत्र-
३- प्रवेशद्वार पर लगी देशी-विदेशी मित्रों की भीड़-
४- थोड़ा और आगे चलने पर दिखते व्यस्त लोग


५- जब तक हम पहुंचे कुछ रंगारंग कार्यक्रम तो छूट ही चुके थे... जैसे हमारे एक मित्र शिवा का 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली' गीत.. :(
6- बच्चों के लिए लगाई गयी रेलगाड़ी-
७- होली के लिए तैयार अँगरेज़ स्वयंसेवी
८- जमा हुई भीड़ का एक दृश्य-
९- डांडिया नृत्य-
१०- डांडिया नृत्य
११- एक आयरिश नर्तकी-
१२- अब कुछ स्वाद के लिए ढूँढा जाये.. ये है हिन्दुस्तानी खाना-खज़ाना-
१३- वाह है ना मुँह में पानी लाने लायक???
१४- भारतीय हस्त शिल्प की एक दुकान-
१५- एक और शिल्पकारी की दुकान-
१६- जय हो... गीत पर एक सामूहिक प्रस्तुति-
१७- भांगड़ा टाइम-
१८- राजस्थानी नृत्य-
१९- रंग बरसाने का टाइम आया रे-
२०- अंग्रेजों के बच्चे तक रंगे थे.. हिन्दुस्तानी रंग में  :) मगर दुःख की बात तो यही थी कि हम लोग तो सिर्फ अपने जान पहिचान के लोगों को रंग लगा रहे थे.. जबकि अँगरेज़ ना हिन्दुस्तानी देख रहे थे.. ना इंगलिश्तानी और ना पाकिस्तानी.. वो सिर्फ इंसां देखते थे और रंग देते थे.. चाहे उसे जानते हों या नहीं.. लगा कि हम होली भूल गए और अब इनसे सीखने आये हैं-
२१- कुछ हिन्दुस्तानी दोस्तों के साथ मैं(सबसे दायें हैं श्री मुकेश शर्मा जोकि आर्ट्स एकता या प्रायोजक समिति के निदेशक हैं..)
२२- एक बार फिर कुछ और दोस्तों के साथ-
२३- हाँ भाई.. ये भी अजब खेल था.. हम तो खेले सूखे रंग यानी गुलाल से और इस बेचारे पुट्ठे के हाथी के ऊपर लिख दिया  कि इसे गीले रंग से भिगायें..
२४- डांस करते हुए एक और तस्वीर-
२५- नचा दिया अँगरेज़ को बॉलीवुड गाने पर-
२६- आखिरी गाने पर लोग स्टेज पर ही चढ़ गए.. भाई हम हिन्दुस्तानी...
२७- भूख लगी थी.. सो आइसक्रीम खा ली..
२८-बाहर आ गए भाई.. अब तो..
२९- अरे हाँ बताना भूल गया... बुढ़िया(गुड़िया) के बाल भी तो खाए थे...
सबसे मजेदार रही रेलगाड़ी.. जब वहाँ पर मौजूद करीब २००-२५० युवकों-युवतियों ने मिलकर एक रेलगाड़ी बनायी और छुक-छुक करते पूरे हाल में दौड़ाई.. लेकिन अफ़सोस कि मैं रेल का एक डब्बा बनने में इतना मस्त हो गया कि तस्वीर ना ले पाया..
तो इस तरह बिना गुझियों के सही लेकिन प्रेम से मनाई होली हमने भी.. :)
बताइयेगा जरूर कैसी लगी ये टाइटैनिक के शहर में होली..
दीपक 'मशाल'

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