मंगलवार, 22 अगस्त 2017

मोल-भाव/ दीपक मशाल

लघुकथा

उन्होंने कहा-
'न न... निश्चिन्त रहिए हमें कुछ नहीं चाहिए। बस लड़की सुन्दर हो, जरा तीखे नैन-नक्श और रंग गोरा हो। हाँ, खाना अच्छा पकाती हो। बाकी कढ़ाई-बुनाई का तो अब ज़माना रहा नहीं सो ना भी आता हो तो चलेगा। ज्यादा पढ़ी-लिखी भी न हो तो भी ठीक, बस घर चला सकने लायक हिसाब आता हो। '
'तब तो हमारी छोटी बेटी आपको ज़रूर पसंद आएगी... तर ऊपर की हैं, साल भरे का ही फ़र्क़ है दोनों में।' कहते हुए बाप की आँखों में चमक थी।
जिस दिन छोटी की सगाई थी बड़ी उस दिन प्रयोगशाला की बजाय बाज़ार में मिली। उजली रंगत का दावा करती क्रीम और सबसे काला काजल पैक कराते हुए। इस दुआ के साथ कि कुछ और भी 'भले लोग' हों दुनिया में।


शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

कहाँ पहुँचा हूँ कहीं तो नहीं
जहाँ से चला पर वहीं तो नहीं
मंजिलें हैं ख़ामोश बैठी हुईं पर
कहीं ये रास्तों का नहीं तो नहीं।
मशाल 

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