दो कवितायें
१- शहर में भेड़िया / दीपक मशाल
अनुभव नया थाएक जीते-जागते भेड़िये को देखना
और देखना क़रीब से
जिज्ञासा से
फिर छूकर
मुँह खुलवाकर जानना उसके दाँतों का पैनापन
उसके बालों को सहलाकर
उसके साथ तस्वीर खिंचवा कर देखना
हज़ार साल पुराना रूप धरे वो मेला
तम्बुओं में बिकती
उसके जैसे दूसरे भेड़ियों की खाल
वहीं सहमा हुआ सशंकित जानवर
बार-बार हैरतभरी निगाहों से देखता
हाँडियों में पकती मल्ड वाइन
हांडियों के नीचे जलती आग
दिमाग के गर्तों-उभारों में उतरता-चढ़ता सवाल
सबूत के कन्धों पे चढ़ हल निकालने की कोशिश में संलग्न
पर रहता विफल
आखिर तक मन खुद से पूछता
खूनी या बलात्कारी
क्रूर अपराधी इंसान
क्यों कहा जाता भेड़िया
आखिर कितने प्रतिशत मिलती है उसकी जीन संरचना
लगा
शायद खूँखार भेड़िया शांत था
इसलिए कि शहर में था
इंसानों के बीच में
अच्छा है कि पाये जाते हैं ज्यादातर इंसान शहरों में
अच्छा है
जंगल के लिए
जानवर के लिए
और दुनिया बची रहने के लिए
२- बंदियों की बीवियाँ/ दीपक मशाल
आधी बंदी होती हैं
बंदियों की बीवियाँ
हीलियम भरे गुब्बारे की तरह
जो एक सिरे से बंधा होता है किसी वजनी पत्थर से
या पर कतरे कबूतरों सी
दिनचर्या का हिस्सा होता है
कारागार की बाहरी दीवारों से टेक लेना
दुनिया की लानतें सुनना
मलानतें झेलना
अनकिये अपराध के लिए
बन जाती हैं बंदियों से कहीं ज्यादा उत्तरदायी
उनसे ज्यादा ताने सुनतीं
बंदियों की बीवियाँ
ज्यों उन्होंने ही कतरी हो जेब
लगाईं हो सेंध
चलाया हो छुरा
झपटी हो चेन
दिखाई हो दबंगई
किया हो बलात्कार
बहाया हो लहू
अकेलेपन से लड़ती
एकला स्त्री को शापित अपराधों की नज़र से
खुद को बचाती
आज से, समाज से बहिष्कृत
अपनों की ही आँखों में कील होती है
और अपरिमाणित सूखे आँसुओं को
नमी पाने की लालसा लिए
जब पहुँचती हैं सींखचों के पार खड़े
उन दर्दों के स्रोत के पास
तो जेल के भीतर की तक़लीफ़ों को
पूरा सुन पाने से पहले ही
मिलने की अवधि ख़त्म हो चुकी होती है
और वह हर बार
यह बताने से रह जाती हैं महरूम
कि जेल के भीतर रहना तब भी आसान है