शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

क्षणिकाएं


आता यकीं नहीं उसको, मुलजिम की बेगुनाही का
दीवारों से पूछता है फिरता, किस्सा गवाही का 
नज़र मिला ना पाया हाकिम फैसले के बाद 
रंग उड़ा-उड़ा सा था लगा, उसकी सियाही का


बादलों के ये किनारे ज़र्द जैसे पड़ रहे हैं
ये पल वक़्त की चट्टान पे मूरत कोई गढ़ रहे हैं 
तुम्हें अब भी यकीं नहीं कि साए हमारे बोलते हैं
देखो सूरज डूबते ही ये अँधेरे से लड़ रहे हैं.
दीपक मशाल 



गुरुवार, 3 नवंबर 2011

दुनिया गोल है-------->>>दीपक मशाल

मेरी अपनी जिन्दगी में जब पहली बार किसी ने कहा था कि 'भाई, दुनिया गोल है' तो इस बात के पीछे छिपा गूढ़ रहस्य उस समय उजागर नहीं हुआ था. बस मन में कुछ-कुछ ऐसा ही ख्याल आया था कि इसमे कौन सी नई बात कह दी या 'ये भी कोई मुहावरा हुआ?' अब दुनिया गोल है तो है इस बात को सिद्ध हुए कई दशक गुजर गए..ये तो कई साल बाद पता चला कि इस उक्ति के जितने चाहे मतलब निकाल लो.. आपकी सोच को नींद आ जायेगी लेकिन 'दुनिया गोल है' के मायने निकलते चले जायेंगे..
हाँ जी भाईसा'ब एकदम सही कह रिया हूँ.. तभी ना हम सब गोला बना रहे हैं.. अजी सीधा सा मतलब है.. गोला बनाने का कोई गोल मतलब नहीं और मतलब यह है कि इस दुनिया में हम सभी एक दूसरे के पीछे भाग रहे हैं. अब आप लोग कहीं यह ना समझाने लगना कि 'अबे बेवकूफ, दुनिया गोल है तब कहते हैं जब कोई बार-बार टकराता है या फिर किसी अन्जान व्यक्ति से मिलने पर पता चलता है कि यह हमारे किसी करीबी के माध्यम से पहले ही हमसे जुड़ा हुआ है और हमको भनक तलक नहीं जी.... इसीलिए मैंने पहले ही यह यूनिवर्सल ट्रुथ आपके सामने लिख दिया कि 'दुनिया गोल है' के अर्थ भी गोले के छोर के जितने निकलते हैं(आदर्श परिस्थितियों में यहाँ तुलना लोहे के गोले से है ना कि ऊन के).. अब इस गोल दुनिया में मुझे सभी एक दूसरे के पीछे भागते हुए नज़र आ रहे हैं.. लोग हमारे पीछे और हम लोगों के पीछे.. एक समाज दूसरे के पीछे और दूसरा पहले के.. एक देश दूसरे के और दूसरा पहले के.. यह पिछलग्गूपन का खेल अनंतकाल से चला आ रहा है, अभी भी जारी है और आगे भी रहेगा इस बात की प्रबल संभावना है.. कृपया अचंभित ना होवें अगर आगे की सदी में पता चले कि यह खेल सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय नहीं बल्कि अंतर्ब्रह्मांडीय है.. धरती वाले किसी और ग्रह की नक़ल में लगे थे जो दूर से दूरबीन लेकर हमारी नक़ल में लगे थे.. 
जग-जाहिर है कि पश्चिमी देश भारत के और भारत पश्चिमी देशों के पीछे भाग रहा है.. अभी तक सिर्फ सभ्यता, आयुर्वेद, योग आदि तक सीमित था लेकिन अब तो नौकरी तक पर बात आ गई.. इन तथाकथित विकसित देशों के बड़े-बड़े अधिकारी बंगलौर और हैदराबाद जैसे शहरों की ख़ाक छानने को तैयार बैठे हैं.. इंटरव्यू देने के लिए कतार में खड़े हैं भाई लोग.. हम कितना ही उन्हें बहलाते हैं कि ''कृपया प्रतीक्षा करें, आप कतार में हैं'' लेकिन भाई लोग हैं कि कलेऊ बाँध कर टिके हुए हैं.
कतार से याद आया कि विदेशी हमारा मजाक बनाते हैं कि हिन्दुस्तान में संडास के बाहर सुबह-२ लम्बी लाइन लगती देखी जाती हैं.. लेकिन ये साहब तब भूल जाते हैं जब शाम को ये खुद कतार में लगे होते हैं दौड़ने वाली मशीनों पर चढ़ने के लिए.. अब कतार तो कतार हुई ना और देखने वाली बात यह है कि दोनों ही दशाओं में चेहरे पर आते-जाते भाव आपस में बड़ी भयंकर समानता रखते हैं..
वैसे अमीर देश के गरीब नागरिकों का बेचारों का एक ही सपना होता है कि अपने देश के उद्योगपतियों को विश्व के सबसे धनी व्यक्ति बनता देखें.. वो बनकर भी खुश नहीं होते और ये नागरिक बेचारे उन्हें बनते देखकर ही खुश हो लेते हैं.. बदले में अपनी दाल-रोटी की खातिर कैलोरी जलाते हैं जबकि विकसित देशों में इसके उलट है.. पहले वो जमके घी-दूध खाते हैं उसके बाद कैलोरी जलाने के लिए पैसे खर्च करते हैं..
हम जिस साइकिल को देखकर यह कहते हुए नाक-भौं सिकोड़ लेते हैं कि यह तो गरीबों की सवारी है या फिर मुलायम की.. उसी साइकिल से ये विकसित देश वाले इतना प्यार करते हैं कि बस पूछो मत.. ये साइकिल चलाते हैं शौक़ से.. अपने स्वास्थ्य के लिए.. कई-कई दफा तो इनकी साइकिल हमारी मोटरसाइकल से महँगी होती है और मोटरसाइकल हमारी कार से महँगी.. और कुछ साल पुरानी कार देखो तो एक पुराने स्कूटर के बराबर दामों में मिल जाते है.. अज़ब ही किस्सा है जहाँपनाह क्या किया जाए.. 
कल ही यहाँ स्पार(किराने की बड़ी दुकानों में से एक) में पता चला कि ब्रेड का एक पैकेट १.७२ पाउंड का और अगर दो लेते हैं तो १.६० पाउंड के.. सुनकर सर चकराया और मन ने यही दोहराया कि ''दुनिया गोल तो है ही यह भी सही है कि ये दुनिया खूब है..''
हमने सदियों तक जी भरकर ता-ता-थैया किया अब उन्हें भरतनाट्यम चाहिए और हमें सालसा, बैले नृत्य में रमने को मांगता.. देख लीजिये सबकुछ गोल-गोल घूम रहा है कि नहीं.. इतने से जी ना भरे तो अपने आसपास की किसी भी चीज.. जिसकी की तुलना आप कर सकें या कि हो सके, आप करके देखिये खुद ही सब गोल-गोल घूमता नज़र आएगा..
दीपक मशाल
(व्यंग्य नवम्बर २०११ के गर्भनाल अंक ६० में प्रकाशित)

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