शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

वातायन सम्मान-2012: निदा फ़ाज़ली वातायन शिखर सम्मान एवं शोभित देसाई वातायन सम्मान 2012 से सम्मानित

 र्दियों ने लन्दन को अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया है लेकिन 5 नवम्बर की शाम लन्दन के कुछ इलाकों ने ठण्ड की सत्ता के आगे समर्पण करने से इनकार कर रखा था। जी हाँ इस शाम के वक़्त में भी लन्दन की राजनीति का केंद्र 'हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स' गुनगुनी धूप की गर्मी में अपने आप को सेंक रहा था, लेकिन ये धूप धरती से हज़ारों प्रकाशवर्ष दूर जलते सूरज की नहीं बल्कि हिन्दुस्तान के ग़ज़लों और नज्मों के सूरज की थी। मौका था शाइरी और कविताओं के दौर के बीच, शाइरी के शिखर पुरुष निदा फाजली साहब को वातायन शिखर सम्मान से नवाजे जाने का और मूलतः गुजराती कवि श्री शोभित देसाई को वातायन सम्मान से सम्मानित किये जाने का। इस वातायन : पोएट्री ऑन साउथ बैंक सम्मान समारोह का आयोजन बैरोनेस फ्लैदर के संरक्षण में हुआ।
विदित हो कि विश्व हिन्दी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखने वाली, मशहूर संस्था वातायन विगत 9 वर्षों से प्रतिवर्ष भारत के कवियों/ शाइरों को उनके साहित्यिक योगदान को रेखांकित करते हुए सम्मानित करती आई है। 2011 में संस्था द्वारा जावेद अख्तर साहब को शिखर सम्मान और श्री प्रसून जोशी को वातायन सम्मान से विभूषित किया गया था, यह संस्था का साहित्य और भारतीय संस्कृति को लेकर खुद को गौरवान्वित महसूस करने का अपना अनूठा तरीका है।
संस्था ने इस बार निदा फाजली साहब को वातायन शिखर सम्मान के अतिरिक्त सुप्रसिद्ध गुजराती कवि/ लेखक श्री शोभित देसाई को वातायन सम्मान से अलंकृत करने का निर्णय लिया। समारोह की अध्यक्षता संभाली कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के पूर्व-प्राध्यापक और जाने-माने वरिष्ठ कवि व लेखक डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने।
संचालन करते हुए ललित मोहन जोशी। चित्र में उनके साथ
डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव एवं दिव्या माथुर जी भी दिख रही हैं
 कार्यक्रम प्रारम्भ होने से पहले, हाल ही में यू के के साहित्यजगत में एक शून्य पैदा कर गए, पूर्व बी बी सी हिन्दी अध्यक्ष स्व.श्री गौतम सचदेव को याद करते हुए दो मिनट का मौन रखा गया। उसके पश्चात जैसा कि कार्यक्रम को सम्मान समारोह एवं कविसम्मलेन में विभाजित किया जाना तय था, उसके अनुसार सम्मान समारोह के सूत्रधार बने बी बी सी हिन्दी के पूर्व प्रोड्यूसर एवं साउथ एशियन सिनेमा फ़ाउंडेशन के संस्थापक व सम्पादक श्री ललित मोहन जोशी ने। यू के हिन्दी समिति के अध्यक्ष और पुरवाई पत्रिका के सम्पादक डॉ पद्मेश गुप्त ने स्वागत वक्तव्य के बाद दिए गए पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेशन से औपचारिक तौर पर न सिर्फ कार्यक्रम का उदघाटन किया बल्कि उपस्थित जन समूह को वातायन की स्थापना से अबतक का इतिहास बताया। उसके बाद स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखिका शिखा वार्ष्णेय द्वारा सम्मान पत्र पढ़ा गया।
बैरोनेस श्रीला फ्लैदर से सम्मान ग्रहण करते शोभित देसाई 
 अब समय था कार्यक्रम के केन्द्रीय विषय का अर्थात सम्मान का, तो सबसे पहले समारोह की मेजबान बैरोनेस श्रीला फ्लैदर ने अपने हाथों से श्री शोभित देसाई को शॉल ओढ़ाकर उसके पश्चात डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने सम्मानपत्र एवं स्मृति चिन्ह प्रदान कर उन्हें सम्मानित किया।
  अब माहौल को सुरमय बनाने के लिए ललित मोहन जोशी के आग्रह पर उभरते गायक राजन शगुन्शे और संभावनाशील गायिका सुकन्या जोशी ने निदा फाजली साहब की सुविख्यात ग़ज़ल,
'दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है....’
ग़ज़ल गाते हुए गायक द्वय 
को प्रस्तुत कर स्व. जगजीत सिंह साहब की भी याद ताज़ा कर दी। फिर एन आर आई वेब-रेडियो व हेल्थ एंड हैपीनेस पत्रिका के सम्पादक और हिस्ट्री.कॉम के निर्माता श्री विजय राणा ने निदा फाजली साहब के सम्मान में सम्मान-पत्र का वाचन किया और तत्पश्चात बैरोनेस श्रीला फ्लैदर के हाथों शॉल ओढ़कर एवं डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव के हाथों सम्मान-पत्र व स्मृतिचिन्ह स्वीकार कर निदा साहब ने समारोह का मान बढ़ाया।
 दोनों सम्मानित विभूतियों ने वातायन एवं उपस्थित श्रोताओं के प्रति अपना आभार प्रकट किया। जहाँ एक तरफ शोभित जी ने अपने माता-पिता से लेकर जीवन से जुड़े हर महत्वपूर्ण व्यक्ति को यह सम्मान अर्पित किया वहीं निदा साहब ने अपना सम्मान, हाल में पाकिस्तान में कट्टरपंथ के खिलाफ विद्रोह की मिसाल बनी मलाला युसफ्जई के साहस को सौंप दिया। श्री निदा फाजली साहब के निवेदन पर सभी उपस्थितजनों ने खड़े होकर मलाला के सम्मान में तालियाँ भी बजाईं।
निदा फाजली साहब सम्मान स्वीकारते हुए 
समारोह ने अपना पहला चरण पूर्ण करने के बाद आगे की और बढ़ना जारी रखा और दूसरे चरण की ओर दौड़ रहे कवि सम्मलेन के रथ के सारथी बने सम्मानित कवि स्वयं श्री शोभित देसाई, जोकि अपने बेहतरीन संचालन के लिए जाने जाते हैं। स्थानीय कवि मोहन राणा, तितिक्षा शाह, चमनलाल चमन और सोहन राही ने श्रोताओं को कविसम्मेलन के आकर्षण श्री निदा फाजली साहब को अधिकाधिक सुन सकने हेतु अपनी केवल दो-दो रचनाओं का पाठ किया। निदा साहब का सम्मोहन इस क़दर था कि उनकी बारी आने पर, कब वह खड़े हुए, कब उन्होंने अपने क़िस्से, कविताएं और गज़लें, नज्में कहीं और कब तालियों के बीच विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर और झुककर श्रोताओं का अभिवादन किया, यह शायद ही किसी उपस्थित श्रोता को पता चला हो। वक़्त के परिंदे की उड़ान के बारे में तो सुना था लेकिन वक़्त को जटायु बनते पहली बार लन्दन के 'हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स' में देखा गया।
श्रोताओं का अभिवादन स्वीकारते निदा फाजली साहब 
अपने वालिद के इंतकाल के वक़्त का जिक्र करते हुए निदा साहब ने फ़रमाया की, ''मेरे पिता को मरने की जल्दी थी लेकिन उसे भी ज्यादा जल्दी भारत और पाकिस्तान को लड़ने की थी'. इसी वजह से वीजा न मिल पाने के कारण वह पाकिस्तान जाकर आखिरी बार अपने पिता की मिट्टी में शामिल न हो सके, उनका मुंह न देख सके और यह कसक उन्हें हमेशा रहेगी। अपनी तकलीफ को एक नज़्म की शक्ल देते हुए उन्होंने अपने वालिद की मौत की खबर को सुनाने वाले को झूठा करार देते हुए उनके मरने को स्वीकार नहीं किया। जब उन्होंने अपनी वह नज़्म 'फातिहा' सुनाई तो आह और वाह दोनों जुड़वां पंछियों की तरह सभा की हवा में तैर रहे थे। नज़्म की शुरुआत कुछ इस तरह से थी-

'तुम्हारी कब्र पर मैं
फ़ातेहा पढ़ने  नहीं आया

मुझे मालूम था, तुम मर नहीं सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था.....'

और अंतिम पंक्तियाँ थी-
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है
वो झूठा है,
तुम्हारी कब्र में, मैं दफन हूँ,
तुम जिंदा हो!
तुम जिंदा हो!

मिले फुर्सत कभी तो फातेहा पढ़ने  चले आना।'

उससे पहले जब उन्होंने 'बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ....' सुनाया तो कितने रूमाल भीगे और कितनी चुन्नियाँ यह गिना नहीं जा सका।
 समारोह के समापन से पूर्व अध्यक्षीय भाषण में डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने जवाहरलाल नेहरु से सम्बंधित एक घटना सुनाकर 'हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स' में हिन्दी/ उर्दू कविता का पढ़ा जाना नेहरु जी के सपने को साकार होना बताया। साथ में उन्होंने कहा कि, ''यह गर्व और हर्ष का विषय है कि वातायन संस्था भारतीय कवियों को वैश्विक मंच देर रही है.''  अंत में समापन करते हुए मेज़बान बेरोनेस फ्लैदर एवं वातायन की संस्थापक और सुप्रसिद्ध लेखिका दिव्या माथुर ने सभी अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापन किया.
निदा साहब और शोभित जी के साथ कुछ खुशमिजाज़ लम्हे 
लन्दन की कई सांस्कृतिक संस्थाओं के कार्यकर्ताओं एवं साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े कई गणमान्य जनों ने उपस्थित होकर कार्यक्रम की गरिमा बढ़ाई। 5 नवम्बर 2012 की यह शाम यू के के हिन्दी साहित्य के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज करा गई, जिसके गवाहों में श्री सी बी पटेल (गुजरात समाचार, एशियन वौइस), रवि शर्मा (सनराइज़ रेडियो), ध्रुव घडावी (ज़ी टी वी), कुलदीप भारद्वाज  (एम् ए टी वी), स्काइलार्क  के सम्पादक, डॉ योगेश पटेल, लवीना टंडन (सी वी बी न्यूज़), श्री अनवर सेन रॉय(प्रोड्यूसर बी बी सी उर्दू), श्री विभाकर और हिना बक्शी (नवरस रिकॉर्डस), पुष्पिंदर चौधुरी (टंग्स ऑन फ़ायर), डॉ हिलाल फ़रीद, मुस्तफा शहाब (अलीगढ़  मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलुमनाई), अय्यूब औलिया (अल्ला रखा फाउंडेशन), कुसुम पन्त जोशी (साउथ एशियन सिनेमा), रीनी ककाती  (असामीज कम्यूनिटी), अख्तर गोल्ड (कृति-यूके), यावर अब्बास (फिल्म निर्माता), अरुणिमा कुमार (मशहूर कुचीपुडी नृत्यांगना),  जेरू रॉय (स्त्री विमर्श, कलाकार), इन्दर सियाल (गायक), बज माथुर (वास्तुकार), ग़ुलाम अहमद (वकील) और शारदा, विनीता और आश्विन तवाकली (माथुर एसोसिएशन-यूके) के अलावा हिन्दी के बहुत से लेखक और कवि भी इस कार्यक्रम में शामिल हुए - प्रो श्याम मनोहर पांडे, इस्माइल चूनारा, उषा राजे सक्सेना, साथी लुधियानवी, जितेन्द्र  बिल्लू, डॉ कविता वाचकन्वी, दीपक मशाल और स्वाति भालोटिया सहित कई जाने-माने पत्रकार और कवि -लेखक थे।
रपट- दीपक मशाल 
छायांकन- दीपक मशाल



बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

क्षणिका




जाने किस जद्दोजेहद में मर गया
परिंदा था सियासी ज़द में मर गया
हुआ जो भी ऊँचा इस आसमाँ से
अपने आप ही वो मद में मर गया
मशाल





मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

दो लघुकथाएं



1- चोर-सिपाही-वजीर-बादशाह 

चार पर्चियां बनाई गईं.. उन पर नाम लिखे गए
चोर, सिपाही, वजीर और बादशाह
उन्हें उछाला गया, चार हाथों ने एक-एक पर्ची उठाई. फिर उनमे से एक सीना चौड़ा करके गरजा
-बोल-बोल, मेरा वजीर कौन?
-मैं जहाँपनाह
-ह्म्म्म.. इन दोनों में से चोर सिपाही का पता लगाओ
वजीर दो मिनट सोचता रहा फिर बोला-
-जाने भी दीजिये हुज़ूर, दोनों अपने ही आदमी हैं... वैसे भी इनके हाथ तो सिर्फ कौडियाँ लगी होंगी, अशर्फियाँ तो महफूज़ ठिकानों में पहुँच ही चुकी हैं 

जिसका माल चोरी हुआ था वह खेल में शामिल हुए बिना ही चारों में से चोर ढूँढने की कोशिश में लगा था 
दीपक मशाल 

2- कौवा और गिलहरी 

कौवे और गिलहरी में फिर से करार हुआ. कौवे ने बीती बातें भूल जाने का निवेदन किया और गिलहरी ने तुरंत मान लिया, उसके मन में तो वैसे भी कोई मलाल था ही नहीं. पिछली बारी कौवे ने ना खेत जोते थे, ना बीज बोये, ना सिंचाई की और ना ही फसल काटी थी.. नतीजतन गिलहरी के सब कर देने के बाद भी कौवे की पकी-पकाई फसल तेज़ आंधी-पानी में बह गई थी. इस बार तय हुआ कि कौवा निठल्ला बन हरी डाल पर ना बैठा रहेगा... तय हुआ कि दोनों बराबर से मेहनत करेंगे.
समय आया तो गिलहरी ट्रेक्टर लेकर कौवे के पेड़ के नीचे पहुँची, अब हल से खेत जोतने वाले दिन तो रहे नहीं थे. गिलहरी को उम्मीद थी कि कौवा अब वही पुराना गीत ना अलापेगा कि 
-तू चल मैं आता हूँ, 
चुपड़ी रोटी खाता हूँ
ठंडा पानी पीता हूँ
हरी डाल पर बैठा हूँ..

लेकिन कौवे ने बिना हिले ही अन्दर से आवाज़ दी. भाई कुछ ना खाऊंगा-पीऊंगा लेकिन सच यही है कि आज सर में बहुत दर्द है, तुम आगे-आगे चलो मैं जरा दवा लेकर आता हूँ. गिलहरी को क्या फर्क पड़ना था, वो तो थी ही मेहनती.. थोड़े ही समय में अपना खेत जोत लिया... जब कौवा काफी देर तक ना पहुंचा तो दयावश उसका खेत भी जोत दिया.. थोड़ी देर और ट्रेक्टर चला लिया जब पिछली बार पसीना बहाकर जोत लिया था तो इसबार तो ट्रेक्टर था ही. 
वापस लौटते हुए देखा कि कौवा आँखें मींचे और मुँह खोले खर्राटे भर रहा था. गिलहरी ने तबियत का पूछा और अपने घर की राह देखी.
जब बुआई का वक़्त आया तो कौवे की टांग में दर्द पैदा हो गया, गिलहरी ने बिना तीन-पांच करे वह भी अपनी मर्जी से कर दिया. फिर यही कहानी कटाई के वक़्त भी दोहराई गई, कौवे को ना सुधरना था सो नहीं सुधरा.
इतिहास ने खुद को दोहराया और इस बार भी बारिश में कौवे की फसल बह गई और गिलहरी के गोदाम भरे रहे. 
एक दिन सुबह-सुबह गिलहरी के दरवाजे पर दस्तक हुई.. उसने पूछा 
-कौन है भाई?
जवाब आया 
-मैं हूँ कौवा 
-पुलिस
-वकील
-जज
एक-एक कर चार आवाजें गिलहरी के कानों में पड़ीं. बाहर से ही फरमान सुनाया गया कि जल्द से जल्द बाहर उनकी अदालत में हाज़िर हो क्योंकि उस पर कौवे की फसल हड़पने का आरोप था और मुकदमा चलाया जाना था.
गिलहरी आँख मलते हुए बाहर पहुँची तो पेड़ के नीचे अदालत लग चुकी थी. थोड़ी ही देर में गिलहरी काली चोंच, काले पंख और कर्कश स्वर वाले जीवों के बीच अकेली खड़ी थी. 
दीपक मशाल

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

मेरे प्रश्न



मेरे प्रश्न
तुम्हारे विरोध में नहीं
मगर अफ़सोस कि
नहीं कर पाते हैं ये समर्थन भी

ये प्रश्न हैं
सिर्फ और सिर्फ खालिस प्रश्न
जो खड़े हुए हैं
जानने को सत्य
ये खड़े हुए हैं धताने को उस हवा को
जो अफवाह के नाम से ढंके है जंगल

ये सर्दी, गर्मी, बारिश
और तेज़ हवा में डंटे रहेंगे
तब तक
जब तक इनके लिए
मुझ तक भेजे गए तुम्हारे उत्तर के लिए
नहीं हो जाते मजबूर
ये मेरे हाथ, मन और मष्तिस्क
देने को पूर्णांक

सनद रहे
कि ये प्रश्न इन्कार करते हैं
फंसने से
किसी छद्म तानों से बुने झूठ के जाल में
ये इन्कार करते हैं
भड़कने से
बरगलाए जाने से
बहलाए जाने से
फुसलाये जाने से

ये हुए हैं पैदा
सोच के गर्भ से

यूं ही नहीं...
इन्हें उत्पन्न होने को किया गया था निमंत्रित
जानने के हक के अधिकार के द्वारा

और ये अधिकार हुआ था पैदा
स्वयं इस सृष्टि के जन्म के साथ
भले ही तुम्हारे संविधान ने
तमाम लड़ाइयों के बाद ही
इसे दी हो मंजूरी

देखो नीचे खोलकर अपनी अटारी की खिड़की
प्रश्न खड़े हैं
करो पूर्ण उत्तर देकर युग्म
और समयावधि तुम्हें है उतनी ही
जिसमे कि ना जन्मने पायें प्रतिप्रश्न
न मेरे मन में
और न ही प्रत्यक्षदर्शियों के..
उतनी ही
जितने में कि
ना मिल पायें कुछ और स्वर
मेरे स्वर में..
दीपक मशाल


हिन्दी साहित्यिक मासिक पत्रिका सद्भावना दर्पण के सितम्बर अंक को पढ़ने के लिए इस लिंक का अनुसरण करें-
http://issuu.com/dipakmashal/docs/sadbhavnadarpanseptember-12_final


शनिवार, 1 सितंबर 2012

लघुकथाएं



१- अपराध का ग्राफ
''मारो स्सारे खों.. हाँथ-गोड़े तोड़ देओ.. अगाऊं सें ऐसी हिम्मत ना परे जाकी. एकई दिना में भूखो मरो जा रओ थो कमीन.. हमायेई खलिहान सें दाल चुरान चलो... जौन थार में खात हेगो उअई में छेद कर रओ.. जासें कई हती के दो रोज बाद मजूरी दे देहें लेकिन रत्तीभर सबर नईयां...'' कहते हुए मुखिया ने दो किलो दाल चुराते पकड़े गए अपने खेतिहर मजदूर पर लात-घूंसे चलाने शुरू कर दिए.
''हाय मर जेँ मालिक, खाली पेट हें, पेट में लातें ना मारो.. हाय दद्दा मर जेहें'' वो गरीब रोये जा रहा था.
''औकात तो देखो जाकी अब्नों खें जुबान लड़ा रओ... मट्टी को तेल डारो ससुरे पे फूंक तो देओ जाए'' नशे में धुत मुखिया का बेटा गुर्राया..

रात बीती तो मुखिया और उसके बेटे का नशा उतर चुका था, दरवाज़े पर पुलिस थी. मजदूर ७० प्रतिशत जली हुई हालत में सरकारी हस्पताल में जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहा था.
पुलिस ने दोनों पक्षों को समझाया. मजदूर के सारे इलाज़ कराने की जिम्मेवारी लेने की बात पर दोनों पक्षों में तपशिया करा दिया गया.
बेचारी पुलिस भी क्या करती, राज्य सरकार का दबाव था कि राज्य में अपराध का ग्राफ नीचे जाना चाहिए.


2- इंतज़ार 
घंटाघर की घड़ी ने रात के दस घंटे टन्कारना शुरू किया.. टन-टन-टन की आवाज़ से 'उसने' अपने क़दमों की रफ़्तार तेज़ करने की कोशिश की.. भागा भी लेकिन सामने के स्टॉप से उसके मोहल्ले  की ओर जाने वाली आखिरी बस की रफ़्तार ज्यादा निकली. बस उसकी नज़रों के सामने देखते-२ ओझल हो गई. दिन भर की थकान हावी हो रही थी उसपर और घर अभी भी दो किलोमीटर बाकी था जो अब उसे मजबूरन पैदल ही तय करना था. सड़क के बीच में पड़े ईंटे के टुकड़े को जोर से ठोकर लगाकर सन्नाटे को सुनाते हुआ चीखा वो, ''साला कमीना, एक मिनट को नहीं रोक सकता था..''
अगले दिन वो समय से पहले बस में था.. अज़ब सी बेचैनी से घिरा हुआ. बार-२ घड़ी देखता, दस बजे का इंतज़ार था.. अभी तक घंटाघर की घड़ी चीखी नहीं थी. वह गुस्से में भुनभुना रहा था,''साला बेवकूफ.. अब कौन सवारी आयेगी इतनी रात को. पता नहीं कब चलेगा.''
दीपक मशाल

रविवार, 3 जून 2012

लेखनी के जून २०१२ अंक में प्रकाशित दो लघुकथाएं..

सहजीविता 

सफ़ेद कबूतर और कबूतरी के उस जोड़े ने दुनिया देख रखी थी और वो बहेलिया था कि उन्ही के घोंसले वाले पेड़ के नीचे अपने दाने,जाल  और आस बिछाए था। कबूतर और कबूतरी ने एक दूसरे की तरफ देखा, मुस्कुराए और फिर भोजन की तलाश में पास के कस्बे की तरफ उड़ गए।

मगर शाम होते-होते जब कबूतर को कहीं से भी दाने हासिल न हुए तो खाली ही अपने घोंसले में लौट आया।  वापस आकर पता चला कि कबूतरी के साथ भी वही हुआ। मारे भूख के दोनों का बुरा हाल था, नीचे देखा तो जाल और दाने अभी भी बिछे हुए थे। कबूतर ने कबूतरी से पूछा, ''क्या कहती हो? खाया जाए?''

''पगला गए हो क्या? एक रात भूखे नहीं सो सकते, चार दानों के लिए जान जोखिम में डालने पर तुले हो..'' कबूतरी ने गुस्सा दिखाते हुए कहा।

''घबराओ मत प्रिये, मैं पता करके आया हूँ। कस्बे में मंत्री जी कल एक खेल प्रतियोगिता के उदघाटन समारोह में हमें अपने हाथों से शांति के प्रतीक के रूप में उड़ाने वाले हैं, जिसके लिए ही ये बहेलिया हमें पकड़ना चाहता है। सिर्फ एक रात की बात है, अभी खाना भी मिलेगा और कल आज़ादी भी।''

वो युगल मुस्कुराते हुए दानों पर जा बैठा, झाडी में छिपे बहेलिये ने जाल खींच लिया।

       ताकत
वो नौसिखिया कार चालक सांझ होते ही कार लेकर सड़क पर आ उतरा. कार चलाना तो सीख गया मगर अभ्यास की कमी थी, जिसको कि पूरा करने वास्ते वह कम भीड़-भाड़ वाले इलाके की तरफ मुड़ गया। अचानक पानी से भरे गड्ढे के ऊपर से कार निकली तो गड्ढे का गन्दा पानी राह चलते एक साइकिल सवार की कमीज को गन्दा कर गया। साइकिल वाले के चिल्लाने पर आस-पास के लोग जमा हो गए और कार को आगे बढ़ने से रोक दिया गया। अपनी आँखों को बड़ा-बड़ा करते हुए उस साइकिल वाले ने नौसिखिये पर चीखना शुरू कर दिया, ''स्साले, अन्धा होकर चलाता है? इतना बड़ा खड्डा नहीं दिखा तुझे? मेरी नई कमीज़ ख़राब कर दी। तुझे क्या लगता है ऐसे ही निकल जाएगा यहाँ से.. जानता नहीं है तू मैं कौन हूँ। इस इलाके के दादा का ख़ास आदमी हूँ मैं। अब चुपचाप नई कमीज़ के पैसे निकाल वर्ना स्टेयरिंग पकड़ने के लिए हाथ सलामत नहीं रहेंगे..''

धमकी का असर हुआ। नौसिखिये ने बिना कुछ कहे सुने चंद नीले-पीले नोट निकाल कर 'बेचारे' साइकिलवाले के हवाले कर दिए।

अगले मोड़ पर मुड़ते समय पता नहीं कहाँ से एक मोटर साइकिल सवार जल्दबाजी में कार से हल्का सा टकरा गया। हालांकि टक्कर बड़ी मामूली थी और मोटर साइकिल वाले को चोट भी नहीं लगी, लेकिन कार रोक कर उसने भी नौसिखिये को बाहर निकाला और उसने भी धमकाते हुए कहा कि, ''हाथ में मेहंदी लगा कर कार चला रहा था? चार पहिये पर सवार है तो किसी की जान लेगा? मैं यहाँ के कमिश्नर को अच्छी तरह से जानता हूँ. अगर अभी दो हज़ार नहीं निकाल के दिए तो थाने में टाँगे तुडवा दूंगा तेरी.. लाइसेंस जाएगा सो अलग.''

डरते हुए एकबार फिर उसने दो हज़ार रुपये मोटरसाइकिल वाले को थमा दिए और वहाँ से अपनी जान लेकर दूसरे इलाके की तरफ भागा।

लेकिन उसकी बदकिस्मती कहें या खराब ड्राइविंग कि इस बार सच में उसने एक सफ़ेद एम्बेसडर को पीछे से ठोक दिया। तुरत प्रक्रिया हुई, तीन गुण्डे टाईप के लोग मुँह में पान दबाये उसकी तरफ बढ़े और कॉलर पकड़कर उसे कार से बाहर निकालने के साथ-साथ तीन-चार थप्पड़ रसीद कर दिए। जैसे कि उसे उम्मीद थी उनमे से एक अश्लीलतम गालियाँ देते हुए बोल पड़ा, ''जानता है किसकी गाड़ी ठोकी है तूने? मंत्री जी के भतीजे की। पूरी डिग्गी चपटी कर डाली। अब इसका पैसा तेरा बाप भरेगा? चल निकाल बीस हज़ार वर्ना पता भी नहीं चलेगा कि कहाँ से आया था और कहाँ गया।''

पैसे तो अब जेब में थे नहीं, सो उसने अपने गले में पड़ी सोने की मोटी चेन उन गुन्डेनुमा लोगों को सौंप उनके पास गिरवी रखी अपनी जान छुड़ाई और अब अत्यधिक सावधानी के साथ कार चलाने लगा।

पर हाय रे बदकिस्मती कि घर से थोड़ी ही दूरी बाकी रहते, अँधेरे में कार एक बार फिर किसी भारी-भरकम वस्तु से टकरा गई।

डर के मारे थर-थर कांपते हुए उसने कार रोक कर देखने की कोशिश की कि इसबार कौन है कि तभी एक शांत और मधुर आवाज़ कानों में पड़ी, ''माफ़ करना, मैं तुम्हारे रास्ते में आ गया।''

देखा तो कार एक चबूतरे से टकरा गई थी. चबूतरा किसी धार्मिक इमारत का था।

नौसिखिये ने हिम्मत करके पूछा, '' आप कौन हैं?''

''भाई, मैं ईश्वर हूँ और मैं किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता..''.

सोमवार, 28 मई 2012

जिजीविषा (लघुकथा)- दीपक मशाल


एक-दो रोज की बात होती तो इतना क्लेश न होता लेकिन जब ये रोज की ही बात हो गई तो एक दिन बहूरानी भड़क गई.
''देखिये जी आप अपनी अम्मा से बात करिए जरा, उनकी सहेली बूढ़ी अम्मा जो रोज-रोज हमारे घर में रहने-खाने चली आती हैं वो मुझे बिलकुल पसंद नहीं''
''लेकिन कविता, उनके आ जाने से बिस्तर में अशक्त पड़ीं अपनी अम्मा का जी लगा रहता है..'' गृहस्वामी ने समझाने की कोशिश की.
''अरे!! जी लगा रहता है यह क्या बात हुई.. आना-जाना हो तो ठीक भी है मगर उन्होंने तो डेरा ही जमा लिया है हमारे घर में..'' स्वामिनी और भी भड़क उठी
दूसरी ओर से फिर शांत उत्तर आया, ''अब तुम्हे पता तो है कि बेचारी के बेटों ने घर से निकाल दिया.. ऐसी सर्दी में वो जाएँ भी कहाँ?''
''गज़ब ही करते हैं आप.. घर से निकाल दिया तो हमने ठेका ले रखा है क्या उनका? जहाँ जी चाहे जाएँ.. हम क्यों उनपर अपनी रोटियाँ बर्बाद करें?'' मामला बढ़ता जा रहा था
हार कर गृहस्वामी ने कहा-
''ठीक है तुम्हे जो उचित लगे करो.. उनसे जाकर प्यार से कोई बहाना बना दो''

''हाँ मैं ही जाती हूँ.. तुम्हारी सज्जनता की इमेज पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए, घर लुटे तो लुटे..'' भुनभुनाती हुई कविता घर के बाहर वाले कमरे में अपनी सास के पास बैठी बूढ़ी अम्मा को जाने को कहने के लिए वहां पहुँची. पहुंचकर देखा कि बूढ़ी अम्मा अपनी झुकी कमर का बोझ एक डंडे पर डाले, मैली-कुचैली पोटली कांख में दबाये खुद ही धीरे-धीरे करके घर के बाहर की ओर जा रही थीं. अन्दर चल रही बहस की आवाज़ उनतक न पहुँचती इतना बड़ा घर न था. आँखों में आंसू भरे उसकी बेबस सास अपनी सहेली को रोक भी न सकी.

मगर शाम को रोटियाँ फिर भी बर्बाद हुई, अम्मा खाने की तरफ देखे बगैर भूखी ही सो गई थी.
दीपक मशाल

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

सामाजिक सरोकारों की पत्रिका 'जनपक्ष' में प्रकाशित एक कविता-


सबने किया बलात्कार जज साहब
सबने किया बलात्कार जज साहब
ये सबने किया
मेरे साथ सामूहिक बलात्कार हुआ है

उनके नाम नहीं पता मुझे 
और चेहरे मैं नहीं रखना चाहती याद
अब तो नहीं याद पड़ते दिन महीना तारीख भी 
वो दिन जब मेरा बलात्कार बनी थी खबर

हाँ अखबार में जरूर होगा
ढूँढने पर मिल जाए शायद
पर अखबार में भी तो छुपा ही देते हैं असली नाम 
छद्म नाम के सहारे कहाँ ढूंढूं मैं किस पेज पर 
हर जगह तो यही खबर है
ना जाने कौन सी मेरी हो
अब जो तारीख याद रहती है
वो है अगली सुनवाई की तारीख
और हर बार, बार-बार 
याद करनी पड़ती है एक नई तारीख
जिनके बीच कहीं उस हादसे के दिन की तारीख 
होकर रह गई है गुम 

कभी इस सोच की नदी में भी मन लगाता है डुबकी
कि क्या पता मेरा बलात्कार और भी पहले से हो रहा हो
मुझे बताये बिना ही हो रहा हो

पड़ोसियों के सपनों में..
सपनों में मेरे पुरुष साथियों के 
उन राहगीरों की फंताशी दुनिया में 
जो रास्ते भर बिना झिझके घूरते हैं मेरे कटाव, मेरे उभार 
या क्या पता मेरे ही रिश्तेदारों के सपनों में भी 

वैसे ये सब पहली बार जिस भी तारीख को हुआ
उसको होने की खबर ना थी मुझे
पर अब जो हर रोज होता है 
वो होता है सरेआम बाकायदा तारीख बताकर 
अदालत में सुनवाई की तारीख 
भरी अदालत में मेरे पुनार्बलात्कार की तारीख ही है जज साहब 

और इधर हर रोज हर मज़हब हर सम्प्रदाय 
हर उम्र के शख्स अपनी आँखों से 
भींचते-भंभोडते हैं हर पल मुझे 
हर वक़्त रौंदे जाते हैं मेरे वक्ष

नोचा जाता है चेहरा और कमर
हर क्षण उगते हैं खरोंच के नए निशान इन नितम्बों पर
अपनी जाँघों पर फिर-फिर रिसता महसूस करती हूँ लहू.... 
मेरे हर अंग में नाखूनों के धंसते हैं ब्लेड 
अब तो इनके सबूत के तौर पर खून के धब्बे भी नहीं बनते

अब जो होता है वो होता है 
और भी बेदर्दी से 
मेरी जान की हत्या कर मेरी अस्मिता की हत्या कर
अगर यह सब उस दिन के बाद से मेरे बदन के साथ रोज भी होता
तो शायद इतना तकलीफदेह ना होता 
क्योंकि जिस्म की तकलीफ को कर सकती हूँ सहन मैं एक बारगी
पर उसका क्या जो बलात्कार रोज होता है 
मेरी आत्मा के साथ
मेरे अरमानों की तो बलात्कार और हत्या दोनों होते हैं जज साहब 

शरीर पर दिखने वाली खरोंचें नहीं दिखतीं अब
पर मन पर जो खरोंचें थीं 
वो वक़्त के साथ भरती ही नहीं
उन खरोंचों के घाव से नासूर बनने तक की प्रक्रिया में
कितने मन पीव निकली उसका अंदाज़ा नहीं खुद मुझको भी
रेगिस्तान में पेड़ जितने लोगों की सहानुभूति भी
मुझे कराती है एहसास 
कि कोई सड़ांध है जो उपज रही है मेरे भीतर ही भीतर 

बलात्कारियों के लिबास चाहे काले रहे हों या खाकी
वो सफ़ेद कार से निकले हों या नीली
पर चेहरे सबके एक से थे  
सबने बार-बार किया कभी भरी अदालत में तो कभी थाने में 
रिपोर्ट लिखने के नाम पर जो किया वह बलात्कार ही था माइलोर्ड
मुझे इन्साफ दिलाने के लिए रिश्वत के नाम पर 
जो माँगा गया वो भी यही था मेरी मर्जी से मेरे साथ बलात्कार
यहाँ तक कि यहाँ दलील सुनने को हाज़िर हुए लोगों ने 
और इस खबर को सुनने वालों ने
तकिये अपनी छाती से लगा मुझे महसूस किया होगा
वो भी उतने ही बलात्कारी हुए जज साहब 

छोड़ कर एक जमात को बाकी सबने किया बलात्कार जज साहब 
ये दर दोगुनी होती अगर ये जमात ना बख्शती मुझे
ये बलात्कार होते दोगुने अगर 
दुनिया के आधे इंसान ना होते औरतें

पर फिर भी उनमे से अधिकाँश रखती हैं हक
मुझ पर थूकने का..
साँचे से मेरे ही जैसी दिखने वाली
कुछ लाचार औरतों ने सुना दी है 
दरिंदों के हाथों मेरे ही नारीगत सम्मान को कुचले जाने की सज़ा मुझे ही 
बदचलन करार देकर  
तुम्हारी इस अदालत में
मेरे गुनाहगारों को गुनहगार साबित होने से पहले 

ईद, दिवाली, लोहड़ी सब मैं अब सुनती हूँ सिर्फ आते जाते
इन्हें थम कर नहीं देखने दिया जाता मुझे
इन मंगलों में मैं हो गई हूँ अमंगल... अपशकुन

दीवार पे टंगे कलेंडर के तस्वीरों की ऑंखें भी मुझे 
मेरी देह को उसी निगाह से घूरती दिखती हैं
उनकी आँखों में भी उभर आते हैं लाल डोरे
कई बार खाली दीवार पर ही सैकड़ों आखें उगने लगती हैं
उगती रहती हैं.. और चली जाती हैं उगतीं 
जब तक कि मैं ना हो जाऊं चीख मार कर बेहोश 
और करने दूँ उन्हें उनकी मनमानी 
कई बार तो अँधेरे में आईने में 
मेरा ही अक्स करता लगता है मेरे साथ वही दरिन्दगी 

इसलिए मैं और नहीं कुचली जाना चाहती 
गुनाह किसी का भी हो जज सा'
फांसी मुझे दो
मुझे दिला दो छुटकारा इस हर पल के दमन से
कदम-कदम पर होते मेरे मान-मर्दन से..
दीपक मशाल

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