शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

मैं तुम्हारा अपराधी हूँ छोटी बऊ........

छोटी बऊ(दादी) वो महान आत्मा थीं, जिन्होंने मुझे जो स्नेह, जो दुलार दिया वो आज तक मैं ढूँढता हूँ. असल में छोटी बऊ मेरे बाबा कि चाची थीं जो ताउम्र कहने को तो कोख से एक संतान को जन्म न दे पाने के कारण निःसंतान रहीं लेकिन आस पड़ोस में और घर में कोई ऐसी संतान न थी, जिसके लिए वो माँ न हों...
शायद ये कविता हो लोगों के लिए मगर-
मेरे लिए ये एक अतुलनीय प्रेम के आदर्श का प्रतिष्ठापन है,
जो देते हैं लोग आराध्य को उससे भी ऊंचा आसन है.

हर आघात में ढाल थीं तुम,
थीं देखने में छोटी मगर
ह्रदय से धरती सी विशाल थीं तुम.
तुम थीं इक मूरत त्याग की
सेवा और निस्वार्थ की,
कभी सुना न नाम ईश्वर का
मुख से तुम्हारे,
पर स्वमेव ईश्वर का अर्थ थीं तुम.
दूध मैं पी जाता था
और
लेजम से मार खाती थीं तुम छोटी बऊ....
मार मुझे मिलती पापा से और
अपना माथा लहूलुहान कर लेतीं थीं तुम छोटी बऊ....
चिड़ियों के नन्हे शिशुओं को
मिलता जो भाव सुरक्षा का,
नीड़ में, माँ के परों के संरक्षण में,
वैसा ही अहसास मिला मुझको
तुम्हारे आँचल में छोटी बऊ....
तुम्हारी एक गथूली,
एक बिछौनियाँ वाले बिस्तर में छोटी बऊ....
तुम्हारी धोती की गाँठ में बंधा
वो दस पैसे का सिक्का,
मेरे लिए आज की
हजारों, लाखों की कमाई से बड़ा था.
जब अक्ल नहीं थी मुझमें
तो तुमने ही चवन्नी देकर कहा था-
'मुकुन्दी पंसारी से ले आओ'
और मैं चला भी गया था,
अक्ल खरीदने.
तुम्हारी चवन्नी से मुझे
अक्ल तो न मिली पर तुम सिखा गयीं
मोल रिश्तों का छोटी बऊ.......
अभी भी हैं प्रतिध्वनित
तुम्हारे लोकगीत,
शोर से घिर चुके मेरे इन कानों में-
'मैना बोली चिरईंयन  के नोते हम जाएँ....
मैना बोल गयी.....'
आज जब लता दी भी
नहीं चाहती बनना बिटिया दोबारा,
तुमने तब भी कहा था
'अगले जनम बिटिया ही बनूँ मैं...
आज अनपढ़ तो क्या...
अगले जनम बी.ए., ऍम. ए. पढूं मैं....'
अब क्या दिला पायेगी अहसास,
सुरक्षा का तुम्हारे जैसा,
कोई प्रेमिका?
तुम्हारे जाने के बाद
खोजता रहा ठीक तुम्हारे जैसा..
प्यार, संरक्षण और ममता...
मेरी खुद की माँ में,
शायद खोजूंगा सेवा, समर्पण, त्याग भी
अपनी होने वाली भार्या में....
पर सबसे तुलना
सिर्फ तुम्हारी होगी छोटी बऊ...
और पता है कितना ही सुख पा जाऊँ,
पर हरदम जीत तुम्हारी होगी छोटी बऊ...
मदर टेरेसा ना मिलीं मुझे,
पर तुममें देखा उन्हें प्रत्यक्ष...
तुम थीं, हाँ तुम्ही हो
मेरी ग्रेट मदर टेरेसा छोटी बऊ...
मैं कान्हा तो न बन पाया
पर तुम थीं बढ़के जशोदा से.....
अरे जशोदा ने तो कृष्ण को
अपने पुत्र के भ्रम में पाला
पर....
ये जान के भी, मैं नहीं अंश तुम्हारा
तुमने अपने अंश में मुझको ढाला....
आज सोचता हूँ
की क्या है फर्क तुममें और कबीर में?
कबीर ने त्यागी थी देह मगहर में,
ये भ्रम तोड़ने को कि
वहां मरने पे मिलता था नर्कधाम...
और तुमने
ताउम्र न माना ईश्वर को छोटी बऊ...
फिर भी लगीं रहीं सद्कामों में..
और मृत्यु ने तुम्हारा वरण किया था
देवोत्थानी ग्यास को,
मर जाते हैं कितने साधू
लेकर इसी अभिलाष को.....
लेकिन मृत्यु भी तुम्हे मार न सकी छोटी बऊ....
तुम अमर हो मेरी.... हमारी स्मृति में...
आज जब नहीं खोज पाता कोई
इस स्वार्थी दुनिया में अपना सा...
तो समझ आता है कि......
तुम्हारे जाने से क्या खोया छोटी बऊ...
याद है अभी भी मुझे
वो अंग्रेजी का होम वर्क जो मैं पूरा न कर पाया था
देह त्याग कर तुमने अपनी
मुझे मार से बचाया था छोटी बऊ...
मेरे मन में पनपा टीचर से मार का डर,
तुम्हारी मृत्यु ने ख़त्म कर दिया था छोटी बऊ...
क्योंकि मैं स्कूल जाने से बच गया था...
और मैं इतने से फायदे  के लिए
तुम्हारे मरने पे खुश था छोटी बऊ....
हाय मैं अभागा......
न समझा तुम्हारा वात्सल्य, तुम्हारा स्नेह और दुलार...
एक तुम थीं जिसने मर के भी
मुझे मार खाने से बचाया था
और एक मैं था
जो तुम्हारी मौत पे हर्षाया था.....
जब तक समझा मैं
कि क्या थीं छोटी बऊ....
तुम उससे पहले ही साथ छोड़ गयीं,
अब कैसे उर्रण हो पाऊंगा मैं,
बस तुम्हे स्मृति में बसा के
गीत तुम्हारे गाऊंगा मैं...
देव बन के तुम मुझे
दे रहीं अशीष लख-लख,
पर कह रहा मुझसे
ये मेरा ज़मीर पग-पग ....
मैं तुम्हारा अपराधी हूँ छोटी बऊ,
मैं तुम्हारा अपराधी हूँ छोटी बऊ........
दीपक 'मशाल'

19 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर समर्पण भाव से रचा है इस कवित्त को. प्रभावी लेखनी.

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  2. मैंने इसको एक रचना की तरह नहीं सिर्फ भावों की तरह माना,
    मैं इन शब्दों की तारीफ नहीं बस आप लोगों से महज़ एक श्रद्धांजलि चाहता हूँ अपनी छोटी बऊ के लिए...
    महक जी आपकी आँखों का नाम होना सुन के लगा ये एक सार्थक श्रद्धांजलि हुई, क्योंकि लिखते हुए मेरी भी आँखें नाम थीं.... चलिए किसी ने तो सिर्फ शब्द नहीं उनके पीछे छिपा मर्म समझा, वेदना समझी..... आभार.

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  3. Deepak Ji
    I visited ur blog first time its great to know u r still connected with ur customs...GREAT to remember CHOTI BAU DADI.....

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. Singhsdm JI,
    How can a tree survive without it's roots? like the same way customs are the roots of a person....thanks for for your compliment but I don't think it's somthing new for an Indian. It's must for everyone to remember his history & culture. I can never forget my Chhoti Bau, she is source of energy and blessings for me and I feel myself her culprit as well.

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  6. very gud dear ab yahi shuru kar do.
    Pramod Mishra

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  7. इतना निःस्वार्थ प्यार, इतनी अद्वितीय छवि.......महज कविता नहीं , एक जीती जागती ज़िन्दगी है

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  8. Dipak ......bahut achcha laga padh ke .......... yaqeen karo.......... itni achchi hai ki isne baandh liya tha............ poora padhne ke baad bhi lag raha tha ki abhi aage aur bhi hai............

    m speechless........


    gr8 work done..........

    (Do see mine new kavita....)

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  9. आपकी लेखनी ने वो सब कुछ कह दिया है जो शायद आप अपनी छोटी बऊ का नहीं कह पाए थे....
    खून के रिश्ते हमें ओढ़ना पड़ता है ...लेकिन दिल के रिश्ते हमें ओढ़ लेते हैं....
    आपके मन के उदगार हम पाठकों तक बा-खूबी पहुँच पाया है और यही आपकी सफलता है.....
    आप हमारे ब्लॉग पर आये ..अनुसरण किया ....धन्यवाद नहीं कहेंगे ..आपने दी कहा है ....
    और अगली बार से आप भी नहीं कहेंगे.....
    पहली बार टिपण्णी कर रहे हैं इसलिए...छोड़ दिया ...अगली बार से सिर्फ 'तुम'...
    खुश रहिये...
    अदा दी

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  10. दीपक जी अपनी छोटी बऊ का स्मरण करती और अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती आपकी इस आँसू-भीगी कविता की भावना मन को कहीं गहरे तक भिगो गयी..सही है..हमेशा सत्कर्मों मे व्यस्त रहने वाले व्यक्ति को ईश्वर भी भजता होगा.

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  11. itni bhav vibhor ho gayee hoon padhkar..ki kuch likha nahi jata....man bahut kuch keh raha hai...shabd nahi mil rahe...

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