शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

शाबाश आमिर!! पीपली लाइव के तोहफे के लिए(पीपली लाइव की प्रदर्शन पूर्वसमीक्षा)...------>>>दीपक 'मशाल'



जब पहली बार मैंने महंगाई के मुद्दे पर एन डी टी वी पर एक लोकगीत जिसके बोल ''सखी सइयां तो खूबई कमात है... महंगाई डायन खाए जात है....''   सुना तो आश्चर्य मिश्रित हैरानी हुई कि ये कैसे चमत्कार हो गया कि बुन्देलखंडी क्षेत्रीय भाषा को इतनी तरजीह देते हुए इन चैनलवालों ने ये बुन्देली लोकगीत ही समाचार चैनल पर गबवा दिया? लेकिन चंद दिनों बाद रहस्योद्घाटन हुआ(कम से कम मेरे लिए तो) कि ये रघुवीर यादव अभिनीत आमिर खान प्रोडक्शन की अगली फिल्म है.


खैर ये हम बुन्देलखंडीयों  के लिए तो गर्व करने लायक बात है ही कि उनकी बोली भाषा को लोगों की नज़र में लाया जाएगा(ये अलग बात है कि लोगों की नज़र उन पर जिस वजह से पड़ेगी वो सरकार के लिए सिरदर्द बन सकती है) .. आमिर वास्तव में बधाई के पात्र हैं जो आज के समय में भी शुद्ध ग्रामीण परिवेश वाली फिल्म को प्रोत्साहित कर रहे हैं.. संभव है कि इसके सफल होने पर जल्द ही बिना बनावट की चादर ओढ़े असली गावों को दर्शातीं कुछ और फ़िल्में लोगों को देखने को मिलेंगीं और इस तरह का ट्रेंड भी कुछ समय के लिए सही लेकिन चल सकता है. जिस समस्या को उठाया है वो भी  बुंदेलखंड की सबसे भयावह समस्याओं में से एक है.. अभी हाल में इसी पर तहलका पत्रिका ने भी एक विशेषांक 'बेहाल बुंदेले बदहाल बुंदेलखंड' के नाम से निकाला था.
अभी तक जितने भी ट्रेलर देखे हैं उन्हें देख के तो यही लगता है कि भले ही रघुवीर यादव के अलावा बाकी अन्य कलाकार नामी-गिरामी ना हों लेकिन थियेटर और एन.एस.डी. से चुने गए ये बेहतरीन कलाकार किसी भी स्थापित कलाकार को मुंहकी दे सकते हैं.. 
मुझे सबसे ज्यादा चकित तो उन बूढ़ी अम्मा ने किया जिन्होंने खाट पर पड़े-पड़े ही हमारे बुन्देली गाँव की नानी-दादियों (लगता है जैसे मेरी परदादी जिनका अभी कुछ साल पहले १०४-५ साल की उम्र में   देहावसान हुआ वो फिर से जीवित हो उठी हैं इन कलाकार के रूप में) को साकार कर दिया है.. हाथ हिलाते हुए उनके ताने देना सौ प्रतिशत स्वाभाविक लगते हैं.. पता नहीं कैसे किसी ग्रामीण महिला से इतना जबरदस्त अभिनय कराया गया या फिर अगर वो कोई शहरी मंजी हुईं कलाकार हैं तो कैसे उन्होंने एक ग्रामीण महिला के किरदार को इतना बारीकी से पकड़ा और निभाया.. उसी तरह नत्था की पत्नी बनी अभिनेत्री भी अपने किरदार को बड़ी खूबी से एक देहाती बुन्देलखंडी की तरह जीती लगी.
सिर्फ वो ही नहीं बल्कि गाँव का हर शख्स इस तरह दिख रहा है जैसे ये कोई फीचर नहीं बल्कि दस्तावेजी फिल्म हो.. आप खुद ही देखिये नीचे ट्रेलर में 'हाथ कंगन को आरसी का'. जरा उस दृश्य पर भी गौर करना जिसमे नत्था रघवीर यादव(चरित्र का नाम पता नहीं) के पीछे धूल में डंडी घुमाते हुए मस्ती में 'तोये बिन सजनी नींद नईं आवे कैसे गुज़ारूँ रात' गाता हुआ चला जा रहा है.. क्या ऐसे दृश्य आपने किसी फिल्म में देखे हैं? या सिर्फ गाँव में ही? हाँ मगर थोड़ा मीडिया वाले दृश्यों में नाटकीयता का मोह नहीं तज पाए इसलिए वो ज़रा कमज़ोर बन पड़ते हैं.. 
ना सिर्फ अभिनय बल्कि बॉडी लेंग्वेज भी कमाल की ही लग रही है अब तक तो.. कलाकारों के मेकअप, वेश-भूषा को देख कर लगता है कि कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ी बस किसी गाँव में घुस गए और लोगों से कुछ ना कुछ बोलने भर को कह दिया और शूट करके वापस चलते बने.. :) कुछेक जगह बुन्देलखंडी के स्थान पर अन्य क्षेत्रीय भाषा में संवाद बोले गए लगते हैं.. लेकिन कोई बात नहीं ये सभी नहीं समझ पायेंगे सिवाए बुंदेलों के... :P  साथ में खड़ी बोली का प्रभुत्व रखना तो जरूरी था ही वर्ना लोग फिल्म को समझ ही ना पाते और एक जबरदस्त फिल्म सिर्फ एक क्षेत्रीय फिल्म भर बन के रह जाती..
वैसे दोस्तों इसे क्षेत्रवाद ना समझा जाए.. वो तो थोड़ा सा अपनी बोली को लोगों को सुनते देख दिल को खुशी होने लगती है इसलिए ज़रा भभक गई ये मशाल.. वर्ना मुझे हमेशा अच्छा लगता है जब भी कोई क्षेत्रीय भाषा अपनी परिधि से बाहर निकल दुनिया के और क्षेत्रों के लोगों के कान में पड़ती है. पूरा विश्वास है कि बुंदेलखंड के बदहाल किसानों की दशा को हास्य के तरीके से ही सही लेकिन दर्शाने वाली इस फिल्म को आप देखने जरूर जायेंगे और उनकी समस्या को गंभीरता से लेंगे और क्या पता कि ये हास्य के साथ-साथ अंत में जाके कोई बड़ा गहरा सन्देश भी छोड़ जावे.
पूरी टीम ने ही जी-तोड़ मेहनत की है और वो सब बधाई के पात्र हैं.. फिल्म की सफलता के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं.. और साथ ही मेरा आमिर एंड कंपनी से अनुरोध है कि यदि संभव हो सके तो फिल्म से होने वाली कमाई का आधा प्रतिशत भाग उन गरीब लोगों की मदद के लिए भी दिया जाए जो इस क्षेत्र में वास्तव में बहुत तकलीफ के दौर से गुज़र रहे हैं. अगर ऐसा होता है तो उनकी समाजसेवा की ये पहल ना सिर्फ सरकार के मुँह पर एक तमाचा होगी बल्कि फिल्म इंडस्ट्री में एक और अच्छे नए चलन को जन्म देगी, एक आदर्श बनकर उभरेगी....
चलिए आप ये ३ मिनट का ट्रेलर देखिये अब मैं भी गाता हूँ... ''तोये बिन सजनी नींद नईं आवे कैसे गुज़ारूँ रात...''

एक ये कविता भी बांच लेना.. ताज़ी है कल ही बनाई..





एक महकती खुशबू की तरह 
ढंके रहती थीं तुम मुझे..
तुम्हारे जाने से 
आसपास की सारी हवाएं भी चली गयीं.. 
एक निर्वात पैदा हो गया
मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन ने भी
इंकार कर दिया 
गुरुत्वाकर्षण देने से..
अब त्रिशंकु बन गया हूँ बिना हवा बिना ज़मीन के मैं
एक शून्य सा पैदा हो गया जीवन में
जिसे जब अपने हिस्से में बांटने को चाहा
तो वो शून्य भी अवचेतन से अचेतन  कर गया..
मुझे भी शून्य बना गया 
और मेरे हिस्से कुछ ना आया..
दीपक 'मशाल'


 

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

उस शहर की लडकियां..---------------->>>दीपक 'मशाल'







बड़ा जुझारू शहर है वो 
उसमें रहते हैं साहसी लोग
जो नहीं डरते किसी तकलीफ से
ऐसा नहीं कि वहाँ नहीं आते
दैहिक दैविक और भौतिक ताप

बेशक रामराज्य नहीं वहाँ
पर लोग जिंदादिल हैं

तभी तो उसकी जड़ें नहीं खोखला कर पाता
कोई भी दीमक 
कोई उसकी नींव को 
नोना नहीं लगा पाता 
उसके फौलादी इरादों को 
जंग नहीं लगती कभी

ना बम धमाके रोक पाए उसे बढ़ने से
ना पड़ोसी देशों के घृणित इरादे
ना राम-रहीम के दंगे
ना भाषाई लड़ाईयाँ.. ना वर्गों के बीच के पथराव
ना डिगा सका भूकंप 
ना डेंगू.. ना कोई स्वाइन या बर्ड फ़्लू 
ज़रा थम के अगले ही दिन वो लगता है दौड़ने 
शल्य चिकित्सा के बाद 
रगों में दौड़ते नए लहू की मानिंद  

ये सब सुना-पढ़ा था मैंने उसके बारे में 
कभी अख़बारों कभी टी.व्ही. पे 
करीब से जाना ये सच 
फिर उस शहर में जाके..

सच में लोग चलते रहते हैं 
बिना विचलित हुए
लपटों के बीच से.. शोलों की ज़मीन पर भी
बाढ़ के पानी में भी 

आज उस शहर के जुनून को दुनिया को दिखाने के लिए
मैं ढूँढने निकला था कुछ पात्र
करने एक नायिका की तलाश  
आज ही किसी ने बताया
उस तथाकथित हिम्मती शहर में 
लड़कियां नाटक में काम नहीं करतीं

कई साल पहले शहर की 
एक मंचीय अभिनेत्री 
पड़ गई थी प्रेम में साथी कलाकार के 
तभी से 
वहाँ की लड़कियां नाटक में काम नहीं करतीं
दीपक 'मशाल'
चित्र गूगल से मारा है दोस्तों...

बुधवार, 21 जुलाई 2010

झूठा विजेता--------------->>>दीपक 'मशाल'

ऐ इतिहासकारों!!
तुम जब लिखना मेरे बारे में 
तो मेरे बारे में लिखना..
मेरे सच के बारे में
लिखना मुझसे जुड़ी हर बात के बारे में


बेशक लिखना तुम मेरा पराक्रम
मेरी तलवार का दुधारूपन
पर इसकी चमक से अंधे हो कहीं
उन विधवाओं का विलाप न भूल जाना
जो इस धार के द्वारा बनायीं गईं हों...


गुरेज नहीं होगा 
जो तुम मुझे महान बनाने के लिए
मेरे हाथ से दान हुए
चंद सिक्कों की गिनती को असंख्य लिखो
मेरी बोली को बादल की गरज
मेरी चाल को सिंह की तरह लिखो


पर कहीं ये सच भी लिखना जरूर 
कि आबनूसी माहौल में तैर जाते हैं
मेरी भी आँखों में वासनाओं के डोरे
हर आम इंसान की तरह...
उस क्षण के बारे में भी लिखना
हवस मुझपे होती है जब हावी


गर लिखो तुम युद्ध या शांति पर
मेरे फैसलों के बारे में
तो मत चूकना तुम ये बताना कि
मैं कभी न चुन पाया अपने वस्त्रों का रंग


दुश्मनों पर मेरे खौफ का असर कहने के 
पहले या बाद अवश्य उल्लेख करना
बिल्लियों के रुदन से डर जाना मेरा..
मेरे बहादुर वक्तव्यों के साथ
कापुरुषी विचार भी बताना दुनिया को..


जहाँ भी लगाओ मेरी विजय के उपलक्ष्य में स्तम्भ
वहीं मेरी हार को भी अंकित करना..
क्योंकि इतिहास की किताबों में छिप के बैठा
एक तथाकथित महान
मगर झूठा विजेता नहीं बनना मुझे..
दीपक 'मशाल'
(कविता 'परिकथा' साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित)
चित्र गूगल की देन है



एक चोरी का माल भी सुनिए..
अर्ज़ किया है ...
आओ सुलझाये मुद्दा हिन्दो पाकिस्तान का ..
भइय्या आओ सुलझाये मुद्दा हिन्दो पाकिस्तान का....
कि कश्मीर हो District पाकिस्तान का ...
और पाकिस्तान हो State हिंदुस्तान का !!
वाह वा.. वाह वा..

और चलते-चलते बारिश के मौसम में मेरा एक पसंदीदा गाना-

रविवार, 18 जुलाई 2010

देख अचरज भी है हैरानी भी है------------------>>>दीपक'मशाल'

साब जी अभी हाल में एक टूटी-फूटी रचना लिखी थी.. अब उसमे कुछ सुधार किया और गाने की गलती कर बैठा.. सोचा आपको भी सुना ही दूँ.. दिन अच्छा रहा होगा तो ख़राब हो जाएगा सुनने के बाद.. इस प्रयोग के लिए समीर सर का विशेष आभारी हूँ  :)
ध्यान दीजियेगा कि रचना में कुछ सुधार भी किया है और दो नए शेर(वैसे शेर नहीं कह सकते) भी जोड़े हैं....
इसको मेरी आवाज़ में सुनने के लिए नीचे P पर क्लिक करें...




देख अचरज भी है हैरानी भी है 


दुनिया अपनी भी है बेगानी भी है 

कैसे माने जहाँ विष पिलाए बिना
मीरा रानी भी है, दिवानी भी है 

तेरी बात पे क्या भरोसा करुँ
ये हकीकत भी है औ कहानी भी है 

ज़िंदगी तू बड़ी अजब फिल्म है
तू दहशत भी है रूमानी भी है 

आज शाम मैं तेरी याद के साथ हूँ
ये सुहानी भी है विरानी भी है

आदत-ए-वफ़ा से हूँ परेशान मैं
ये नई सी भी है औ पुरानी भी है 

ना पूछो उसकी बेरुखी को 'मशाल'
भूलने का सबब भी निशानी भी है.
दीपक'मशाल'

नीचे दिए गए P पर क्लिक करें




गुरुवार, 15 जुलाई 2010

थोड़ी लपकोईं(फेस एक्सप्रेशन प्रेक्टिस) और एक रचना..---->>> दीपक 'मशाल'

वो है क्या की महीनों से कोई प्ले/ड्रामा नहीं किया... 
आज शाम को थोडा फालतू था तो सोच कि चेहरे की मांसपेशियों को आजमा लिया जाए कि ठीक से काम कर रही हैं या नहीं??? 
याने अभिनय लायक बची हैं कि नहीं.. सो ऐसा सोचते-सोचते कई तस्वीरें निकाल डालीं 
उसके बाद अपने ही चेहरे पर रीझ कर कुछ और-कुछ और.. करता गया.. :P  
                               अंत में कई साल पहले जो भूत बना था वो फिर बनने की कोशिश की                     
                                                      और तस्वीरें भी निकाल लीं.. ज़रा देख लो भाया.. भूत वाले फोटो तेज़ी से स्क्रोल करें और भी मज़ा आएगा देखने में..

एक हाल की रचना भी है.. बुरा न मानें तो..
देख अचरज भी है हैरानी भी




दुनिया अपनी भी है बेगानी भी


कैसे माने जहाँ विष पिलाए बिना
मीरा रानी भी है, दिवानी भी

                                        तेरी बात पे क्या भरोसा करुँ
                                           ये हकीकत भी है औ कहानी भी

                                            ज़िंदगी तू बड़ी अजब फिल्म है
                                            तू दहशत भी है रूमानी भी

                                           आज शाम मैं तेरी याद के साथ हूँ
                                           ये सुहानी भी है विरानी भी..
उम्मीद है आज कि आज की बकवास के लिए माफ़ कर देंगे.. बस ऐसे ही कुछ बेमतलब का लगाने का मन हुआ सो लगा दिया..
दीपक'मशाल'
तो अब यहाँ देखिये रुपये का वो सिम्बल जिसे स्वीकार कर लिया गया है.. इसके डिजाइनर के साथ.. और नीचे बाकी ५ फाइनलिस्ट..


सोमवार, 12 जुलाई 2010

बीहड़ की शादी(अंतिम भाग)------->>>दीपक'मशाल'

धर्मशाला में कुछ देर आराम फरमाने के बाद जब नाश्ते-खाने के वक़्त वीडिओ कैमरे की हैलोजन लाईट के लिए जनवासे के जनरेटर मालिक से कनेक्शन देने के लिए कहा तो वो ऐसे नखरे दिखाने लगा के जैसे मन्नू बाबा(मनमोहन सिंह) से कीमतें कम करने के लिए कह दिया हो.. किसी तरह दुल्हन के भाई को समझाया कि बिना लाईट के शादी की रेकोर्डिंग नहीं हो पायेगी, तब जाके कहीं थोड़ी सी उधार की बिजली नसीब हुई.. उसके बाद हमारा तहलका डोट कॉम चालू हुआ कि किसने कितनी कचौड़ी और कितने रसगुल्ले उड़ाए.. एक सच्चाई से वाकिफ हुआ कि चाहे गाँव हो, क़स्बा हो या शहर हो चाट के चटोरे हर जगह पाए जाते हैं.. सो यहाँ भी कोई अपवाद ना मिला और चाट के लगाये गए छोटे से ठेले पर सब एक दूसरे को ऐसे ठेले जा रहे थे जैसे कि किसी ने कह दिया हो 'कल क़यामत का दिन है जितनी चाट खानी हो आज ही खा लो' 
अब बरात को लगाने का वक़्त आया तो पता चला कि गाँव में घोडा-घोडी तो थे नहीं अलबत्ता ट्रेक्टर को ही हंस का रूप दे दिया गया और बड़ी शान के साथ दुल्हेराजा 'ये देश है वीर जवानों का.. ' के उत्साहवर्धक संगीत के साथ(बैंडबाजे वाले मिल गए थे ये गनीमत रही) वधूपक्ष के घर की तरफ चले.. हमें शूटिंग करने में बहुत मुश्किलें हुईं.. एक तो मुझे रात में जागने की आदत नहीं थी तो आँखों में नींद भरी थी.. ऊपर से हर मवाली अपनी बत्तीसी कैमरे को डैन्टोव्हाईट के एड की तरह पेश कर रहा था.. लगता था कि अभी उसी में घुस जाएगा.. ऊपर से बार-बार कैमरे और हैलोजन की वायर पर चढ़ जाते और पूरी दम से लगते उसे कुचलने.. कभी मन करता कि जोर से खींच दूँ तोअभी एकाध गिरेगा लेकिन अगर डोरी टूट जाती तो कोई झटका खाता इसलिए मन मसोस कर रह गया.. 
थोड़े से धूम-धड़ाके और सुर-असुरों(शराबी-गैरशराबी) को ढोती हुई वो बरात लड़की वालों के दरवाजे पर पहुँची जहाँ लाईट की सिर्फ एक-दो झालर लटकी थीं, दो-चार बल्ब, ४ ट्यूब लाईट और  चिलकनी वाली झालरें लेकिन ऐसा कुछ नहीं की वधूपक्ष वाले ऊर्जा का अपव्यय न करने के पक्ष में थे.. असल में ये मजबूरी थी क्योंकि बस एक ही जनरेटर जो था.. तिरपाल खिंची हुई थी और ४ तख्तों को मिला कर बनाये गए मंच पर दो लाल रंग की महाराजा कुर्सियां सजाई गयीं थीं, जिसके सामने एक चाय-टेबल पर गुलदान भी रख दिया गया था.... उस समय लोहे की कुर्सियां बहुत चलती थीं जिन पर टेंटहॉउस का नाम बुना रहता था, सो वही सभी बारातियों के लिए लगाईं गयी थीं.. गले में गेंदे की माला डाल और चन्दन का तिलक लगा हर बाराती का स्वागत हुआ तो आप ही बताइए हर कोई अपने को नवाब क्यों न समझता भला.. एक बार फिर शरबत आया केवड़े का.. 
उधर चमकीली पगड़ी पहने, मुँह में पान दबाये और सफ़ेद सफारी सूट में सजे बन्ने को हंस से लड़की के मामा ने उतारा और कईयाँ में ले के द्वारचार के लिए ले गए.. वहीं पर अपने सिरों पर ३-४ कलशे सजाए खड़ीं और ब्याह गीत गा रही महिलायें थीं.. २-३ मुच्छड़ दुनालीधारी लोगों ने जब फायरिंग की तो मुझे लगा की अब कोई दस्यु-सम्राट आ गया.. लेकिन पता चला की दुल्हे के दोस्त महाशय थे.. और ये बंदूकबाजी बड़ी शान समझी जाती है ब्याह-बारातों में.. टीका-जयमाल के लिए लड़की भी आ गयी अपने हाथों में गेंदे और गुलाब की माला लिए, जिसे देवी-देवताओं के जयकारों के बीच वर-वधु ने एक दुसरे को पहिनाया.. अभिनन्दन पत्र पढ़ा गया जिसमे सभी रिश्तेदारों के नाम सहेजे गए थे..
अब एक बार फिर सब खाने पर मक्खियों कि तरह भागे लेकिन गाँव में वुफे जैसा कुछ नहीं था इसलिए सबको शराफत से जमीन पर ही आसन लगाना पड़ा.. पिछली से पिछली पोस्ट में जो बताया था उसी तरह का खाना परोसा गया.. महकती पत्तलों पर.. सब ठीक था लेकिन मोटी-मोटी पूड़ियों ने जरा सा मज़ा खराब कर दिया था.. हाँ मगर बैगन-टमाटर की सब्जी लाजवाब थी.. पर मुझे क्या पता था कि ये बैगन-टमाटर कि सब्जी ही अभी मेरे लिए  दुश्मन बन जायेगी(अरे बात को सुबह तक मत ले जाइए.. डर्टी माइंड.. अभी थोड़ी देर बाद ही कुछ होने वाला है)
खाने-पीने के बाद मंडप-तेल चढ़ाने, पाँव-पखारने की रस्म चालू हुई.. पीछे से गारियों के स्वर सुनाई दे रहे थे.. लड़के के मामा-पापा-चाचा पर जम के अश्लील शब्दों का प्रहार हो रहा था.. उस समय मुझे ऐसी चीजों से बड़ी नफरत थी. लगता था ये भी कोई बात होती है भला कि शादी जैसे मौके पर इतनी गंदी बातें बोली जा रही हैं.. 
अचानक वहाँ की कुछ मसखरी लड़कियों और औरतों को क्या सूझा कि उन्होंने मुझे निशाना बनाया और एक बाल्टी में बैगन-टमाटर और आलू की सब्जी को तनु(डायल्यूट/पतला) कर, पानी में घोल बनाया और जोर की छपाक की आवाज़ के साथ मेरे ऊपर फेंक दिया.... २ मिनट को मेरी समझ में ही नहीं आया कि ये हुआ क्या.. आँखों में बैगन(भाटे) के बीज और नमक से तिलमिलाहट हो रही थी.. पर मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ थी कि मेरे कपड़ों का सत्यानाश हो गया था. जाने वो सब मेरे कपड़ों पर रीझी थीं या मेरे चौखटे पर या सिर्फ कोई खुन्नस निकाल रही थीं.. सभी मेरी दशा पर हंस रहे थे और वो औरतें और लड़कियां हर दूसरे सेकेण्ड दाँत निपोरे जा रही थीं.. 
बस पापा ने आव देखा ना ताव और बोले अब कोई रेकोर्डिंग नहीं होगी.. 
सब परेशान हो गए कि ठाकुर साब को क्या हो गया(असल में ऊंची-पूरी कद-काठी के कारण कई लोग पापा को ठाकुर ही समझते/कहते थे).. पर उन्होंने साफ़ कह दिया कि, ''ये औरतें हैं आपके यहाँ की? इन्हें जरा भी तमीज नहीं.. अगर कोई शोर्ट-सर्किट हो जाता.. हैलोजन पकड़े जो मेरा बेटा खड़ा है उसको करेंट लग जाता तो उसका कौन जिम्मेवार होता? एक तो काम वाले लड़के ना होने पर भी मैं खुद शूटिंग करने आया कि बरात ना ख़राब हो और उसका ये नतीजा मिला?''
अब यहाँ पासा उल्टा पड़ते देख वो औरतें भी माफ़ी मांगते सामने आयीं और लम्बे से घूंघट के पीछे से ही क्षमा याचना करने लगीं.. मुझे लगा कि बेचारे दुल्हे को भी फील हो रहा होगा कि मेरी शादी में किसी और के मनौये लिए जा रहे हैं.. आखिरकार पिताश्री मान गए पर इस शर्त पर कि अब लाईट पकड़ने के लिए लड़की पक्ष का ही कोई व्यक्ति मदद करेगा क्योंकि मैं बुरी तरह भीग चुका था और शायद बारिश की वजह से काँप भी रहा था.. 
मैं वापस धर्मशाला आकर कपड़े बदलकर सो गया और बाकी की शादी ना देख पाया.. पर उस समय मुझे उसका कोई मलाल भी ना हुआ था क्योंकि आँखों में नींद जो भरी थी और खुद ही निद्रादेवी की गोद की तरफ भागना चाह रहा था वो तो भला हो उन महिलाओं का जिन्होंने मुझे बहाना दे दिया... 
दूसरे दिन सुबह जब आँख खुली तो पिताश्री की आँखें नींद कि वजह से लाल थीं और विदा होने वाली थी.. मैंने चाय के साथ वो ग्रामीद क्षेत्रों का टिपिकल जलेबी-पकोड़ियों का नाश्ता किया और महिलाओं के रूदन के बीच में से निकलता हुआ ट्रेक्टर में जा बैठा.. क्योंकि बस वाले भाईसाब ने इसबार अन्दर आने से साफ़ इंकार कर दिया था और मुख्य सड़क तक ट्रेक्टर से ही जाना था, और फिर हिचकोले खाता बस की तरफ चल दिया.. वैसे आपलोग अगर कभी ट्रेक्टर की सवारी करेंगे तो मेरी तरह मानने लगेंगे कि शकीरा के डांस को ट्रेक्टर सवारी डांस भी कह सकते हैं..

ऐसे ही एक बार एक और गाँव गया था जहाँ धर्मशाला के नाम पर एक खलिहान था और वो गाँव बिच्छुओं के लिए कुख्यात था.. जब रात में खलिहान में, खुले में खटिया पर सोने को कहा गया तो सारे बाराती भाग कर बस में चढ़ के सो गए.. अच्छा था कि उस गाँव में बस जा सकती थी.. और तो और सुबह नहाने के लिए सबको एक पक्के तालाब का रास्ता दिखा गया था..वो तो अच्छा था कि उसमे मैं भी ठेठ बाराती बन के गया था तो जल्दी ही बिना पूरी शादी किये विपक्षी सांसदों की तरह उस शादी-संसद से वापस खिसक लिया था.. पर घबराइए नहीं अब और शादी के किस्से सुनाकर आपको पकाऊंगा नहीं.. :)
इतना लम्बा किस्सा झेलने के लिए शुक्रिया कहूं तो चलेगा क्या???
एक झलक ये भी देखिये..  
आपका-
दीपक 'मशाल'
चित्र गूगल और विडियो यूट्यूब से..

रविवार, 11 जुलाई 2010

बीहड़ की शादी-------->>> दीपक 'मशाल'

 हफ्ते भर पहले आपसे बोल कर गया था कि आपको बीहड़ की शादी के बारे में बताऊंगा कुछ.. लेकिन अंतर्जाल की अनुपलब्धता और काम के जाल में ऐसा फंसा कि लिखने-पढ़ने का समय ही नहीं मिल पाया.. आज किसी तरह लिख रहा हूँ तो सुनियेगा..
 ऐसे ऐसे हुआ क्या कि एक दिन मैं शाम के वक़्त खेल के जैसे ही घर लौटा कि कानों में एक फरमान सुनाई दिया,''आज की शादी में वीडिओग्राफी के लिए जाने वाले दोनों लड़के कहीं अपने रिश्तेदार के यहाँ शादी में गए हैं इसलिए आज की साई पर मुझे खुद जाना पड़ेगा और मदद के लिए तुम भी चलो साथ में..''
सुनकर मेरी जैसे जान निकल गई.. अगले दिन जरूरी क्लास, कपडे न धुले होने, जूते न पोलिश होने जैसे कितने बहाने गिनाये लेकिन.... आखिरकार मन मार कर बस में बैठना ही पड़ा उस बरात में जाने के लिए.. अब बस में बैठने पर पता चला कि हमारे यहाँ से करीब १०० किलोमीटर दूर बारात जानी थी एक ऐसे गाँव में जहाँ सुनते हैं कि डाकुओं का आना-जाना लगा रहता है और वो गाँव मुख्या सड़क से १०-१२ किलोमीटर अन्दर जा कर था. सुनकर और भी दिमाग भन्ना गया कि पिताश्री ने कहाँ फंसा दिया..
'बोल कालका माई की जय... शेरावाली मैया की जय.. वृन्दावनबिहारी लाल की.. जय..... के नारों के साथ बस स्टार्ट होके चली और रस्ते में १-२ जगह रूककर.. नमकीन और बूंदी के नाश्ते के साथ गाते-ऊंघते :) बस आखिरकार उस जगह पहुँची जहाँ से मुख्य सड़क ख़त्म और कच्चा रास्ता शुरू होता था..  
तो अब भईया शुरू हुआ असली खेल तमाशा.. पता नहीं दूल्हे-दुल्हिन ने कड़ाही हाथ में लेकर चाटी थी या कड़ाही में बैठ कर ही चाट मारा था कि अचानक ही बारिश शुरू हो गयी. अब जिस रस्ते से जाना था वो इस तरह था कि दायीं
 तरफ काफी बड़ी नहर थी और बाईं तरफ खेत.. लेकिन खेत करीब एक-डेढ़ मीटर नीचे था और कच्चा रास्ता जो सिर्फ एक ट्रेक्टर निकलने भर की इज़ाज़त देता था और बारिश से वो भी रपटीला हो गया था.. ड्राइवर साहब ने समझाने की कोशिश की कि ''देखिये भाई लोग कोई ट्रेक्टर मंगवा लीजिये क्योंकि ऐसे रास्ते पे बस नहीं जा पाएगी.. पलटने का खतरा है.'' लेकिन बाराती तो एक दिन के नवाब होते हैं सरकार.. वो कहाँ मानने वाले थे ट्रेक्टर जैसे घटिया खेतिहर वाहन में बैठने को.. झक मार के बस ड्राइवर ने बस को इस तरह उस रास्ते पर उतारा कि बस के पीछे वाले बाएं तरफ के दो पहियों में से एक हवा में था और बाकि सब उस रपटीली-चिकनी कच्ची सड़क पर.. ३-४ किलोमीटर तो वो बस-चालक बेचारा चालाकी से अपने स्किल्स का कामयाबी से यूज करते हुए बस को आगे ढरका ले गया लेकिन एक जगह वो रपटीली सड़क बेवफाई कर गई और बस खेत की तरफ को करीब ३०-३५ डिग्री के कोण पर झुक गयी..  लेकिन पीछे से ''भवानी मैया की जय'' के नारों के बीच बस 'वीर तुम बढे चलो-धीर तुम बढे चलो' करती हुई आगे बढ़ती गई.. पता नहीं कि औरों के क्या हाल थे लेकिन मेरे जरूर अंडे सटक रहे थे क्योंकि मैं खेत वाली साइड में खिड़की पर जो फंसा बैठा था.. फंसा इसलिए माई-बाप कि मैं आपको ये बताना भूल गया कि हमारे यहाँ की ए.सी.(खिड़की में शीशे नाम के तत्व नहीं पाए जाते और बस के चलने पर बस के अंग-अंग में लगे सारे पेंचों के हिलने से निरंतर एक सुरम्य संगीतमय आर्केस्ट्रा चलती रहती है..) बसें जो कि दिल्ली में १०-१२ साल चल चुकने के बाद हमारी सड़कों पर अपना बचा हुआ दम-ख़म आजमाती हैं और उनमे ५५-६० सीटों पर ९० के आस पास सवारियां बड़े आसानी से फंसाई जाती हैं.. चाहे वो बारात का सफ़र हो या पिकनिक का या किसी अन्य शहर जाने का..
और एक जगह वही हुआ जिसके न होने के लिए मैं बराबर हनुमान चालीसा गाये जा रहा था.. यानी बस एक पवित्र स्थान पर ऐसी लटकी कि ज़रा से झटके में फ़िल्मी स्टाइल में स्पिनाती हुई खेत में जा गिरती.. लेकिन वो तो चालक  जी ने चालाकी से सबको फटाफट नीचे उतरने को बोला एक-एक करके पहले खेत वाली तरफ की सीटें खाली हुईं फिर नहर की तरफ वालीं.. मैं भी अपने कैमरे का झोला समेटे राम-राम करता नीचे उतर गया.. जान बची तो लाखों पाए..
उसके बाद ड्राइवर महोदय ने बड़ी कुशलता मगर कुछ मुश्किल से बस को सम्हाला और रास्ते पर लाया.. लेकिन फिर आगे जाने की बात आने पर हाथ खड़े कर दिए.. तभी हल्की बारिश भी चालू हो गयी.. किसी तरह भींजते-भांजते हम लोग करीब ६-७ किलोमीटर पैदल चलते उस गाँव पहुंचे..
पहुँचने पर हाज़िर हुआ ''रूह-अफज़ा..'' और जिसे पीने के बाद हम फिर से अनारकली की तरह नृत्य करने को उठ बैठे.. गाँव में बिजली सिर्फ तभी नज़र आती जब बारिश होती और बादल गरजते या फिर जब कोई शादी होती. . यहाँ भी सिर्फ कुछ बल्ब और ट्यूबलाईट जगमगाने के लिए जेनरेटर को मंगाया गया था...
(पोस्ट बड़ी होने जा रही लगती है.. है कि नहीं भाई साब/ बहिन जी.. चलिए बाकी १-२ दिन में सुना देंगे.. तब तक एक बिहारी विवाह का गीत झेलिये.. :) )


दीपक 'मशाल'

सोमवार, 5 जुलाई 2010

गाँव की शादी के बारे में एक पोस्ट(एक कविता मुफ्त में)----------->>>दीपक 'मशाल'



अभी दो दिन पहले रश्मि रविजा जी के ब्लॉग पर भारत के गाँव की शादी के बारे में एक पोस्ट पढ़ी तो सोचा कि इस विषय में मैं भी कुछ अपना भी ज्ञान बघार ही दूँ... वो क्या है कि एक तो मैं छोटे से कस्बे से हूँ.. और उसपे सोने पे सुहागा ये कि मेरे यहाँ पिछले ५५-६० सालों से फोटोग्राफी का व्यवसाय हो रहा है.. इसलिए कई बार मुझे भी इसी कारण ठेठ गाँव की शादियों में शामिल होना पड़ा.. अब एक बात जिसे मैं अकाट्य समझता हूँ वो ये है कि एक कस्बाई व्यक्ति ना सिर्फ शहर और गाँव के बीच की कड़ी होता है बल्कि दोनों संस्कृतियों को अपेक्षाकृत बेहतर तरीके से समझ सकता है.. खासकर जब उसके कुछ रिश्तेदार गाँव में हों और कुछ शहर में.. वो एक ऐसे विशाल वृक्ष की तरह होता है जिसका तना तो कस्बे में होता है जड़ें गाँव में और पत्ते शहर में.. 
तो है क्या कि मेरा ननिहाल गाँव में ही पड़ता है.. इसलिए बचपन से ही गाँव की शादियाँ देखने का सौभाग्य मिलता रहा.. अभी तक अपने सर पर गत्ते की चमकीली टोपी पहने.. सीने से क्रोस आकार में सफा बांधे और गले में १-२  या ५ के नोटों की माला डाले.. माथे पर भोहों के किनारे से लाल सफ़ेद टिपकियां रचवाये, अपने एक हाथ में सींकों में पूड़ी फंसाए और दूसरे में दोने में कुछ बतासे वगैरह लिए दूल्हों की तस्वीर नहीं भूल पाया हूँ.. 
और अच्छे से याद है कि पहले जब कार्ड नहीं चलते थे तो जिसके घर से एक लोग को बुलाना हो उसके घर के बाहर एक ईंट और जिसके घर से सपरिवार(चूल) बुलाना हो उसके घर के बाहर २ ईंटे रख देते थे.. और शादी वाले घर के सगे लोगों को बुलाने के लिए नाइ चूल का न्योता देने जाता था..
खाने की पत्तल में वो देखने में लाल रंग की और खुश्बू से ही भूखदेव को निद्रा से जगाने वालीं आलू-टमाटर या कभी मटर की तरी वाली सब्जी, आलू-गोभी बैंगन(भटे-टमाटर) की या कद्दू की वो स्वादिष्ट सब्जियां.. बूंदी का रायता.. दही-बड़ा, नमकीन(दालमोंठ), पिसी हुई चीनी, रसगुल्ले, बालूशाही, बर्फी के दोने, कुल्हड़ में परोसा गया बर्फ की सिल्ली से ठंडा किया गया वो पानी और सबसे ख़ास वो गरमागरम पूड़ियाँ.. मुँह में पानी आ गया लिखते हुए ही..
बन्ने या बन्नी(शादी के प्रचलित लोकगीत) जब ढोलक की थाप पर गाये जाते थे तो क्या आनंद आता था ''आहहा आ.. क्या कहने''
''महंगाई का ज़माना.. मेहमान ना भुलाना.. बन्ना(दूल्हेराजा) याद रखोगे या भूल जाओगे...''
पंडित जी और नाइयों के झगड़े, नखरे.. दूल्हे के बाप-चाचा के मनौये.. जूता चुराई.. कुँवर-कलेऊ(हमारे क्षेत्र में गाँव में दोपहर के भोजन को कलेऊ और रात के को ब्यारू कहते हैं..), बाती-मिलाई में लड़के के अंदाज़.. सब एक से बढ़कर एक..
मेरा एक बड़ा रोचक किस्सा भी जुड़ा है एक बीहड़ के गाँव में शादी से.. पर अगली पोस्ट में ही लगाऊंगा.. अब इतना इन्तेज़ार तो कर ही लेंगे आप.. :) तब तक ये पुरस्कृत कविता भी झेल ही लीजिये..



अधूरी जीत



तुम्हारे सच के लेबल लगी फाइलों में रखी
झूठी अर्जियों में से एक को
एक कस्बाई नेता की दलाली के जरिये
मेरे कुछ अपने लोग
हकीकत के थोड़ा करीब ले आये

आज बोलने पड़े कई झूठ मुझे
एक सच को सच साबित करने के वास्ते
वो झूठ जो तुम्हारे ही एक
कानून के घर में सेंध लगाने वाले विशेषज्ञ ने 
लिख कर दिए थे मुझे

कतई नामुमकिन नहीं
कि कुछ भी अजीब सा ना लगे इसमें तुम्हें
क्योंकि तुम्हारे लिए हो चुका है ये
दाँत मांजने जैसा
पर मेरे लिए अभी भी अजीब
या शायद बहुत अजीब ही है ये
कि मेरे सच की कमाई
एक झूठ को झूठ साबित करने में लग गई

किसी ने कहा भी तो था पीछे से
कि 'कुछ खर्च हुआ तो हुआ
पर सच जीत ही गया आखिरकार'
और आज मैं एक बिन किये अपराध का
छोटा सा अपराधी बन
मुचलके पर रिहा हो रहा हूँ
अब बस इंतज़ार है
कल के अदालती चक्करों का..

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

'कभी मगरिब से मशरिक मिला है जो मिलेगा...(पश्चिम और पूरब के युवाओं में अंतर)-------------->>>दीपक 'मशाल'

'कभी मगरिब से मशरिक मिला है जो मिलेगा... जहाँ का फ़ूल है जो.. वहीं पे वो खिलेगा...' फिल्म जब-जब फूल खिले के गीत यहाँ मैं अजनबी हूँ का ये मुखड़ा बहुत कुछ कह जाता है.. पर यहाँ मैं थोडा हट कर आज भारत की नहीं बल्कि पश्चिम की मुखालफत करने जा रहा हूँ.. ऐसा नहीं की मैं अपने देश से प्यार नहीं करता या पश्चिम को बहुत चाहता हूँ.. लेकिन फिर भी यहाँ कई सारी बातें ऐसी देखने को मिलीं जिनके बारे में जब सोचता हूँ तो अपने आप ही मन में भारत के युवाओं और यहाँ के युवाओं के बीच तुलना होने लगती है.. कई सारी बातें हैं जो भारत दुनिया को सिखा सकता है और उसी तरह कई बातें ऐसी भी हैं जो हम दुनिया से सीख सकते हैं..
जैसे कि आप भी सोचिये कि हमारे यहाँ यूनिवर्सिटी या किसी कॉलेज में जो छात्र संगठन होते हैं उनका कॉलेज की व्यवस्था या अनुशासन बनाये रखने में कितना योगदान होता है???.. अगर मैं गलत नहीं  तो आजकल विभिन्न राजनैतिक पार्टियां इन युवाओं का उपयोग अपना वोटबैंक बनाने-बढ़ने में लगी रहती हैं और जो छात्र या संगठन अध्यक्ष/ महासचिव के लिए चुन लिया जाता है वो अपना फैदा पहले देखता है.. यहीं से नींव पड़ती है मलिन व भ्रष्ट राजनीति की.. और फिर वो छात्र नेता जल्द से जल्द किसी राजनैतिक पार्टी के झंडे तले एक बड़ा चुनाव लड़ने की सोचने लगता है.. 
जबकि यहाँ ऐसा नहीं है... बेशक महत्वाकांक्षा यहाँ के छात्र नेताओं की भी होती हैं.. लेकिन ये अपने मकसद को पूरा करने के लिए बेकार की हड़ताल और कॉलेजबंदी नहीं कराते.. सिर्फ उन्ही मुद्दों को उठाते हैं जिनमे उन्हें लगता है कि यहाँ किसी छात्र के साथ अन्याय हो रहा है जो नियमविरुद्ध है.. सिर्फ अपनी राजनीति चमकाने के लिए नारे लगाऊ नेतागीरी नहीं करते.. न ही चुनाव जीतने के लिए कट्टे-बंदूकबाजी होती है यहाँ..

यहाँ के लड़के-लड़कियों को मैंने कभी सिफारिश लगवाते नहीं देखा.. कभी प्रश्नपत्र आउट करते या नंबर बढ़वाते नहीं सुना.. अगर किसी छात्र का पिता प्रोफ़ेसर है तो भी उसमे और अन्य छात्र में कोई भेदभाव होते आमतौर पर नहीं देखा जाता.. और न ही अभिभावक खुद अपने बच्चों की नौकरी वगैरह के लिए अपने रसूख का इस्तेमाल करते पाए जाते हैं.. तो बताइए क्या इसे स्वाभिमान नहीं कहते??

ये लोग बदनाम हैं कि बहुत शराब पीते हैं.. पर यहाँ जितनी सड़क दुर्घटनाएं होती हैं वो हमारे देश से सैकड़ों गुना कम हैं... वैसे ये भी कह सकते हैं कि इस मामले में यहाँ की पुलिस सख्त है.. पर जैसे भी है है तो सही.. दुर्घटनाएं तो नहीं ही होती हैं न..

हमारे यहाँ बच्चों के बड़े होते ही उनके शादी-ब्याह की चिंता सताने लगती है.. अगर बेटी है तो समझिये लोग पैदा होते ही पैसा जोड़ने में लग जाते हैं.. पर यहाँ दहेज़ के लेन-देन जैसी बुराई भी नहीं है.. बच्चे बड़े होकर जब अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं तो योग्य जीवनसाथी चुन कर खुद ही माँ-बाप को बता देते हैं और अपने ही पैसों से अपनी शादी करते हैं.. खर्च होता है सिर्फ दूल्हा-दुल्हन का.. क्योंकि उनको अपने माता-पिता को उपहार जो देने होते हैं.. ज्यादा हुआ तो अभिभावक उनके सम्मान में भोज रख लेते हैं वरना कई बार भोज भी नवदंपत्ति अपने ही धन से आयोजित करता है..
अपनी राय दीजिए क्या इनकी ये अच्छाइयां अपनाने योग्य नहीं क्या इनको अपनाना सच में बहुत मुश्किल है???
अंत में मेरी पसंद का ये बेहतरीन गाना सुनियेगा..

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