जब पहली बार मैंने महंगाई के मुद्दे पर एन डी टी वी पर एक लोकगीत जिसके बोल ''सखी सइयां तो खूबई कमात है... महंगाई डायन खाए जात है....'' सुना तो आश्चर्य मिश्रित हैरानी हुई कि ये कैसे चमत्कार हो गया कि बुन्देलखंडी क्षेत्रीय भाषा को इतनी तरजीह देते हुए इन चैनलवालों ने ये बुन्देली लोकगीत ही समाचार चैनल पर गबवा दिया? लेकिन चंद दिनों बाद रहस्योद्घाटन हुआ(कम से कम मेरे लिए तो) कि ये रघुवीर यादव अभिनीत आमिर खान प्रोडक्शन की अगली फिल्म है.
खैर ये हम बुन्देलखंडीयों के लिए तो गर्व करने लायक बात है ही कि उनकी बोली भाषा को लोगों की नज़र में लाया जाएगा(ये अलग बात है कि लोगों की नज़र उन पर जिस वजह से पड़ेगी वो सरकार के लिए सिरदर्द बन सकती है) .. आमिर वास्तव में बधाई के पात्र हैं जो आज के समय में भी शुद्ध ग्रामीण परिवेश वाली फिल्म को प्रोत्साहित कर रहे हैं.. संभव है कि इसके सफल होने पर जल्द ही बिना बनावट की चादर ओढ़े असली गावों को दर्शातीं कुछ और फ़िल्में लोगों को देखने को मिलेंगीं और इस तरह का ट्रेंड भी कुछ समय के लिए सही लेकिन चल सकता है. जिस समस्या को उठाया है वो भी बुंदेलखंड की सबसे भयावह समस्याओं में से एक है.. अभी हाल में इसी पर तहलका पत्रिका ने भी एक विशेषांक 'बेहाल बुंदेले बदहाल बुंदेलखंड' के नाम से निकाला था.
अभी तक जितने भी ट्रेलर देखे हैं उन्हें देख के तो यही लगता है कि भले ही रघुवीर यादव के अलावा बाकी अन्य कलाकार नामी-गिरामी ना हों लेकिन थियेटर और एन.एस.डी. से चुने गए ये बेहतरीन कलाकार किसी भी स्थापित कलाकार को मुंहकी दे सकते हैं..
मुझे सबसे ज्यादा चकित तो उन बूढ़ी अम्मा ने किया जिन्होंने खाट पर पड़े-पड़े ही हमारे बुन्देली गाँव की नानी-दादियों (लगता है जैसे मेरी परदादी जिनका अभी कुछ साल पहले १०४-५ साल की उम्र में देहावसान हुआ वो फिर से जीवित हो उठी हैं इन कलाकार के रूप में) को साकार कर दिया है.. हाथ हिलाते हुए उनके ताने देना सौ प्रतिशत स्वाभाविक लगते हैं.. पता नहीं कैसे किसी ग्रामीण महिला से इतना जबरदस्त अभिनय कराया गया या फिर अगर वो कोई शहरी मंजी हुईं कलाकार हैं तो कैसे उन्होंने एक ग्रामीण महिला के किरदार को इतना बारीकी से पकड़ा और निभाया.. उसी तरह नत्था की पत्नी बनी अभिनेत्री भी अपने किरदार को बड़ी खूबी से एक देहाती बुन्देलखंडी की तरह जीती लगी.
सिर्फ वो ही नहीं बल्कि गाँव का हर शख्स इस तरह दिख रहा है जैसे ये कोई फीचर नहीं बल्कि दस्तावेजी फिल्म हो.. आप खुद ही देखिये नीचे ट्रेलर में 'हाथ कंगन को आरसी का'. जरा उस दृश्य पर भी गौर करना जिसमे नत्था रघवीर यादव(चरित्र का नाम पता नहीं) के पीछे धूल में डंडी घुमाते हुए मस्ती में 'तोये बिन सजनी नींद नईं आवे कैसे गुज़ारूँ रात' गाता हुआ चला जा रहा है.. क्या ऐसे दृश्य आपने किसी फिल्म में देखे हैं? या सिर्फ गाँव में ही? हाँ मगर थोड़ा मीडिया वाले दृश्यों में नाटकीयता का मोह नहीं तज पाए इसलिए वो ज़रा कमज़ोर बन पड़ते हैं..
ना सिर्फ अभिनय बल्कि बॉडी लेंग्वेज भी कमाल की ही लग रही है अब तक तो.. कलाकारों के मेकअप, वेश-भूषा को देख कर लगता है कि कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ी बस किसी गाँव में घुस गए और लोगों से कुछ ना कुछ बोलने भर को कह दिया और शूट करके वापस चलते बने.. :) कुछेक जगह बुन्देलखंडी के स्थान पर अन्य क्षेत्रीय भाषा में संवाद बोले गए लगते हैं.. लेकिन कोई बात नहीं ये सभी नहीं समझ पायेंगे सिवाए बुंदेलों के... :P साथ में खड़ी बोली का प्रभुत्व रखना तो जरूरी था ही वर्ना लोग फिल्म को समझ ही ना पाते और एक जबरदस्त फिल्म सिर्फ एक क्षेत्रीय फिल्म भर बन के रह जाती..
वैसे दोस्तों इसे क्षेत्रवाद ना समझा जाए.. वो तो थोड़ा सा अपनी बोली को लोगों को सुनते देख दिल को खुशी होने लगती है इसलिए ज़रा भभक गई ये मशाल.. वर्ना मुझे हमेशा अच्छा लगता है जब भी कोई क्षेत्रीय भाषा अपनी परिधि से बाहर निकल दुनिया के और क्षेत्रों के लोगों के कान में पड़ती है. पूरा विश्वास है कि बुंदेलखंड के बदहाल किसानों की दशा को हास्य के तरीके से ही सही लेकिन दर्शाने वाली इस फिल्म को आप देखने जरूर जायेंगे और उनकी समस्या को गंभीरता से लेंगे और क्या पता कि ये हास्य के साथ-साथ अंत में जाके कोई बड़ा गहरा सन्देश भी छोड़ जावे.
पूरी टीम ने ही जी-तोड़ मेहनत की है और वो सब बधाई के पात्र हैं.. फिल्म की सफलता के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं.. और साथ ही मेरा आमिर एंड कंपनी से अनुरोध है कि यदि संभव हो सके तो फिल्म से होने वाली कमाई का आधा प्रतिशत भाग उन गरीब लोगों की मदद के लिए भी दिया जाए जो इस क्षेत्र में वास्तव में बहुत तकलीफ के दौर से गुज़र रहे हैं. अगर ऐसा होता है तो उनकी समाजसेवा की ये पहल ना सिर्फ सरकार के मुँह पर एक तमाचा होगी बल्कि फिल्म इंडस्ट्री में एक और अच्छे नए चलन को जन्म देगी, एक आदर्श बनकर उभरेगी....
चलिए आप ये ३ मिनट का ट्रेलर देखिये अब मैं भी गाता हूँ... ''तोये बिन सजनी नींद नईं आवे कैसे गुज़ारूँ रात...''
एक ये कविता भी बांच लेना.. ताज़ी है कल ही बनाई..
एक महकती खुशबू की तरह
ढंके रहती थीं तुम मुझे..
तुम्हारे जाने से
आसपास की सारी हवाएं भी चली गयीं..
एक निर्वात पैदा हो गया
मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन ने भी
इंकार कर दिया
गुरुत्वाकर्षण देने से..
अब त्रिशंकु बन गया हूँ बिना हवा बिना ज़मीन के मैं
एक शून्य सा पैदा हो गया जीवन में
जिसे जब अपने हिस्से में बांटने को चाहा
तो वो शून्य भी अवचेतन से अचेतन कर गया..
मुझे भी शून्य बना गया
और मेरे हिस्से कुछ ना आया..
दीपक 'मशाल'