शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

श्री समीर लाल जी का हुक्म कौन टाल सकता है भला?!!!!!!!!!!!!!!!!!!दीपक 'मशाल'

ब्लॉगजगत में किसकी इतनी हिम्मत है जो श्री समीर लाल जी के आदेश का उल्लंघन करे भला, फिर मेरी बिसात ही क्या है? बित्ते भर का छोकरा हूँ... ऐसा कोई क्षेत्र भी तो नहीं जिसमें समीर जी का किसी अन्य से भी मुकाबला हो, चाहे वह ब्लॉग लेखन की कला हो, साहित्यिक ज्ञान हो, धनधान्य हो, प्रशंसक हों, पद हो, विनम्रता हो, सम्मान हो या कुछ और भी....
मैं नतमस्तक हूँ उनके आगे और उनके आदेश कि ''कुछ और अपनी पुरानी रचनाओं की छंटनी करके ब्लॉग पे लगाओ'' का पालन कर रहा हूँ और यहाँ पर एक ४-५ महीने पुरानी रचना है जो लगा रहा हूँ, क्योंकि उनका हुक्म कौन टाल सकता है भला?
इस रचना में एक ऐसी सोच का निरूपण है जो यदि हर व्यक्ति सोचे तो संसार को सुधारने के लिए किसी कानून की आवश्यकता ही ना रहे....
कल हिंद युग्म में सितम्बर २००९ की यूनीकविता के रूप में पुरस्कृत अपनी एक अन्य रचना आपके सामने रखूंगा.... समीक्षा और उत्साहवर्धन करें..  

मुझसे पूँछेगा खुदा











मुझसे पूछेगा खुदा,
क्या किया तुमने
जमीं पे जाके,
आदमी का तन पाके।
मैं तुझमे ढूंढता रहा
जगह अपनी,
और तू खुश था,
मुझे पत्थरों में ठहरा के।
अपनी सिसकियों के शोरों में,
आह औरों की
ना सुन पाए,
सपने बुने तो सतरंगी मगर,
अपने लिए ही बुन पाए।
जो लिया सबसे
तुम्हे याद नहीं
और देके थोड़े का हिसाब,
भूल नहीं पाए।
क्या करुँ मैं
बना के वो इन्सां,
काम इन्सां के जो,
कर नहीं पाए।
मैंने चाहा था,
तुम लिखो नसीब दुनिया का,
तुम रहे बैठे,
दोष अपने नसीब को लगा के।
याद मुझको तो किया,
किया मगर घबरा के।
बाँट के मुझको कई नामों में,
लौट आये हो ज़हर फैला के।
दीपक 'मशाल'
 चित्र साभार गूगल से प्राप्त.

28 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन रचना. सार्थक प्रश्न उकेरती और विसंगतियो को रेखांकित करती सशक्त रचना.

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  2. अच्छे भाव की रचना दीपक जी। वाह।।

    जमीं पे जा के क्या किया पूछे जब भगवान?
    कहे सुमन कोशिश किया बन जाऊँ इन्सान।।


    सादर
    श्यामल सुमन
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  3. समीर लाल जी के बहाने हमने भी एक अच्‍छी रचना पढी .. दोनो का धन्‍यवाद !!

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  4. सशक्त रचना है.आत्मावलोकन को मजबूर करती.

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  5. खज़ाना दबा के रखा है दीपक जी,अच्छी बात नही है ये,खोलिये खज़ाना और निकालिये ऐसे सी अनमोल रत्न।

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  6. बहुत सुन्दर भाव है | अच्छा लगा | धन्यवाद|

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  7. बहुत अच्छी रचना...शुक्रिया समीर जी का जिनके प्रयास से ये रचना आपके खजाने से पढने को मिली...
    नीरज

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  8. बाँट के मुझको कई नामों में,
    लौट आये हो ज़हर फैला के।


    बहुत खूब

    बी एस पाबला

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  9. बांट के मुझको कई नामों में लौट आये हो जहर फैला के,
    बेहद ही सुन्‍दर शब्‍द रचना, भावपूर्ण प्रस्‍तुति, आभार

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  10. ऐसा सम्मान पाकर अभिभूत हूँ और पुनः कहता हूँ कि तुम्हारी रचना पढ़कर आनन्द आ गया. मेरी मांग कितनी सही निकली.वाह!!


    याद मुझको तो किया
    किया मगर घबरा के... कितना सही कह गये.

    एक बार पुनः आभार. नियमित रहो!!

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  11. दीपक,
    चलो समीर जी के आदेश का पालन करके हमलोगों को भी अपनी लेखनी के जादू के चंगुल में उलझा दिया..
    बहुत सुन्दर रचना.....
    बधाई..
    दीदी...

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  12. main tujhmein dhoondhta raha jagah apni,
    aur tu khush tha mujhe pattharon mein thahra ke..
    kya khoob kaha hai bhai..

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  13. उत्साह वर्धन के लिए आपस सबका बहुत बहुत आभारी हूँ..
    जय हिंद..

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  14. आपकी कविता पढ़कर एक पुराना गीत याद आ गया-
    सजन रे झूठ मत बोलो
    खुदा के पास जाना है
    न हाथी है न घोड़ा है
    वहाँ पैदल ही जाना है
    ---अच्छे भाव जगाती कविता के लिए बधाई।
    मेरी समझ से पूँछेगा नहीं पूछेगा होगा। कृपया देख लें।

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  15. देवेन्द्र जी, उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत शुक्रिया और भूल सुधर की और ध्यान दिलाने के लिए भी....
    मैंने अपेक्षित सुधार कर दिया है..वो अनजाने में हुई भूल ही थी.. धन्यवाद्
    जय हिंद..

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