रविवार, 4 अक्तूबर 2009

वहां से सड़ रहा हूँ मैं



मैं अबोला


एक भूला सा वेदमंत्र हूँ,


खामियों से लथपथ


मैं लोकतंत्र हूँ.


तंत्र हूँ, स्वतंत्र हूँ द्रष्टि में मगर


ओझल मैं


आत्मा से परतंत्र हूँ.


कहने को बढ़ रहा हूँ मैं.


पर जड़ों में न झांकिये


वहां से सड़ रहा हूँ मैं.


लोक को धकेलता


परलोक की मैं राह में,


कुछ मुसीबतों की आँख में


गड़ रहा हूँ मैं.


हूँ तो मैं कुँवर कोई


सलोना एक चाँद सा,


पर ग्रहणों की छाया से


पिछड़ रहा हूँ मैं.


मैं अश्व हूँ महाबली,


पर सामने नदी चढ़ी


भ्रष्टों की खेप की,


झूठ की फरेब की,


जो घुड़सवार मेरा है


उसको फिक्र रहती है


सिर्फ अपनी जेब की,


बस इसलिए बिन बढ़े,


तट पे अड़ रहा हूँ मैं.


जड़ों में न झांकना


वहां से सड़ रहा हूँ मैं...


दीपक 'मशाल'


छायाचित्र- दीपक 'मशाल'

4 टिप्‍पणियां:

  1. सच्चाई को उकेरती लाजवाब रचना। बहुत-बहुत बधाई

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  2. yeh poora panna padha...aap bahot hassas aur hoshmand insaan hain. ahsaas aur tajurbey ki nazuk mulaqat aapki shayri ki khaasiyat hai.
    Kya aap hindostan me nahi rehtey? Phir yahan k bashindon k zahen kaisey baanch rahe hain wahan se? Chaliye pehli baar me zyada tareefen theek nahi.... zahen bhatak jaega!
    Ainda comment na bhi karun par mustaqil padhti rahungi.

    जवाब देंहटाएं
  3. जड़ों में न झांकना
    वहाँ से सड़ रहा हूँ मैं....
    बहुत अच्छी कविता।

    जवाब देंहटाएं

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