रविवार, 25 अक्तूबर 2009

इस हफ्ते की खुरचन"""""""""""""""""""""""""""""""""

 इधर उधर की बातों को लेकर कुछ छोटा-बड़ा, कुछ  हल्का-फुल्का लिखा आपके सामने है, चाहें तो इसे इस हफ्ते की खुरचन कह सकते हैं...

१- लाख हों गम मगर हंसने का मौका ढूंढ लेता है,
    वो एक पंछी है अक्सर झरोंखा ढूंढ लेता है.

२- वो जानता है सब मगर, अन्जान बना रहता है,
    जो ना जताए करम उसका, एहसान बना रहता है..

३- सादे लिबास में जिन्हें नाकामियां मिलती रहीं,
    उनको खुदा के काम में भी खामियां मिलती रहीं.

४- शर्म-
एक ऐसी चादर
जिसकी तहें,
उम्र बढ़ने के साथ-साथ
लड़की पर
बढ़ती जाती हैं
और
लड़के पर से
उतरती जाती हैं....

५- बर्फ सा जीवन-
पता नहीं
ये
वक़्त की साजिश है
या
लम्हों का
दिवालियापन,
तुम
सामने होके भी
नहीं दिखते,
बर्फ सा
जम गया जीवन.

६- वहां से सड़ रहा हूँ मैं....
मैं अबोला
एक भूला सा वेदमंत्र हूँ,
खामियों से लथपथ
मैं लोकतंत्र हूँ.
तंत्र हूँ, स्वतंत्र हूँ द्रष्टि में मगर
ओझल मैं
आत्मा से परतंत्र हूँ.
कहने को बढ़ रहा हूँ मैं.
पर जड़ों में न झांकिये
वहां से सड़ रहा हूँ मैं.
लोक को धकेलता
परलोक की मैं राह में,
कुछ मुसीबतों की आँख में
गड़ रहा हूँ मैं.
हूँ तो मैं कुँवर कोई
सलोना एक चाँद सा,
पर ग्रहणों की छाया से
पिछड़ रहा हूँ मैं.
मैं अश्व हूँ महाबली,
पर सामने नदी चढ़ी
भ्रष्टों की खेप की,
झूठ की फरेब की,
जो घुड़सवार मेरा है
उसको फिक्र रहती है
सिर्फ अपनी जेब की,
बस इसलिए बिन बढ़े,
तट पे अड़ रहा हूँ मैं.
जड़ों में न झांकना
वहां से सड़ रहा हूँ मैं...
वहां से सड़ रहा हूँ मैं....
दीपक 'मशाल'

21 टिप्‍पणियां:

  1. खुरचन है तब भी इतनी शानदार ...मगर ये क्या ..आखिरी कविता तो जली हुई खुरचन निकली...!!

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  2. बहुत अच्छी खुरचन -- शानदार!
    शर्म का ठेका क्या केवल लडकियों ने ही उठा रखा है.

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  3. teesri khurchan aur sharm pasand aaye... aur aakhiri wali kuch jyada hi pasand aa gayi...

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  4. वाह! दीपक जी शर्म के मायने भी लड़कों और लड़कियों के लिए अलग अलग है!मुझे तो ये कविता अच्छी लगी..

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  5. प्यारे दीपक,
    मुझे ये तीनों कहीं से भी खुरचन नहीं लगीं....अरे ये तो ताज़ी रबड़ी हैं.....खुरचन कहीं ऐसी होतीं हैं भला !!!..
    कभी नहीं....!
    दीपक, तुम्हारी लेखनी के कायल होते जा रहे हैं बस......बहुत ख़ुशी होती है जब नए खून को उच्च स्तर की बातें करते और लिखते देखते है...ऐसी रचनाएँ स्थापित लेखकों को यह जता जाता है कि हिंदी लेखन का भविष्य बहुत ही मज़बूत कन्धों पर जाने वाला है... और तब मन में आश्वासन कि प्राणवायु आ जाती है......बहुत बहुत बहुत ही 'रबडी' है ये तीनो.....
    जीते रहो...
    दी...
    जय हिंद....

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  6. लड़कों के लिए ये शर्म न हो गई मुई प्याज का छिलका हो गई, उतरती ही जाती है...बेहतरीन उदगार...बधाई

    जय हिंद...

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  7. लाख हों गम मगर हंसने का मौका ढूंढ लेता है,
    वो एक पंछी है अक्सर झरोंखा ढूंढ लेता है.
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, बधाई

    जवाब देंहटाएं
  8. पता नहीं / ये वक़्त की साजिश है या / लम्हों का दिवालियापन.......
    बर्फ सा जीवन भी काफी अच्छी लगी.

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  9. जबरदस्त खुरचन..हर एक का जुदा रंग...

    लाख हों गम मगर हंसने का मौका ढूंढ लेता है,
    वो एक पंछी है अक्सर झरोंखा ढूंढ लेता है.

    वाह!! मार डाला.

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  10. @ SHARM.....

    HMMMM.....Bhai....Dipak.... Yeh baat to to sahi ki ladkon ke paas sharm nahin hoti.... aur ho bhi nahin sakti.......... Ladkon ka basic nature hi characterless hota hai..... usko uparwale ne hi characteless banaya..... agar koi ladka yeh kahta hai ki wo characterwala hai..... to wo ladka nahi hai.... uski personality hi question marked hai phir...... ladkon ke paas sirf sanskar hote hain..... jo usey galat karne se rokte hain.....

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  11. aur loktantra ki haalat ko bahut achche se darshaya hai..... ab to yeh sad raha nahin ...sad gaya hai......

    Democracy is a government of fools headed by an idiot............

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  12. बहुत ही उम्दा समीक्षा की महफूज़ भाई.... अच्छा लगा की आपने इतना गौर किया..

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  13. तुम जानते हो पुराने hजमाने मे जब दादी मिट्टी के के बर्तन मे दूध काढती थी तो जो दूध नीचे बच जाता उस खुरचन को खाने के लिये हम सभी भाई बहन लडा करते थे। ये उसी की तरह लेज़ीज़ रचनायें हैं पहले और दूसरे वाला शेर क्या बात है और शर्म? एक दम स्टीक अभिव्यक्ति है। बर्फ सा जीवन अद्भुत है
    एक अकेला भूला सा वेद मन्त्र हूँ
    खामिओं से लथपथ लोक तन्त्र हूँ
    कितनी बडी और गहरी बात कही है। हैरान हूँ इस उम्र मे, विदेश मे रहते हुये भी इतनी बडी सम्झ और गहरी संवेदनायें। निशब्द हूँ एक दिन साहित्य के क्षेत्र मे तुम्हारा नाम होगा। लिखते रहो। शायद इतने अच्छे शब्द इतने अनुभव के बाद भी मैं किसी रचना को नहीं दे पायी। बहुत बहुत आशीर्वाद और शुभकामनायें

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  14. Dipakji, bhale hi aap in rachnaon ko khurchan kahen parantu aapke lekhan mein paripakwata nazar aati hai. achha laga padhkar.

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  15. शर्म की चादर तो अब लड़के और लड़कियों, दोनों में ही उतर रही है.
    लोकतंत्र पर करारा प्रहार, कड़वी सच्चाई है.
    लेकिन इसका ज़वाब तो आपने एक नंबर में खुद ही दे दिया है. बढ़िया

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  16. निर्मला मासी, आपका, दराल सर का, समीर(सैम)जी, वर्मा जी, रजनीश जी, श्रीकांत जी और शरद सर जैसे दिग्गजों का वरद हस्त जिसके सर पे रहे उसके लिए मातृभाषा और साहित्य को सम्मान दिलाना थोडा आसान रहेगा ही. बस आप जैसे वरिष्ठ इस दिशा में ये महान प्रयास करें और हम लोग सहयोग... इश्वर ने चाहा तो स्वप्न पूरा होगा..

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  17. Sharm ladke aur ladkiyo dono ke liye ek jaisi hoti hai....is soch ke liye hum doshi hai...shuru se ladko ko jayada power di jati hai...vo sochte hai vo jo kare vo sahi hai...par aajkal is soch mai kafi parivartan aa gaya hai...dono ko ek hi tarike se dekha jata hai..ladkiyo ne kafi mehnat ki khud ko SAABIT karne mai...time badal raha hai....

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  18. कमाल का अंदाज़ है ......... बहूत ही achha likha hai ..... chanikaayen to kamaal ki hain .....

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  19. लाख हों गम मगर हंसने का मौका ढूंढ लेता है
    वो एक पंछी है अक्सर झरोखा ढूंढ लेता है

    वाह! इस शेर की जितनी भी तारीफ की जाय कम है।

    'खुरचन' तो मुझे बचपन से ही पसंद है
    सिर्फ शर्म को छोड़कर
    शर्म की चादर हर गैरतमंद पहने रहना चाहता है
    फिर लड़का क्या लड़की क्या !

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  20. जबरदस्त लिखा है..... सुन्दर अभिव्यक्ती |

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