सोमवार, 15 मार्च 2010

उसका खुदा-मेरा खुदा---->>>दीपक 'मशाल'

बेतरतीब सा मैं
मुड़े-तुड़े किसी बीड़ी के बण्डल की तरह के
सिकुड़नों वाले उस कुरते को
हलकी सी सीयन उधड़ी जींस के ऊपर डाल
चल दिया था उसके घर की तरफ अनायास ही..
तोड़ दिया था मेरी जिद को
उसकी हफ्ते भर पहले जायी
उस चट्टानी नराजगी ने..
यूँ तो हिम्मत ना थी
कि घर में अन्दर जाके
सीधे मांग लेता मुआफी उससे
अपनी उस गलती की जिसके लिए कि
अभी तक मैं ना मान पाया था दोषी खुद को..
उसके घर के सामने के इक
दर्जी की दुकान पर खड़ा हो
करने लगा था इन्तेज़ार
कपड़े सुखाने के लिए
उसके बालकनी में प्रकट होने का..
सोच के तो आया यही था
कि मना लूँगा आज रूठे अपने खुदा को
और अपने छोटे से घोंसले में
खुशियों की ईद औ दिवाली
ले आऊंगा वापस.
सड़क के दूसरे छोर से अचानक उभरी
सैकड़ों छछूंदरों के समवेत स्वर में
चीखने की सी एक आवाज़ ने
दौड़ा लिया था मुझे अचानक ही अपनी ओर..
कोई कार थी शायद जिसने
जबतक की थी कोशिश
काबू में लाने की, अपनी स्वच्छंद रफ़्तार को
तब तक कुचल चुका था
उस अपंग भिखारी के अल्पविकसित से पैरों को
और सर्पीले अंदाज़ में दौड़ा ले गया था
अपनी कार को, वो गरीब को कुचलने वाला..
उस दर्द से तड़पते असहाय को
तमाशे की तरह देखती भीड़ ने
मजबूर कर दिया मुझे सोचने को कि
'अभी इसका खुदा ज्यादा रूठा है शायद'
और अब मैं रोक रहा था एक टैक्सी
हस्पताल जाने के लिए.
दीपक 'मशाल'
चित्र साभार गूगल से

33 टिप्‍पणियां:

  1. bahut hi maarmik kavita...
    tumhaari aisi hi kritiyon se yah pata chalta hai ki tum kitne samvedansheel vyakti ho...sachmuch tumehin dekh kar aur padh kar bahut saari aashayen man mein jaagrit hoti hain...na sirf hindi ka bhavishy ujjawal dekhai deta hai apitu insaaniyat bhi abhi zinda hai, aisa mahsoos hota hai ...
    atyant samvedansheel rachna..
    khush raho...
    didi...

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  2. हरेक शब्द सोचने को विवश करता है!
    बहुत सुन्दर चित्र-गीत है!

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  3. सम्वेदनाओं से भरपूर लेखन दीपक जी।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  4. अशक्त, असहाय लोगों पर लिखी यह कविता काफी मर्मस्पर्शी बन पड़ी है।

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  5. बहुत संवेदनशील रचना, दीपक!

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  6. Bahut marmik prastiti hai jo aapaki gahan soch ko abhivyakt kar rahi hai..dhanywaad.

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  7. मार्मिक और संवेदनशील रचना ....!!

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  8. दीपक, खुश रहो,
    आज कई दिनों के बाद तुम्हारे ब्लॉग पर आना हुआ. कविता के बारे में क्या कहें............हमेशा की तरह ही............. किन्तु तुम्हारा टेम्प्लेट बहुत ही सुन्दर लगा.
    खुदा शब्द पर एक चुटकुला याद आ गया.
    एक बार एक ठेकेदार को एक कवि सम्मेलन का आयोजन करवाने के कारण उसमें मुख्य अतिथि बना दिया गया. जब उनके काव्य पाठ करने का नंबर आया तो उसने सुनाया....................
    यहाँ भी खुदा है, वहाँ भी खुदा है,
    यहाँ भी खुदा है, वहां भी खुदा है,
    और जहाँ नहीं खुदा है वहां
    ----
    ---
    वहां काम चल रहा है.

    ---
    जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड

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  9. एक संवेदनशील मन से उपजी मार्मिक कविता....बहुत गहरे तक छू गयी तुम्हारी ये रचना...

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  10. बहुत ही मार्मिक रचना .....शब्द नहीं कुछ कहने के लिए

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  11. अच्छा, बढ़िया कहना अपनी फितरत नहीं...
    वो तो तुम हर बार बेहतरीन लिखते ही हो...
    शिकायत है तो खुदा से...खुदा के घर में बेइंसाफ़ी क्यों...किसी को देता है तो उससे संभाले नहीं संभलता...किसी को इतना भी नहीं देता कि वो खुद को संभाल सके...

    जय हिंद...

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  12. इतना अच्छा न लिखा करें...समय निकालना पड़ता है....पढ़ने के लिए...
    लड्डू बोलता है...इंजीनियर के दिल से....

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  13. इस संवेदनशील कविता के लिये आप का धन्यवाद

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  14. संवेदनशील मन से उपजी मार्मिक कविता मन की तह तक जाती है

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  15. इतनी सम्वेदनाएँ एक रचना में
    बहुत सुन्दर

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  16. काफी मर्म है आज की रचना में

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  17. samvenshil rachna ,saath hi ada ji ki baato se main bhi sahmat hoon .bahut gahrai hai inme .khoob .

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  18. अच्छी है लेकिन बीच बीच में गैप दो और अनावश्यक शब्द कम करो ।

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