प्रकाश के व्युत्क्रम से जब..
मन घबरा जाता है,
सोना-जागना/ खाना-पीना..
जीवन का क्रम बन जाता है..
सर-दर्द तो मुझको
याद है रहता
अपनी स्वयं की देह का,
आसपास की.. मौतों को पर
जब मन बिसरा जाता है...
आगे बढ़ने को आतुर हो जब
एड लगाता हूँ खुद को,
कोई मुझसे बेहतर हो ना जाये
मैं टांग अड़ाता हूँ सबको..
जब सौ रुपये के शौक में से
दस-बीस रुपये की..
कटौती नहीं कर पाता,
एक भूखे का पेट भरने के लिए...
जब मैं बस में..
साथ बैठी लड़की को,
ऐसे ही छोड़ देता हूँ
मनचलों से डरने के लिए...
जब अपना काम जल्दी कराने के लिए,
'सत्यमेव जयते' छपे रंगीन करारे कागज़,
गंदले होने के वास्ते मेज़ के नीचे,
घूसखोरी के कीचड़ में सने हाथों में थमाता हूँ...
जब अपने फायदे के लिए,
औरों के हितों को भाड़ में झोंक,
किसी जान पहिचान के गुंडे के नाम पे
मोहर लगाता हूँ या बटन दबाता हूँ...
''तू सामाजिक प्राणी हैं मानव..
ऐसे ही जीना होता है..''
ऐसा ही कुछ कुछ कह के जब
चेतन मन को बहला लेता हूँ
खुद को समझा लेता हूँ...
तब नीम बेहोशी में,
स्वप्नों में आकर...
धमकाती हैं,
धिक्कारती हैं मुझको..
मेरे अंतस की अनदेखियाँ..
झपकती पलकों की अनुभूतियाँ....
झपकती पलकों की अनुभूतियाँ....
दीपक 'मशाल'
शानदार है , अंतर्मन की आवाज है
जवाब देंहटाएंघूसखोरी के कीचड़ में सने हाथों में थमाता हूँ...
जवाब देंहटाएंजब अपने फायदे के लिए,
औरों के हितों को भाड़ में झोंक,
किसी जान पहिचान के गुंडे के नाम पे
मोहर लगाता हूँ या बटन दबाता हूँ...
एकदम सही बात दीपक जी यही बात आज मैंने भी अपनी कविता में कही है !
अंतरात्मा की सटीक आवाज.....
जवाब देंहटाएं..........
.......मेरी अंतरात्मा भी ऐसे ही कचोटती है....
मेरी व्यथा पढ़ें...
विश्व गौरैया दिवस-- गौरैया...तुम मत आना.(कविता)
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से....
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_20.html
वेहतरीन दीपक भाई
जवाब देंहटाएंhttp://sharatkenaareecharitra.blogspot.com/2010/03/blog-post.html
बस यहीं कोशिश करनी चाहिए कि कभी हमारी नज़र अंतस की अनुभूतियों के आगे न झुके...
जवाब देंहटाएंजय हिंद...
हां मनुष्य एक सामजिक प्राणी तो है पर सभ्य होने के लिए निर्भय होना नितांत आवश्यक है। संवेदनशील रचना। बधाई।
जवाब देंहटाएंकिसी जान पहिचान के गुंडे के नाम पे
जवाब देंहटाएंमोहर लगाता हूँ या बटन दबाता हूँ...
लेकिन बार बार क्यो क्या पंच साल्मै भी अक्ल नही आती?
बहुत सुंदर ओर सटीक. धन्यवाद
जबरदस्त प्रस्तुति ........क्यों होगया है मनुष्य ऐसे ?... शायद इसका कोई जवाब नहीं
जवाब देंहटाएंबहुत खूब, लाजबाब !
जवाब देंहटाएंमैं टांग अड़ाता हूँ सबको..
जवाब देंहटाएंजब सौ रुपये के शौक में से
दस-बीस रुपये की..
कटौती नहीं कर पाता,
यही तो सच्चाई है और शायद यही तो मजबूरी है
बताना चाहूँगा कि ये मेरे प्रथम काव्य संग्रह की शीर्षक रचना भी है..
जवाब देंहटाएंधिक्कारती हैं मुझको..
जवाब देंहटाएंमेरे अंतस की अनदेखियाँ..
...वाह!
कोई देखे या ना देखे मौला देख रहा है...
सही है । अंतर्मन की आवाज़ सुननी चाहिए।
जवाब देंहटाएंघूसखोरी के कीचड़ में सने हाथों में थमाता हूँ...
जवाब देंहटाएंजब अपने फायदे के लिए,
औरों के हितों को भाड़ में झोंक,
किसी जान पहिचान के गुंडे के नाम पे
मोहर लगाता हूँ या बटन दबाता हूँ...
एक विवेकशील व्यक्ति से यही उम्मीद भी करती हूँ..
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति...यह कविता निःसंदेह उचित स्थान पर है तुम्हारे प्रथम काव्य संग्रह में....
दीदी..
गज़ब,आत्म मंथन के लिए बहुत स्पष्ट कविता.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना .
VIKAS PANDEY
WWW.VICHAROKADARPAN.BLOGSPOT.COM
antratma sahee margdarshan hee karatee hai aap soe ye chalega bas ise jagrut rakhiye............
जवाब देंहटाएंDuniya ko aisee saaf soch vale noujavano kee sakht jaroorat hai............
Aabhar
antas man ki pukaar ko behtareen tarike se prastut kia hai aapne..bahut sundar
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है आपने एक कड़वा सच जिसे हमारा झूटलाते हैं तो यही निकलता है दिल से
जवाब देंहटाएंधिक्कारती हैं मुझको..
मेरे अंतस की अनदेखियाँ..
झपकती पलकों की अनुभूतियाँ....
झपकती पलकों की अनुभूतियाँ....
बेहतरीन, हकीकत को बयां करती और तल्ख रचना..और यही यथार्थ भी है हम सबका...अनुभूतियाँ सुविधा के बहाने हमारी मजबूरियों की बेड़ी मे कैद रह जाती हैं..
जवाब देंहटाएंDeepakjee
जवाब देंहटाएंmadam sambodhan se chutkara acchaa laga.........
shubhkamnae.............
एकदम सटीक और सारगर्भित अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंबहुत ही संवेदनशील रचना है...अन्तःमन से निकली हुई...बहुत कुछ सोचने को विवश करती हुई कविता..
जवाब देंहटाएंbahut hi samvedansheel man ko jhakjhorti rachna.
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