सोमवार, 2 नवंबर 2009

कल क्यों नहीं पढ़ा इसे''@@@@@@@@दीपक 'मशाल'

कल क्यों नहीं पढ़ा इसे अब दोबारा पढना पड़ेगा  :)
क्योंकि स्व. श्री दुष्यंत कुमार जी कि एक प्रसिद्द रचना है कि,
'' सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश  है कि ये सूरत बदलनी चाहिए,
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग लेकिन आग होनी चाहिए''
बस कुछ ऐसा ही सोच के कि ये कविता रुपी सन्देश ज्यादा से ज्यादा लोगों तक और उनके दिलोदिमाग तक पहुंचे मजबूर होके आज दोबारा लगा रहा हूँ.
इसमें मैंने कोशिश की है छोटे कस्बों और महानगरों में एक लड़की के डरों को दिखाने की... और बताने की कि वो किस तरह से किन हालातों में डरते हुए जीती है और कैसे आतंकवाद समझती है...... हमें सच में जरूरत है उन्हें इस आतंक से मुक्त कराने कि...

वो आतंकवाद समझती है...

वो जब घर से निकलती है,
खुद ही
खुद के लिए दुआ करती है,
चाय की दुकान से उठे कटाक्षों के शोलों में,
पान के ढाबे से निकली सीटियों की लपटों में,
रोज़ ही झुलसती है.
चौराहों की घूरती नज़रों की गोलियाँ,
उसे हर घड़ी छलनी करती हैं.
आतंकवाद!!!!
अरे इससे तो तुम
आज खौफ खाने लगे हो,
वो कब से
इसी खुराक पे जीती-मरती है.
तुम तो आतंक को
आज समझने लगे हो
आज डरने लगे हो,
वो तो सदियों से डरती है,
ज़मीं पे आने की जद्दोज़हद में,
किस-किस से निपटती है.
तुम जान देने से डरते हो
पर वो
आबरू छुपाये फिरती है,
क्योंकि वो जान से कम और
इससे ज्यादा प्यार करती है.
तुम तो ढंके चेहरों और
असलहे वाले हाथों से सहमते हो,
वो तुम्हारे खुले चेहरे,
खाली हाथों से सिहरती है.
तुम मौत से बचने को बिलखते हो,
वो जिंदगी पे सिसकती है.
तुम्हे लगता है...
औरत अख़बार नहीं पढ़ती तो..
कुछ नहीं समझती,
अरे चाहे पिछडी रहे
शिक्षा में मगर,
सभ्यता में
आदमी से कई कदम आगे रहती है.
इसलिए
हाँ इसलिए,
हमसे कई गुना ज्यादा,
वो आतंकवाद समझती है
वो आतंकवाद समझती है....
दीपक 'मशाल'

14 टिप्‍पणियां:

  1. स्त्रियों के डर और कारणों को आपने स्त्रियों से भी ज्यादा प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया है..औरत चाहे पिछड़ी रहे शिक्षा में..सभ्यता में आगे रहती है...बहुत खूब ..!!
    इस रचना की प्रशंशा के लिए शब्द कम हो गए हैं ...अद्भुत ...

    कल पढ़ तो लिया था ...टिपण्णी करने से चूक गए ...

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  2. ओह!! क्या बात कही...

    हाँ इसलिए
    हमसे कई गुना ज्यादा
    वो आतंकवाद समझती है...


    वाकई..सूक्ष्म रचना!!

    जवाब देंहटाएं
  3. शायद हमारे लिए ही फिर तकलीफ उठानी पड़ी..कल मौका न निकाल पाया था. क्षमाप्रार्थी.

    जवाब देंहटाएं
  4. ये आतंकवाद तब से चला आ रहा है जब से शायद आदम और हव्वा
    दुनिया में आए हैं...लता जी के एक पुराने गीत में आधी दुनिया के इस दर्द को शिद्दत के साथ समझा जा सकता है...

    औरत ने जन्म दिया मर्दों को,
    मर्दों ने उसे बाज़ार दिया...

    जय हिंद...

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  5. मैनें तो कल ही पढ लिया था पर अब फिर कमेंट कर रहा हूँ :
    प्रत्यक्ष आतंकवाद जितना घायल करता है उससे ज्यादा इस तरह का अप्रत्यक्ष आतंकवाद / आतंक घायल करता है. स्त्रियाँ इस आतंकवाद की शिकार होती रही हैं और आज भी तथाकथित प्रगतिशीलता के आवरण में होती रह रही हैं.
    बखूबी इस वैषम्य को दर्शाया है.

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत ही प्रभावी तरीके से आपने हकीकत को ब्यान किया है...
    पढकर दिमाग घूम गया...

    आपकी लेखनी को सलाम

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  7. बढिया, काव्य में नारी का खूब चित्रण !

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  8. आतंकवाद और औरत को बहुत ही अच्छे से जोड़ा है..... काफी ताकत है आपकी कलम में

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  9. aisi rachnayein to baar baar prakashit honi hi chahiye...
    dushyant kumar ji ki panktiyan aaj sabse jyada saarthak lagti hai.. aaj jarurat hai unki panktiyan jeevan mein utaar lene ki....
    jai hind...

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  10. बहुत ही अच्छी रचना ...कटु सत्य को बेबाकी से प्रर्दशित करती रचना....वाह...आपकी लेखन शैली और सोच बहुत प्रभाव शाली है...लिखते रहें...

    नीरज

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  11. आज सिर्फ उन लोगों के लिए ये कविता दोबारा लगाई थी जिन्होंने इसे पहली बार में नहीं पढ़ा था...
    लेकिन मैं बहुत बहुत आभारी हूँ श्री वर्मा जी, अम्बुज, वाणी जी और समीर जी का जिन्होंने इसे २-२ बार पढ़ा.
    जय हिंद

    जवाब देंहटाएं
  12. वो तो सदियों से डरती है ...

    स्त्री की पीडा को गहरे भावों के सहारे ... कविता का रूप दिया है ...|

    जवाब देंहटाएं

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