पसंद नापसंद सब आपकी मर्ज़ी से होता है साहब... और आपकी मर्ज़ी और लोग जानते हैं, आपके द्वारा लगाये गए चटके और दी गयी टिप्पणियों से इसलिए सहयोग करिए लोगों की नज़र में लाने का उस चिट्ठे को जिसे आपने पसंद किया है.. आखिर लोग भी तो देखें की आपकी पसंद में क्या खास है(लगता है मैं उसी तरह चिल्ला रहा हूँ जैसे बस स्टैंड के आस पास बने ढाबे छाप रेस्टोरेंट, वैसे लोग उन्हें होटल ही कहते हैं, के बाहर खड़े लड़के या होटल मालिक ग्राहक तलाशता हैं और उन्हें अपने 'होटल' में आने को उकसाते हैं).... लेकिन बड़े भाई, देवियों और सज्जनों ये सब मैं सिर्फ इसलिए नहीं कह रहा की मेरी पोस्ट पर चटके और टिप्पणी दो... बल्कि ये सब तामझाम है ब्लॉगजगत में सच्ची, कलात्मक, श्रेष्ठ साहित्यिक और ईमानदार पोस्टों को लोगों की नज़र में लाने का..... वरना एक ख़राब नेता को चुनने की तरह आपके द्वारा भाई-भतीजावाद के तहत चुनी गई घटिया पोस्टें तो लोग पढ़ लेंगे मगर योग्य पोस्ट नीचे कहीं दब जायेगी और फिर हो गया हिंदी का उत्थान.... कल्याण मस्तु...
माफ़ करना जी.... ये बात पढ़वाने के लिए मुझे भी औरों की तरह नयन और कर्ण प्रिय नाम देने पड़े पोस्ट को.... आशा है माफ़ करेंगे...
चलिए अब अपने घर बुला लिया है तो थोडा बोर भी कर ही देते हैं ( मैं सच में बोर करने की बात कर रहा हूँ, क्योंकि वास्तव में ये एक स्तरहीन रचना ही है)-----
गुण चार मिले अपने गिन के....
थोड़े लोगों से ज्यादा हूँ,
ज्यादा लोगों से
कम थोडा,
मैं हूँ बस इक मध्यस्थ कड़ी
जिसने
ऊपर-नीचे को जोड़ा.
वो आसमान सी बातों को
बातों-बातों में
कहते हैं,
धरती पर जिनको
जगह नहीं,
धरती के नीचे रहते हैं.
कैसे कह दूं
ये देश मेरा,
जिसमे अब राम न रहते हों,
नक्सल, माओ का
रूप धरे,
घर-घर में रावन रहते हों.
बहते रहते अब
यहाँ-वहां,
मंद पवन के झोंकों से,
गुमाँ में
अपनी ताकत के,
जो उठते थे तूफाँ बन के.
मैं
दोष सभी के गिनता हूँ,
इसलिए नहीं
कि उत्तम हूँ,
खुद में भी
झाँका था इकदिन,
गुण चार मिले अपने गिन के,
गुण चार मिले अपने गिन के....
दीपक 'मशाल'
चित्र- 'रोटी के टुकड़े' एकांकी निर्वहन करते समय लिया गया.
पसंद आया इसलिये एक चटका ठोंके जा रहे हैं ..एक बचा लिए हैं कल के लिए ....फ़ोटो और कविता दोनों ही जोरदार है बाबू....शीर्षक का मह्त्व जानना अच्छी बात है ..और सब ठो बत्तीसी तो हेडिंग में ही लगा दिए ..नीचे के लिये पोस्ट और टीप के लिए....?
जवाब देंहटाएंलो जी चटका भी लगा दिया और टिप्पणी भी कर दी |
जवाब देंहटाएंइत्ती सारी बत्तीसी वो भी शीर्षक में भागे चले आये देखें कि क्या हुआ, हांफ़ते हुए पोस्ट पढ़ी तब पता चला कि बुलाने का नया तरीका है। चटका लगा दिये हैं, टिप्पणी भी टीप रहे हैं। फ़ोटू और कविता अच्छी हैं, ये अच्छा किया कि अपने गुण भी गिन लिये :):):)।
जवाब देंहटाएंबेहताशा पसंद आया इसलिए दो बार चटखाये मगर दर्ज एक ही बार हुआ..क्या बतायें...कविता सही है..ऐसे नहीं तो वैसे भी चटखा जरुर लगाते.
जवाब देंहटाएंपसंद भी आया! और चटका भी लगाया!!
जवाब देंहटाएंआप सही लिख रहे हैं कि कई बार हम पोस्ट पढ़ लेते हैं और चटका नहीं लगाते तो अच्छी पोस्ट भी नीचे चले जाती है। मुझे लगता है कि केवल ब्लागवाणी से ही सब नहीं पढ़ते, कुछ लोग चिठठाजगत से भी पढ़ते हैं तब यह अन्तर आता है। आपकी कविता भी अच्छी थी बधाई।
जवाब देंहटाएंमै एक चटका लगाया हु भाई जी :)
जवाब देंहटाएंकैसे कह दूं ये देश मेरा ...जिसमे राम न रहते हैं ...!!
जवाब देंहटाएंबहुसंख्यक की यही पीडा है ...
बहुत पसंद आई ये रचना इसलिये टिपण्णी के साथ-साथ चटका फ़्री।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी रचना आभार ।
जवाब देंहटाएंरचना पसन्द आयी...चटका तो पहले ही लगा दिया था
जवाब देंहटाएंबहुत खूब दीपक जी क्या लिखते हैं आप...वाह...
जवाब देंहटाएंनीरज
दीपक जी , आपका हुक्म सर आँखों पर
जवाब देंहटाएंये रही मेरी
टिप्पणी चटका लगा के
अच्छी और सुन्दर भाव वाली रचना के लिए बधाई
एक बार चटका लगा दिया है :)
जवाब देंहटाएंहमने चटका लगाया तो कहता है कि आप पहले ही वोट दे चुके हैं। ये क्या माजरा है?
जवाब देंहटाएंहमरे नाम से किसने चटका लगा दिया? सामने आओ ;)
__________________________
लेख उत्तम है। सिस्टम में अच्छे लोग/विचार प्रोमोट होने ही चाहिए।
प्रिय मित्रों, मैं क्षमाप्रार्थी हूँ की किसी तकनीकी खराबी से आपके इस ब्लॉग का चटका ठीक से काम नहीं कर रहा है... लेकिन कोई बात नहीं... मेरा मकसद हंगामा खड़ा करना (चटके बटोरना ) नहीं बल्कि सिर्फ आपतक सन्देश पहुँचाना था इसलिए अब कम से कम उन कविताओं, कहानियों, ग़ज़ल, व्यंग्य और उच्च कोटि के लेखों को देखिये और चटका लगाइए जो अन्य कई ब्लोग्स पर हैं और चटका लगवाने के योग्य हैं.. ... जिससे वास्तव में हिंदी और भी ऊर्जान्वित हो सके....
जवाब देंहटाएंजय हिंद...
लिखते रहो भाई, चटके तो लगते ही रहेंगे.
जवाब देंहटाएंकविता अच्छी है. ठीक कहा है, देश बदल रहा है.
Deepak,
जवाब देंहटाएंtumhaari kavita aur pasand na aaye ye ho sakta hai bhala...
bahut pasand aayi hain..
aur chatka bhi lagaya to liya hi nahi...
pata nahi kya baat hai...
Didi..
चटके के लिए आग्रह करने की आपको ज़रूरत आन पड़ी मशाल जी ? ना ना जब अच्छा कहेंगे तो दाद तो पाएंगे ही। हा हा।
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब।
भई पसंद का खेल और उपादेयता मुझे खुद समझ नही आयी आज तक..खैर...
जवाब देंहटाएं..मगर जब आये हैं तो चटक-पुष्प तो अर्पित कर के ही जायेंगे अब ;-)
जवाब देंहटाएंइस देश के यारों क्या कहने...
जवाब देंहटाएंनेता है इस देश के गहने...
खुदगर्जी जिनकी मां-बहनें...
पैसा देख लगती लार टपकने...
इस देश के यारों क्या कहने...
जय हिंद...
एक लाजवाब रचना...कमाल का लय-प्रवाह और क्यों न हो, मेरे ख्याल से इस एकांकी में इसका गाकर प्रयोग हुआ होगा।
जवाब देंहटाएंसमयाभाव आने नहीं दे रहा था आपके ब्लौग पर, अभी चिह्नित कर लिया है। लेखनी का चमत्कार तो गुरूजी के तरही में देख ही लिया था और अब इस कविता ने मन मोह लिया पूरी तरह से।
chatka nain lag riya bhai saab
जवाब देंहटाएं:) waah ji
जवाब देंहटाएं