रविवार, 17 जनवरी 2010

मिलन==== अंतिम किश्त.... दीपक मशाल


अचानक किसी ने तेज़ी से कमरे का दरवाजा खटखटाया तो स्तव्या लौटकर वर्तमान में आई. आवाज़ मम्मी की थी-
     ''स्तव्या! बाहर आओ, दिन भर से कमरे में पड़ी हो और यहाँ बाहर सारा सामान रखा हुआ है, जब सफाई नहीं करनी थी तो क्यों शुरुआत की? अभी तुम्हारे पापा आने वाले होंगे उनके लिए चाय भी बनानी है.''
       कमरे से सिसकियों की आवाजें सुनकर उसकी मम्मी का परा और भी चढ़ गया-
     '' हाँ हाँ हम सब तो तेरे दुश्मन हैं, एक वो परिष्कृत ही तेरा सगा है. मुझे तो लगता है ये तेरा......  जानती है, खुद तो मारेगी ही हमें भी बदनाम करके छोड़ेगी तू. इससे अच्छा तो तू पैदा होते ही मर जाती. ये कलंक का डर तो ना रहता हमारे माथे पर.''
     उनकी एक-एक बात स्तव्या के दिल में कांटे कि तरह चुभती थी. रह रह कर परिष्कृत का स्नेहसिक्त  व्यवहार  याद आके उसके नयन खारे पानी से भर देता. यूं तो परिष्कृत को दो दिन बाद घर आना ही था, फिर भी ना जाने क्यों बात करने को उसका जी कर रहा था.
     ट्रिन .... ट्रिन .....
अपने कमरे में लगे फोन की घंटी बजते ही स्तव्या फोन पर झपट पड़ी, ''हैलो .... हैलो ..... हे भगवान्, कितनी लम्बी उमर है तुम्हारी, अभी-अभी तुम्हे ही याद कर रही थी कि...''
   ''अच्छा तो मैडम अब मुझे भूलने भी लगी हैं....'' ठिठोली करते हुए दूसरे सिरे से परिष्कृत बोला.
   '' परिष्कृत प्लीज़, मुझसे ऐसी बात मत किया करो, जाओ मैं तुमसे नहीं बोलती.'' स्तव्या ने जैसे रूठने का अभिनय किया.
  '' ठीक है मत करो. मैं तो तुम्हे एक खुशखबरी देना चाहता था.''
  ''क्या??'' रोमांचित होते हुए स्तव्या ने पूछा.
  ''लेकिन जब तुम बात ही नहीं करना चाहती तो...........'' परिष्कृत भी उसकी व्याकुलता का पूरा मज़ा लेना चाहता था.
  ''पागल मैं ऐसे कभी कर सकती हूँ क्या? प्लीज़ बताओ ना जल्दी बताओ.'' बहुत अधीर हो उठी थी वो... कहीं ना कहीं उम्मीद जो थी अपनी खुशियाँ वापस पाने की.
  ''मुझे जॉब मिल गई है. अभी थोड़ी देर पहले ही मेरा कैम्पस सिलेक्शन हुआ है. मम्मी-पापा के बाद सीधा तुम्हे ही फोन लगाया...'' उसने खुशखबरी भी हमेशा कि तरह गंभीर आवाज़ में ही सुनाई.
  '' वाओsssssss ! याने भगवान् ने हमारी सुन ली, परिष्कृत परिष्कृत, ये क्या हो रहा है मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा. क्या बोलूँ? कैसे बोलूँ? सारा शरीर मानो थिरक उठा हो... ये हमारी खुशियों की शुरुआत है जान... तुम फोन रखो मैं ये खुशखबरी सबको सुना के आती हूँ...'' बुलबुल की सी चहकते हुए स्तव्या बोली.
  '' नहीं.. अभी किसी को कुछ मत बोलो और मेरी बात ध्यान से सुनो. अभी मैं मार्केट में शौपिंग कर रहा हूँ. सबके लिए कुछ ना कुछ लेना है इस दीवाली... अपने मम्मी पापा और तुम्हारे मम्मी पापा के लिए... ये दीवाली हमारे जीवन कि सबसे बेहतरीन दीवाली होगी. अभी तक मैं चुप था क्योंकि मेरे हाथ में कुछ नहीं था... लेकिन अब मैं अंकल-आंटी से मिल के तुम्हारा हाथ जरूर मांगूंगा. अच्छा ये बताओ तुम्हारे लिए क्या लूं....???''
''तुम.... तुम.... और सिर्फ तुम, बस तुम जल्दी से आ जाओ''
''अरे वो तो ठीक है मगर...''
''अगर-मगर कुछ नहीं, बस तुम आ जाओ मुझे सब मिल जायेगा.''
''चलो फिर ठीक है मैं ही कुछ......''
अचानक दूसरी तरफ आवाज़ आनी बंद हो गई.
''हैलो... हैलो... लगता है फ़ोन डिसकनेक्ट हो गया... ये बी.एस.एन.एल. का नेटवर्क भी ना... तभी सब कहते हैं इसे कि भाई साहब नहीं लगेगा(बी.एस.एन.एल.)''  खुशखबरी से उत्तेजित स्तव्या थोड़ी बडबोली हो गई थी. ख़ुशी ये भी थी कि परिष्कृत ने अपने दिल में जो ठान लिया था वो दृढ शब्दों में ज़ाहिर कर दिया अब उसे भरोसा हो चला  था कि इस जनम में ही वो दोनों एक दूजे के पास रह सकेंगे, एक दूसरे को देख के जी सकेंगे..
स्तव्या कमरे से बाहर खुली हवा में आ गई. जिस घर में आज से पहले तक वो घुटन महसूस करती थी आज वो ही उसे प्यारा लग रहा था. कहाँ कभी तो वो ईश्वर से अपनी बुरी किस्मत का रोना रोती थी और कहाँ आज उसी कीस्मत के लिए इस्क्वर का शुक्रिया अदा कर रही थी.लगता था जैसे पंख निकलने के बाद कोई चिडिया आज घोंसले से बाहर डाल पर आई है.
      ये सभी के लिए पश्चिम से सूरज निकलने जैसी बात थी कि हमेशा रोई सी रहने वाली स्तव्या आज चहक रही थी, छोटी सी बच्ची की मानिंद उछल-कूद रही थी. मम्मी को तो लगा उसपर उनकी बातों का असर हो गया है. उधर
 स्तव्या के दिल में जैसे इन्द्रधनुषी रंग उतर रहे थे, मगर एक खामोश सा डर भी था कि अगर कहीं पापा ने इस रिश्ते से इंकार कर दिया तो, अगर कहीं अपनी ताकत का इस्तेमाल करते हुए परिष्कृत को कोई नुक्सान पहुँचाया तो.... . लेकिन उसकी खुशियाँ इस नकारात्मक सोच पर, इस डर पर भारी पड़ रही थीं.
        शाम को जब वो पापा के लिए चाय बना कर उन्हें देने गई तो दिल्ली में बम धमाकों की न्यूज़ सुनकर स्तब्ध रह गयी.
     '' पता नहीं पापा क्या मिलता है इन आतंकवादियों को इतने मासूमों का खून बहा के, कितने लोगों की जानें ले लीं इन्होने कितनों की खुशियाँ छीन लीं. कहते कहते स्तव्या भावुक हो उठी.
      चाय पीते हुए स्तव्या को याद आया कि- 'परिष्कृत भी तो मार्केट में शौपिंग कर रहा था, पता नहीं वो किस मार्केट में था... हे भगवान् कहीं सरोजनी नगर में ही तो नहीं...'
 ''नहीं उसे कुछ नहीं हो सकता मेरे परिष्कृत को कुछ नहीं हो सकता..'' पापा का डर भूल के चीखती-भागती हुई सी स्तव्या अपने कमरे में पहुँची. १ मिनट में उसका मन सैकड़ों अनचाही आशंकाओं के बारे में सोच चुका था. कमरे में आते ही उसने परिष्कृत को फ़ोन लगाने की कितनी ही नाकाम कोशिशें कीं. लेकिन कई कोशिशों के बाद भी उसका मोबाइल स्विच्ड ऑफ आ रहा था. रात गहराने के साथ साथ उसकी घबराहट बढ़ती ही जा रही थी. दोनों हाथ जोड़कर वह बस एक ही रट लगाये थी-
   '' हे भगवान्, तू मेरी जान लेले लेकिन मेरे परिष्कृत को कुछ ना होने देना, तू मेरी सारी खुशियाँ लेले मेरा दामन दुखों से भर दे लेकिन उसको एक खरोंच ना आने देना...''
  पहली बार पापा को भी उन दोनों के बारे में पता चला था, गुस्सा तो बहुत आया लेकिन एक अनजानी आशंका और हालात को ध्यान में रख उन्होंने बाद में निपटने की सोच ली.

स्तव्या ने बराबर टी.वी. सेट से चिपके रह कर रात काटी. बराबर परिष्कृत का मोबाइल ट्राई करती रही. सुबह का उजाला फैलने को था, लेकिन स्तव्या की आँखों में नींद कहाँ? सुबह के समाचारों में मृतकों की सूची जारी की गयी थी. तब तक मम्मी भी जाग गयीं. उद्घोषिका का एक-एक शब्द स्तव्या को कानों पे घन के जैसा लगता, हर नाम आने से पहले दिल तेज़ी से धड़क जाता.
'' ..... कल दिल्ली में आतंकवादियों द्वारा किये गए भीषण बम-ब्लास्ट की सभी राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों ने भर्तसना की और ऐसे संकट के समय में भारत सरकार को धैर्य से काम करने की सलाह दी. साथ ही एक बार फिर आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होने का आहवान किया. प्रधानमंत्री ने ऐसे कृत्यों की घोर निंदा करते हुए इसे कायरतापूर्ण बताया. सबसे भयानक विस्फोट सरोजिनी नगर में हुआ... इसमें पहिचान के आधार पर मृतकों के नाम हैं-- कंवलजीत
 कौर, मोहन हेगड़े, अवनीश सहगल, सीमा दुग्गल, परिष्कृत कश्यप ...... ''
अचानक कमरे में सिसकियों की आवाजें सुन स्तव्या के पापा भी जाग गए. सारा माज़रा समझते ही उनकी आँखें भी नम हो गयीं.
स्तव्या के पीछे खड़े मम्मी-पापा को पहली बार दिल से उसके सच्चे प्यार का अहसास और अपने किये पर अफ़सोस हुआ. उन दोनों की आँखों से भी अश्रुधारा बह निकली. उन्होंने स्तव्या को ढाढस बंधाने के लिए उसके सिर पर हाथ रखा... मगर स्तव्या वहां थी कहाँ?
  वो तो कब की अपने परिष्कृत के साथ एकाकार हो चुकी थी, वहां थी तो बस उसकी नश्वर देह.

आपका ही-
दीपक मशाल

15 टिप्‍पणियां:

  1. बड़ा ही मार्मिक अंत...हीर-रांझा, शीरी-फरहाद, लैला-मजनूं की कड़ी में एक और नाम...स्तव्या-परिष्कृत...

    जय हिंद....

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  2. ओह कहानी में तो एकदम ट्विस्ट आ गया, हम तो प्रेम कहानी अंत सदैव मिलन पर ही खत्म होते देखने के आदि हैं, पर जैसे ही आतंकवादी हमले की बात आई, लग गया कि कहानी दूसरा मोड़ लेने वाली है।

    रोचक अंदाज में बयां की है आपने कहानी।

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  3. स्तव्या-परिष्कृत. एक दुखद अन्त मगर पता नहीं इस कहानी मे कुछ खटक रहा है। वो तुम्हें डिटेल मे मेल करती हूँ। कहनी बहुत अच्छी लगी एक घटना की तरह्। लिखने का ढंग बहुत अच्छा है कहीं कहीं मेरी तरह स्पेलिन्ग मिसटेक्स हैं वो जैसी मै वैसे तुम हा हा हा बधाई अगली और एक कहानी का इन्तज़ार बहुत अच्छे कहानी कार बनोगे। वैसे वो पुस्तकें मंगवा लेना जरूर कहानी लेखन वाली।

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  4. Maasi, aapki baat bilkul sahi hai... aglee kahani me aapki shikayat door ho jayegi kyonki aapke aadesh ka paalan hoga.. spelling mistakes jaldbaji ka nateeja hain.. vaise theek kaha aapne 'like mother like son'. lekin aap jaisi kahani likhne me salon lag jayenge mujhe.

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  5. dipak ji
    kahani bahut hi marmik thi sirf itna hi nhi kahungi balki ye kahungi ki prem ke sachche swaroop ko darsha gayi ........jo aap kahna chahte the .......magar sach mein end ki ek line mein poori kahani sama gayi.
    vaise aisi hi ek kahani agar aap padhna chahein to mere blog par padhiye fursat mein kyun thodi si lambi hai 13 part mein hai.........aapko apni kahani jaisi hi lagegi.
    http://ekprayas-vandana.blogspot.com
    yahan amar prem padhiye.

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  6. यार दीपक , पिछली दो पोस्टों को भी पढ लिया था और पिछली पर टीप भी लिख चुका था , मगर जाने छपने में कुछ गडबड हो गई । पिछली पोस्ट में कहानी से जुडी सलाह तो तुम तक पहुंच ही गयी थी और आगे के लिए ध्यान में रखोगे ही । मगर ऐसी कहानी लिखोगे तो मैं नहीं पढूंगा , पक्का ,यार क्यों रुलाते हो मैंने भी प्यार किया और आज दो और छोटे छोटे हैं मेरे जीवन में उसी प्यार की बदौलत । देखो दुख वाली कहानी लिखोगे तो कुट्टी हो जाएगी । अबे मियां अब वेलेन्टाईन डे आ रहा है , भैय्ये कुछ रोमांटिक सा हो जाए , न हो तो अपने किस्से ही सही ,क्यॊ ठीक है न
    अजय कुमार झा

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  7. " अगर यही चलता रहा तो एक दिन सिवाय जिंदगी भर के रोने के तेरे पास कुछ भी नहीं रह जायेगा...."
    यह सच हुआ भी तो इस दर्दनाक तरीके से ....स्ताव्या और परिष्कृत की कहानी के अंत ने स्तब्ध कर दिया ..कितने मासूम दिलों के सपने तोड़ देती हैं ये आतंकवादी घटनाएँ ...
    मार्मिक ...!!

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  8. कहानी के इस अन्तिम अंक ने बहुत प्रभावित किया!

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  9. कहानी बहुत अच्छी लगी। तीसरी कड़ी ने सारी कमियाँ पूरी कर दीं।
    ---बधाई। यूँ ही लिखते रहें...

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  10. आज आपके ब्लाग पर पहली बार आये। कहानी की तीनों किस्तें एक साथ ही पढ लीं। बहुत अच्छी लगी कहानी। अंत दु:खद है पर शायद यही ज़िन्दगी है मौत के साथ हर वक्त लुका-छिपी खेलती हुई।

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