सोमवार, 13 सितंबर 2010

कविता------------------------->>>दीपक मशाल

होती है वारदात
मारा जाता है गरीब इक सोने के चाकू से
मौका-ए-वारदात पर आती है पुलिस 
मिलते हैं सबूत कुछ
कुछ मिटाए जाते हैं
नहीं मिलते कुछ
कुछ बनाये जाते हैं

लगती है अदालत 
जिरह चलती है 
सृजित होते हैं अड़ंगे
बढ़ती हैं तारीखें
दिन बिताये जाते हैं 
खाली आंतें ला खड़ा करती हैं 
फर्जी गवाहों को कठघरे में
सच्चाई की नीलामी करने को
खरीदारों की भीड़ है
ईमान बिक जाता है ऊंचे दामों में 

मुद्दई की सूनी आँखों में भर जाते हैं नुकीले पत्थर
जो हर गुज़रते दिन के साथ बड़े होते जाते हैं
फिर उस दिन उन पत्थरों से रिसने लगता है खारा पानी
जब जीतता है वकील
जब हारता है इंसान
जब जीतता है क़ानून
जब इन्साफ हार जाता है..
दीपक मशाल 

29 टिप्‍पणियां:

  1. ...ऐसा ही होता है...लेकिन क्यों?....क्या इसे रोकने के लिए कोई उपाय है?

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  2. तभी तो कहा हैः
    इंसाफ का तराज़ू, जो हाथ में उठाए
    जुर्मों को ठीक तोले, जुर्मों को ठीक तोले
    ऐसा न हो कि कल का इतिहासकार बोले
    मुजरिम से भी ज़ियादा, मुंसिफ ने जुल्म ढ़ाया!!

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  3. ये अंधा कानून है ......
    संवेदनशील रचना..

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  4. जब जीतता है वकील
    जब हारता है इंसान
    जब जीतता है क़ानून
    जब इन्साफ हार जाता है.
    --
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
    --
    सच्चाई प्रकट कर दी आपने रचना में!

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  5. ...फिर उस दिन उन पत्थरों से रिसने लगता है खारा पानी..
    ..मार्मिक कविता.

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  6. जब हारता है इंसान
    जब जीतता है क़ानून
    जब इन्साफ हार जाता है..
    यही समय की वेदना है ।
    सत्य कथा ।

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  7. जब जीतता है वकील
    जब हारता है इंसान
    जब जीतता है क़ानून
    जब इन्साफ हार जाता है..
    Aah...aur eeman bahut saste me bhi bik jata hai...Angrezonka bana Indian Evidence Act zindabad!

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  8. प्रिय दीपक ,
    जो कह रहे हैं वो सच तो है पर सच की सपाट बयानी जैसी वज़ह से 'कविता की शक्ल' में तारीफ़ करना ठीक नहीं होगा !
    आप इससे बेहतर रचते आये हैं तो पैमाने (स्केल्स) वही रहेंगे !

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  9. अदालत का दृश्य ही उपस्थित कर दिया ...सटीक अभिव्यक्ति ..

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  10. सच की कचहरी लगा दी है आपने दीपक जी....वाकई अच्छी रचना

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  11. जीतता है कानून ...हार जाता है इन्साफ
    सच को बयाँ कर दिया है ...!

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  12. विचारणीय कविता...



    हिन्दी के प्रचार, प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है. हिन्दी दिवस पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं साधुवाद!!

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  13. हिंदुस्तान में पैसा और पावर ही सबसे बड़ा क़ानून है...

    जय हिंद...

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  14. फिर उस दिन उन पत्थरों से रिसने लगता है खारा पानी
    जब जीतता है वकील
    जब हारता है इंसान
    जब जीतता है क़ानून
    जब इन्साफ हार जाता है..

    एक तल्ख सच्चाई…………………सोचने को मजबूर करती हुई।

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  15. वकील, इंसान, कानून और इंसाफ को बहुत सटीक उतारा है आपने कविता में, धन्‍यवाद दीपक भाई.

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  16. न्याय व्यवस्था की बुराइयों पर चोट करती हुई इक बेहतरीन कविता...... दीपक भाई बहुत खूब

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  17. सच्चाई की नीलामी करने को
    खरीदारों की भीड़ है
    ईमान बिक जाता है ऊंचे दामों में
    कितना सटीक लिखा है...क्षोभ और आक्रोश हर शब् में समाहित है....पर कब बदलेगा कुछ...
    व्यथित कर गयी यह कविता

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  18. बहुत संवेदनशील विषय और प्रस्तुति. हमारे यहाँ तो जो कमजोर होता है वही क़ानूनी लड़ाई हरता है. यहाँ झूठ सच से कुछ भी लेना देना नहीं है वर्ना लालू राबड़ी और झारखण्ड के गुरी जी ऐसे ही तो नहीं सब को मुंह चिढ़ा रहे हैं

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  19. बधाई स्वीकार करें। व्यवस्था पर करारी चोट करने के लिए।

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  20. अज कानूनी व्यवस्था मे जो कुछ हो रहा है उससे उपजा विषाद साफ झलक रहा है इन शब्दों मे। इसके सिवा आदमी कर भी क्या सकता है। बहुत अच्छी लगी रचना। आशीर्वाद।

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  21. तीखे अंदाज़ काबिले तारीफ़ है... क्यों न इस आवाज़ या इसी तरह की दर्द और बेचैन हो उठी पुकार को हस्ताक्षरित कर लक्ष्य तक पहुँचाया जाये. मेरा मतलब है इस एक आवाज़ को लोगों की आवाज़ बना दिया जाये तो कैसा रहेगा ?

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  22. बहुत सही लिखा है दीपक ...रोज की कहानी है यह ! शुभकामनायें

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