मारा जाता है गरीब इक सोने के चाकू से
मौका-ए-वारदात पर आती है पुलिस
मिलते हैं सबूत कुछ
कुछ मिटाए जाते हैं
नहीं मिलते कुछ
कुछ बनाये जाते हैं
लगती है अदालत
जिरह चलती है
सृजित होते हैं अड़ंगे
बढ़ती हैं तारीखें
दिन बिताये जाते हैं
खाली आंतें ला खड़ा करती हैं
फर्जी गवाहों को कठघरे में
सच्चाई की नीलामी करने को
खरीदारों की भीड़ है
ईमान बिक जाता है ऊंचे दामों में
मुद्दई की सूनी आँखों में भर जाते हैं नुकीले पत्थर
जो हर गुज़रते दिन के साथ बड़े होते जाते हैं
फिर उस दिन उन पत्थरों से रिसने लगता है खारा पानी
जब जीतता है वकील
जब हारता है इंसान
जब जीतता है क़ानून
जब इन्साफ हार जाता है..
दीपक मशाल
...ऐसा ही होता है...लेकिन क्यों?....क्या इसे रोकने के लिए कोई उपाय है?
जवाब देंहटाएंतभी तो कहा हैः
जवाब देंहटाएंइंसाफ का तराज़ू, जो हाथ में उठाए
जुर्मों को ठीक तोले, जुर्मों को ठीक तोले
ऐसा न हो कि कल का इतिहासकार बोले
मुजरिम से भी ज़ियादा, मुंसिफ ने जुल्म ढ़ाया!!
ये अंधा कानून है ......
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील रचना..
जब जीतता है वकील
जवाब देंहटाएंजब हारता है इंसान
जब जीतता है क़ानून
जब इन्साफ हार जाता है.
--
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
--
सच्चाई प्रकट कर दी आपने रचना में!
...फिर उस दिन उन पत्थरों से रिसने लगता है खारा पानी..
जवाब देंहटाएं..मार्मिक कविता.
जब हारता है इंसान
जवाब देंहटाएंजब जीतता है क़ानून
जब इन्साफ हार जाता है..
यही समय की वेदना है ।
सत्य कथा ।
बहुत बड़ा सवाल है
जवाब देंहटाएंजब जीतता है वकील
जवाब देंहटाएंजब हारता है इंसान
जब जीतता है क़ानून
जब इन्साफ हार जाता है..
Aah...aur eeman bahut saste me bhi bik jata hai...Angrezonka bana Indian Evidence Act zindabad!
प्रिय दीपक ,
जवाब देंहटाएंजो कह रहे हैं वो सच तो है पर सच की सपाट बयानी जैसी वज़ह से 'कविता की शक्ल' में तारीफ़ करना ठीक नहीं होगा !
आप इससे बेहतर रचते आये हैं तो पैमाने (स्केल्स) वही रहेंगे !
अदालत का दृश्य ही उपस्थित कर दिया ...सटीक अभिव्यक्ति ..
जवाब देंहटाएंयही सच है जो आपने लिखा है।
जवाब देंहटाएंuper se neeche ta sabhi beimaan
जवाब देंहटाएंfir bhi mera desh mahan mere dost
सच की कचहरी लगा दी है आपने दीपक जी....वाकई अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंराजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंमैं दुनिया की सब भाषाओं की इज़्ज़त करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिन्दी की इज़्ज़त न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे
भारतेंदु और द्विवेदी ने हिन्दी की जड़ें पताल तक पहुँचा दी हैं। उन्हें उखाड़ने का दुस्साहस निश्चय ही भूकंप समान होगा। - शिवपूजन सहाय
हिंदी और अर्थव्यवस्था-2, राजभाषा हिन्दी पर अरुण राय की प्रस्तुति, पधारें
जीतता है कानून ...हार जाता है इन्साफ
जवाब देंहटाएंसच को बयाँ कर दिया है ...!
विचारणीय कविता...
जवाब देंहटाएंहिन्दी के प्रचार, प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है. हिन्दी दिवस पर आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं साधुवाद!!
हिंदुस्तान में पैसा और पावर ही सबसे बड़ा क़ानून है...
जवाब देंहटाएंजय हिंद...
फिर उस दिन उन पत्थरों से रिसने लगता है खारा पानी
जवाब देंहटाएंजब जीतता है वकील
जब हारता है इंसान
जब जीतता है क़ानून
जब इन्साफ हार जाता है..
एक तल्ख सच्चाई…………………सोचने को मजबूर करती हुई।
सामाजिक परिवेश की दुखद स्थिति।
जवाब देंहटाएंवकील, इंसान, कानून और इंसाफ को बहुत सटीक उतारा है आपने कविता में, धन्यवाद दीपक भाई.
जवाब देंहटाएंन्याय व्यवस्था की बुराइयों पर चोट करती हुई इक बेहतरीन कविता...... दीपक भाई बहुत खूब
जवाब देंहटाएंसच्चाई की नीलामी करने को
जवाब देंहटाएंखरीदारों की भीड़ है
ईमान बिक जाता है ऊंचे दामों में
कितना सटीक लिखा है...क्षोभ और आक्रोश हर शब् में समाहित है....पर कब बदलेगा कुछ...
व्यथित कर गयी यह कविता
bahut sateek, aaj ka kadva sach
जवाब देंहटाएंबहुत संवेदनशील विषय और प्रस्तुति. हमारे यहाँ तो जो कमजोर होता है वही क़ानूनी लड़ाई हरता है. यहाँ झूठ सच से कुछ भी लेना देना नहीं है वर्ना लालू राबड़ी और झारखण्ड के गुरी जी ऐसे ही तो नहीं सब को मुंह चिढ़ा रहे हैं
जवाब देंहटाएंसच है.
जवाब देंहटाएंबधाई स्वीकार करें। व्यवस्था पर करारी चोट करने के लिए।
जवाब देंहटाएंअज कानूनी व्यवस्था मे जो कुछ हो रहा है उससे उपजा विषाद साफ झलक रहा है इन शब्दों मे। इसके सिवा आदमी कर भी क्या सकता है। बहुत अच्छी लगी रचना। आशीर्वाद।
जवाब देंहटाएंतीखे अंदाज़ काबिले तारीफ़ है... क्यों न इस आवाज़ या इसी तरह की दर्द और बेचैन हो उठी पुकार को हस्ताक्षरित कर लक्ष्य तक पहुँचाया जाये. मेरा मतलब है इस एक आवाज़ को लोगों की आवाज़ बना दिया जाये तो कैसा रहेगा ?
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा है दीपक ...रोज की कहानी है यह ! शुभकामनायें
जवाब देंहटाएं