अभी पिछले हफ्ते ८ अगस्त को लन्दन के भारतीय उच्चायोग से सम्बद्ध सांस्कृतिक केंद्र नेहरु सेंटर में कुछ साहित्यिक हलचल थी.. मौका था यू.के. हिन्दी समिति के गठन के २० वर्ष पूर्ण होने पर कहानी सम्मेलन का आयोजन. जिसमे कि यू.के. के प्रतिष्ठित कहानीकारों को उनकी रचना पाठ के लिए आमंत्रित किया गया था.. आदरणीय महावीर शर्मा जी की अस्वस्थता के चलते उन्होंने ये सौभाग्य मुझे प्रदान किया.. कई दिन से शिखा वार्ष्णेय दी से भी मिलने को, उनके हाथ का बना खाना खाने को चाह रहा था(यूँ तो वादा तो मैंने ये किया था कि मैं आके बनाऊंगा.. लेकिन फिर.... :) ) , सो वो हसरत भी पूरी होने का मौका था. सोचा अच्छा है
एक बटन दो काज हो जावेंगे(अरे वही एक पंथ दो काज). अब यात्रा कहाँ से कैसे शुरू हुई? वायुमार्ग के बजाय जलमार्ग से लन्दन जाने का मेरा फैसला कितना सही कितना गलत था? किन-किन साहित्यिक हस्तियों का आशीर्वाद प्राप्त हुआ? आयोजन कैसा रहा? उसके दूरगामी लाभ(मुझे भी और हिन्दी साहित्य को भी) क्या होने वाले हैं? रास्ते में क्या-क्या नज़ारे देखने को मिले(रात में और दिन में)? बस का १४ घंटे आने और १४ घंटे जाने का सफ़र कैसा रहा? इन सारे सवालों का जवाब आगामी पोस्टों में दूंगा.. अपने आप को ही दूंगा वैसे आप भी पढ़ सकते हैं.. :)
लेकिन यहाँ पर तो सिर्फ और सिर्फ शिखा दी की बात होगी.. जिनसे मिलने पर कहीं से लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं और वो गाना याद आ गया 'तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई...'
मैं विक्टोरिया कोच बस स्टेशन लन्दन पर सुबह ६ बजे उतरा(उससे पहले के मजेदार वृतांत आगे मिलेंगे) तो थोड़ा सा घूमते-घामते विक्टोरिया रेलवे स्टेशन पहुंचा. और टिकट बाबू ने गेटविक जाने वाली ट्रेन का रिचार्ज मार दिया.. जब अहसास हुआ कि १० के बजाए १७ पौंड कट रहे हैं तो वही अपनी देशी इश्टाईल से वापस लिया पैसा और १० पौंड देके आगे बढ़े.. वहाँ से नोर्थ बाउंड सर्किल लाइन की ट्रेन पकड़ी और फिर आगे के लिए सेंट्रल लाइन को पकड़ के गेंट्सहिल पहुँच गए भैया..
उस अंधड़खाने से बाहर निकले तो शनिवार की सुबह और वो भी ७ बजे होने की वजह से किसी आदमजात का मुखड़ा ना दिखा वहाँ.. थोड़ी देर में अपनी झाडूकार में बैठ झाडू वाले भाईसाब आये तब लगा कि यहाँ भी इंसान बसते हैं.. जीजा जी की नींद में खलल डाला और वहाँ से आगे को कूच करने के निर्देश पाए.. बाद में पता चला कि आप सभी पहले ही सुबह ४ बजे के जागे हुए थे.. 'गेशाम'(नाम पर मत जाइए ;) ) गली पहुंचा और जीजा जी घर के बाहर खड़े मिले.. घर में कदम रखते हुए लगा ही नहीं कि पहली बार आया हूँ या दी से पहली बार मिल रहा हूँ.. (वैसे पुनर्जनम वाला भी कोई केस नहीं था)
अब चाय-वाय-नहाना-धोना-नाश्ता-पानी सब फास्ट फॉरवर्ड में....
छुट्टी का दिन था सो जीजा जी भी खुश थे, हम भी, दीदी भी और सौम्या भी.. पर बेचारा प्यारा वेदान्त.. हाय री किस्मत उसे तो आज भी ट्यूशन जाना था(मुझे भी अचम्भा हुआ कि लन्दन में भी ट्यूशन).. पता चला वो एक विशेष प्रतियोगी परीक्षा(हाँ यही ठीक है.. मुझे और आपको दोनों को समझने में आसानी रहेगी) की तैयारी के लिए गणित पढ़ने जा रहा था..
उसके बाद दीदी ने जो खाना बनाने और खिलाने का सिलसिला शुरू किया वो अगले दो दिन तक थमा ही नहीं.. मुझे राखी का वो फ़िल्मी संवाद याद आ गया कि 'लोग अपने दुश्मन को पानी के लिए तरसा-तरसा के मारते हैं लेकिन हम तुम्हें पानी पिला पिला के मारेंगे.. पिला-पिला के मारेंगे..'
बस यहाँ लगता था कि मुझे खाना खिला-खिला के मारने का सोचा गया था.. शनिवार की सुबह छोले भठूरे से जो सिलसिला चालू हुआ वो इडली-साम्भर, डोसा-साम्भर होता हुआ कहाँ कहाँ नहीं पहुंचा..
जीजा जी और बच्चों के साथ क्रिकेट, शाम की स्पेशल पार्टी, और इस तरह बहुत सारी यादों की तस्वीरें जिन्दगी के एल्बम में चस्पा कर लीं मैंने.. अदा दी, महफूज़ भाई और रश्मि रवीजा दी भी मानसिक रूप से हमारे साथ ही रहे वहाँ.. और इतवार को लगभग सारा दिन हमने नेहरु सेंटर में ८ बड़ी कहानियाँ पढ़ते-सुनते गुज़ारे.. जिसकी बेहतरीन रिपोर्टिंग की मोस्को स्टेट यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता में गोल्डमेडलिस्ट श्रीमती शिखा वार्ष्णेय जी ने... उसके बाद शाम को तो चाय और डिस्प्रिन ने ही संभाल पाया.. :)
अगले दिन वेदान्त के साथ शतरंज की वो बाज़ी.. मज़ा आ गया कसम से..
और सबसे बाद में वापस आने से पहले जब उसके साथ लंच कर रहा था तो उसका ये कहना कि ''आप एक दिन और नहीं रुक सकते क्या?''
भला किसका दिल और आँख नहीं भर आयेगी ये सब सुन..
दी कुछ समझ नहीं आ रहा क्या कहूं.. आभार कह देता अगर पराया होता तो पर अब तो चुप रहना ही अच्छा है.. वरना आपके थप्पड़ की धमकी कौन सुने.. :)
कितनी बातों पर.. कितनी सारी चीजों को देख अचानक एक जैसी बात मुख से निकलना.. किसी परिस्थिति पर एक जैसी सोच.. कितना कुछ एक सा लगा. तभी लगा मुझे कि हो ना हों कुम्भ के बिछड़े भाई-बहिन हैं..
बहुत कुछ ऐसा ही स्नेह मिला था खुशदीप भैया, राजीव तनेजा जी, संजू भाभी जी, अजय झा भैया और वर्मा जी आदि से, जब दिल्ली गया था और जब नंगल निर्मला कपिला मासी के पास था..
ये जो रिश्ते आभासी जगत ने हमें दिए हैं इनका मोल चुकाना हमारे वश की बात नहीं.. इतना स्नेह.. कि कुछ कहते नहीं बनता और कहना चाहता भी नहीं.. अब अपने परिवार की तारीफ़ ज्यादा करेंगे तो लोग मियाँ-मिट्ठू ही कहेंगे ना.. :)
दीपक मशाल
चित्र वेदान्त, शिखा दी, क्रूज मेम्बर्स और मैंने निकाले हैं..
अच्छी मुलाकात के लिए बधाई ।
जवाब देंहटाएंye hai "Dil ka Rishta"
जवाब देंहटाएंप्रिय दीपक
जवाब देंहटाएंस्नेह,
लंदन यात्रा के बारे में विस्तार से जानकर बहुत अच्छा लगा। परिवार के सभी बड़े सदस्यों को सादर नमस्ते छोटों को प्यार.....
तुम्हारी अर्चना मासी....
वाह वाह...!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लगा पढ़ कर भी...सारी बातें सुन तो चुके ही थे हम..वो इडली-डोसा-संभार....
लगता है एक दिन हमें भी धावा बोलना ही होगा शिखा के घर...
बहुत बहुत बहुत अच्छा लगा...
शिखा को स्नेह..
वेदान्त और सौम्या को बहुत प्यार
और तुम्हें भी प्यार...
दीदी..
दीपक
जवाब देंहटाएंऐसा लगा जैसे हम भी तुम्हारे साथ हैं……………ये आभासी दुनिया के रिश्ते अब आभासी कहाँ रहे………………शायद खून के रिश्तों से भी बढ्कर हो गये।
बहुत अच्छा लगा तुम लोगों की मुलाकात का वृतांत, आगे किस्सों का इन्तजार है और ये छोला भटूरा तो खैर किसी न किसी रोज यॉर्क आते जाते वसूल ही लेंगे. :)
जवाब देंहटाएंMazedaar vruttant raha.waise eersha ho rahi hai..kaash maibhi mil pati!
जवाब देंहटाएंरिश्ते ऐसे ही बनते हैं , अच्छा संस्मरण !
जवाब देंहटाएंक्या बढ़िया टाइमिंग है पोस्ट की....इधर राखी नज़दीक है और ये भाई- बहन के स्नेह में पगी पोस्ट...मिठास छलकी पड़ रही है :)
जवाब देंहटाएंवैसे मुझे, बिलकुल तुम्हारे ऐसे ही अनुभव की आशा थी...शिखा से मिलकर इतना तो जान ही गयी हूँ...उसका पूरा परिवार ही बहुत सहज और मिलनसार है...ये खुशनुमा यादें हमेशा साथ रहेंगी...
दीपक भाई...
जवाब देंहटाएंहालांकि हमें आपके लन्दन जाने की खबर शिखा जी के आलेख से पहले ही पाता चल गया था और उनकी पोस्ट के माध्यम से हमने आपको नेहरु सेंटर से कहानी पठन की शुभकामनायें भी दी थीं, पर इस आलेख ने हमारे ह्रदय में शिखा जी के लिए इज्जत और बढा दी...
कोई भी प्रिय व्यक्ति जब इस तरह से पहली बार रु-बी-रु होता है उसे एक मखमली अहसास होता है, इस अहसास को हम बखूबी समझ सकते हैं... आप एक अच्छे इंसान हैं जो सबको इतने प्रेम और आदर भाव से याद कर रहे हैं...कोई भी होगा तो वो आपसे मिल कर खुश होगा...(मैं भी...) काश आप कभी हमारे यहाँ भी आयें....(ये आमंत्रण भी है और इल्तेज़ा भी...) वादा है की शिखा जी की तरह हम आपको खिला पिला परेशां न करेंगे....हाहाहा....
सुन्दर आलेख....उतरार्ध में आपकी श्रधा और आदर हमारे ह्रदय को द्रवित कर गए...ईश्वर हर बहन को ऐसा एक भाई दे...
दीपक...
बहुत सुन्दर संस्मरण। शिखा जी और उनके परिवार में सबके चेहरे से आत्मीयता टपक रही है। पढ़कर आनन्द आ गया।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्च लगा आपका यह संस्मरण पढ़कर!
जवाब देंहटाएं--
बहुत-बहुत बधाई!
पोस्ट पढ़कर लगता नहीं है की ये आभासी दुनिया है .....सचित्र संस्मरण बढ़िया लगे...
जवाब देंहटाएंरिश्ते ऐसे ही बनते हैं , अच्छा संस्मरण !
जवाब देंहटाएंकुंभ के मेलों के बिछुड़े हुओं का मिलन खूब रहा।
जवाब देंहटाएंहम भी आपकी पोस्ट के माध्यम से शरीक हो गए।
शिखा जी के परिवार से मुलाकात भी हो गयी।
वैसे तो हम पहले ही आ चुके थे,लेकिन तब आपने फ़ोटो एड करने के लिए पोस्ट वापस कर ली थी।
हमारा कमेंट नहीं लिया गया। इसलिए अभी फ़िर आना पड़ा।
शुभकामनाएं-युं ही मिलते-मिलाते रहना ही जिन्दगी है।
आभार
आत्मीय पोस्ट , अच्छा लगा की कुम्भ में बिछड़े भाई बहन लन्दन में मिले. बाकी की बाते को लिए रश्मि जी के कमेन्ट को रेफेर किया जाय.
जवाब देंहटाएंबधाई और शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंअरे अरे हम तो आप के इंतजार मै रहे ओर मैने एक पोस्ट भी आप को ध्यान मै रख कर बनाई थी ब्लांग मिलन की, ओर उस मै जो लिस्ट बनाई थी उन मै शिखा जी ओर इन का परिवार भी शामिल था, ओर भी काफ़ी नाम मैने जोड रखे थे, बस आप के आने का इशारा चाहिये था, लेकिन आप तो शिखा जी से मिल कर ही लोट गये, बहुत अच्छा लगा आप का यह मिलन, हम भी कभी मिलेगे इन से. धन्यवाद
जवाब देंहटाएंअगली ब्लोगर मीट (खाने वाला मीट नहीं )लन्दन में और मेरा छोले भठूरे का ठेला पक्का (ऑन डिमांड) हा हा हा
जवाब देंहटाएंमजाक के अलावा
दीपक ! जब मेहमान इतना अच्छा हो न, तो मेजबान अपने आप सहज और अच्छा हो जाता है .वैसे तारीफ तुमने कुछ ज्यादा ही कर दी :).
बहुत अच्छा लगा तुमसे मिलकर
इतनी इज्जत अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया.
पढ़कर आनंद आ गया..
जवाब देंहटाएंमैं आजकल पागल हो गया हूँ....
जवाब देंहटाएंक्या तुम्हे भी कुछ ऐसा एहसास हो रहा है?
शायद पहले वाले कमेन्ट को देख कर हो.....
बहुत अच्छा लगा सब पढ़ कर ....अरे मैं भी तो साथ थी ..:):) ...तुमको हिदायत देती हुई ...
जवाब देंहटाएंबस यूँ ही रिश्तों में गरिमा और प्यार बना रहे यही शुभकामनायें हैं ...
मैंने भी पढी यह यात्रा और मिलन कथा -सुन्दर !
जवाब देंहटाएंपढकर बहुत अच्छा लगा ...
जवाब देंहटाएंआप बहुत निर्मल और भावुक हो आपकी दीदी के लिए ऐसा भाई पाने के लिए बधाई ! शुभकामनायें कि तुम्हारा कभी दिल न दुखे !
जवाब देंहटाएंएक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
'हो ना हों कुम्भ के बिछड़े भाई-बहिन हैं'
जवाब देंहटाएंये स्नेह बंधन होते ही ऐसे हैं
शानदार वृतांत
बी एस पाबला
अच्छी मुलाकात ...सुन्दर तस्वीरें ...
जवाब देंहटाएंखुशकिस्मत हो कि आभासी रिश्ता अपनों सी खुशी दे रहा है ....!
दीपक भाई कुम्भ के नाम से पोस्ट देखकर लगा कि पता नहीं आज क्या कहने जा रहे हैं लेकिन यहाँ तो रक्षाबंधन का मामला निकला याने कि बहन और भाई मिलन। शिखा जी को कहो कि ब्लोग पर अपनी नयी फोटो लगाए, पहचान ही नहीं आ रही हैं। एक दिन में ही इतना बना लिया उन्होंने? आपकी आगे की पोस्ट का इंतजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंसुन्दर वृतांत ...पढ़ कर बहत अच्छा लगा !
जवाब देंहटाएंbahut badhiya achcha laga dekhkar zindgi main khub tarakki karo.
जवाब देंहटाएंaur apne sir ke baal itne lambe kar lo ki bibi ko choti banani pade.
जवाब देंहटाएं@benami ji
जवाब देंहटाएं:)
:)
अच्छा संस्मरण !
जवाब देंहटाएंअरे वाह, दो टैलेंटिड परिवार(बैचलर ही सही, पूरी यूनिट हो यार तुम भी) जब इंटरैक्ट करते हैं तो क्या समां बंधता होगा, सोचकर ही अच्छा लग रहा है।
जवाब देंहटाएंअगले संस्मरण भी ऐसे ही होंगे, रोचक।
वैसे तो कल ही पढ़ ली थी तुम्हारी पोस्ट, लेकिन कुछ और ब्लॉग्स की तरह मेरे सिस्टम पर तुम्हारी पोस्ट भी ऊपर से कटी हुई दिख रही है, सोचा था पूरी पोस्ट पढ़ेंगे तो ज्यादा आनंद आयेगा, लेकिन अब भी यही हाल है।
deepak ji
जवाब देंहटाएंapka yatra vritant bahoot achchha laga
बहुत ही उम्दा - अच्छा लगा आप लोगो का मिलन देखकर - आजकल हम भी निकले है न्यू यार्क दौरे पर - चलो आगे भी टपकते रहेंगे पढने - इस सफर को
जवाब देंहटाएंब्लोगिंग चीज़ ही ऐसी है कि जिनसे हम पहली बार मिल रहे होते हैं...वो भी अपने-अपने से लगते हैं... :-)
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