दुश्मनी के उत्तराधिकार
रफ़्तार पकड़ते
कुछ धुएं के फ़कीर फिर भी
बीच-बीच में छोड़े जाते हैं
साधे जाते हैं निशाने उनपर
अंधेरों की बेलों से बाँध
थमा दिए गए इंसान को..
जिन्हें बैलगाड़ी के
लोहे से बंधे
सख्त पहियों की मदद से
खींच रहा है नया युग..
रफ़्तार पकड़ते
स्वचालित वाहनों की दौड़ में
हम मन के कसैलेपन के
मरगिल्ले बैल ले के
ढो रहे हैं अपनी विरासत की कहानी
कुछ धुएं के फ़कीर फिर भी
अपनी पानी वाली लकीरों को
थोपे जा रहे हैं..
कब्रों के सिरहाने
रक्तपात के बीज बोते जा रहे हैं
बीच-बीच में छोड़े जाते हैं
दूधिया कबूतर
और फिर ज़मीन से
साधे जाते हैं निशाने उनपर
इंसानियत के सिपाहियों की दलीलें
दब जाती हैं तोपों की अट्टाहसों में
सरहद के सिपाहियों की गोलियां
कर देती हैं छलनी उन्हें
अपनी-अपनी तरफ के गिद्धों के
वतनपरस्ती के आलापों के बीच
एक भयानक वेदना के बाद
ठंडी पड़ने लगती हैं चीखें
पर उनसे जुड़ें कुछ और चीखें
सालों के सन्नाटों में गूंजती रहती हैं
खुद के कानों के परदे फाड़ती रहती हैं
वीरानियाँ बोती रहती हैं
और ये उत्तराधिकार सुरक्षित रहते हैं..
दीपक मशाल
(यह कविता परिकथा साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है)
कभी निगाहें नहीं मिलतीं...उनसे मेरी आहें नहीं मिलतीं..
मंजिलें तो कभी एक ना थीं..
अब तो अपनी राहें नहीं मिलतीं..
दीपक मशाल
दीपक मशाल
दीपक
जवाब देंहटाएंआजकल एक से बढकर एक बेजोड कविता ला रहे हो जिनकी तारीफ़ मे लफ़्ज़ भी कम पड जाएँ।
दुश्मनी के उत्तराधिकार
उफ़्…………यही तो विरासत मे मिली है जिसका खामियाज़ा ना जाने कब तक भुगतना होगा।
जाने कब तक चलता रहेगा यह उत्तराधिकार ।
जवाब देंहटाएंवर्तमान परिवेश पर एक करारा प्रहार ।
कुछ धुएं के फ़कीर फिर भी
जवाब देंहटाएंअपनी पानी वाली लकीरों को
थोपे जा रहे हैं..
कब्रों के सिरहाने
रक्तपात के बीज बोते जा रहे हैं
बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति ....
बहुत सटीक.
जवाब देंहटाएंरामराम
सब जगह उत्तराधिकार हाबी है!
जवाब देंहटाएंपरिस्थितियों की वेदना दिखती है आपकी इन पंक्तियों में...
जवाब देंहटाएंBahut baar aapke lekhan pe kya comment kiya jaye samajh me nahi aata..aaj kuchh aisaahee hai! Gar likhne lagun to thamna mushkil hoga,isliye khamoshi se lautna behtar...
जवाब देंहटाएंदूसरी तो दिल हर कर ले गयी। पहली भी प्रभावशाली।
जवाब देंहटाएंप्रिय दीपक ,
जवाब देंहटाएंविरसे के वैमनष्य / घृणाजीविता की धारणा से चिपटा और उसे ढोता मनुष्य,जिस पर समय के बदलाव का असर नहीं बस उलटे पैरों के प्रेतों सा ! कविता का मूल विचार और उसके लिए चुने गये बिम्ब आकर्षित करते हैं !
मुझे लगता है कि कविता में 'फ़कीर' और 'सिपाहियों' के साथ नव प्रयोग हुए हैं ! सामान्यत फ़कीर सदभावना और सिपाही कारतूस के साथ जुड़ते रहे हैं पर आपने इन्हें 'रक्तबीज' और 'दलीलों' से जोड़ा तो मेरे लिए यह नव प्रयोग हुआ ! संभव है आजकल बाबागिरी के चर्चित कांड फकीरों को निगेटिव शेड दे गये हों और सिपाहियों को बतौर शांति रक्षक देखा हो आपने !
बहरहाल स्वचालित बनाम मरगिल्ले और कपोत बनाम तोपों के अट्टहास का अंतर्विरोध खूब उभरा है ! खूबसूरत है !
कभी निगाहें नहीं मिलतीं...
जवाब देंहटाएंउनसे मेरी आहें नहीं मिलतीं..
मंजिलें तो कभी एक ना थीं..
अब तो अपनी राहें नहीं मिलतीं.
क्या बात है बहुत खूब ..पहली भी बहुत प्रभावशाली है .
सहमत जी
जवाब देंहटाएंकुछ धुएं के फ़कीर फिर भी
जवाब देंहटाएंअपनी पानी वाली लकीरों को
थोपे जा रहे हैं..
कब्रों के सिरहाने
रक्तपात के बीज बोते जा रहे हैं..
दीपक जी आपके शब्द चयन और भावनाओं पर निशब्द हूँ..एक सशक्त अभिव्यक्ति....भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई
दीपक बाबू! दूर से आपके वर्त्तमान घर का फोटो देखे थे अऊर नजदीक से केतना बार आपका टिप्पनी देखे हैं..लेकिन बस कभी इधर से निकल गए कभी उधर से.. आज सोचबे किए थे कि चाहे जो हो जाए, मसि कागद को हाथ लगाकर हम भी सरस्वती माई का चरन बंदना करिए लेंगे..बस आ गए… दुस्मनी अऊर नफरत का जो उत्तराधिकार मिला है, इसमें गौर से देखिएगा त बुझाएगा कि केतना दूमुहाँ लोग इसको फैलाया है...
जवाब देंहटाएंसियासत नफरतों का ज़ख्म भरने ही नहीं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है.
क्या बात है बहुत खूब ..
जवाब देंहटाएंअब तो इस कविता को समझने के लिए मुझे समय चाहिए
जवाब देंहटाएंकुछ धुएं के फ़कीर फिर भी
जवाब देंहटाएंअपनी पानी वाली लकीरों को
थोपे जा रहे हैं..
कब्रों के सिरहाने
रक्तपात के बीज बोते जा रहे हैं ..
मन की वेदना को दर्शाती अच्छी अभिव्यक्ति
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
कुछ धुएं के फ़कीर फिर भी
जवाब देंहटाएंअपनी पानी वाली लकीरों को
थोपे जा रहे हैं..
कब्रों के सिरहाने
रक्तपात के बीज बोते जा रहे हैं
बीच-बीच में छोड़े जाते हैं
दूधिया कबूतर
और फिर ज़मीन से
सुन्दर गहरे भाव , दीपक जी !
एक एक पंक्ति भाव भरी है
जवाब देंहटाएंअब किसका किसका जिक्र करें।
सर्वांग सुंदर कविता के लिए धन्यवाद
एक भयानक वेदना के बाद
जवाब देंहटाएंठंडी पड़ने लगती हैं चीखें
पर उनसे जुड़ें कुछ और चीखें
सालों के सन्नाटों में गूंजती रहती हैं
खुद के कानों के परदे फाड़ती रहती हैं
वीरानियाँ बोती रहती हैं
और ये उत्तराधिकार सुरक्षित रहते हैं..
bahoot sachhai byan ki hai aapne
very nice
उनसे मेरी आहें नहीं मिलतीं..
जवाब देंहटाएंमंजिलें तो कभी एक ना थीं..
अब तो अपनी राहें नहीं मिलतीं..
bahut khoob, janab
कुछ धुएं के फ़कीर फिर भी
जवाब देंहटाएंअपनी पानी वाली ....
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ओह्ह!! कितनी वेदना,आक्रोश और बेबसी है ,इन पंक्तियों में...सारे ही भाव परिलक्षित हो रहें हैं...मन को उद्वेलित कर गयी ये रचना..
जवाब देंहटाएंजाने कब निजात मिले
जवाब देंहटाएंह्रदय को आलोड़ित,उद्वेलित करती गंभीर अतिसुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंपर उनसे जुड़ें कुछ और चीखें
जवाब देंहटाएंसालों के सन्नाटों में गूंजती रहती हैं
खुद के कानों के परदे फाड़ती रहती हैं
वीरानियाँ बोती रहती हैं
और ये उत्तराधिकार सुरक्षित रहते हैं..
दीपक मशाल
-प्रभावशाली अभिव्यक्ति!!
दूसरी वाली के तो क्या कहने.
bahut hi acchi poem...
जवाब देंहटाएंबढ़िया स्पष्ट अभिव्यक्ति के साथ प्यारी रचना !
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