अहमद बुख़ारी द्वारा लखनऊ की प्रेस वार्ता में एक नागरिक-पत्रकार के ऊपर किये गए हमले के बाद कुछ बहुत ज़रूरी सवाल सर उठा रहे हैं। एक नहीं ये कई बार हुआ है की अहमद बुख़ारी व उनके परिवार ने देश के क़ानून को सरेआम ठेंगे पे रखा और उस पर वो व्यापक बहस नहीं छिड़ी जो ज़रूरी थी। या तो वे ऐसे मामूली इंसान होते जिनको मीडिया गर्दानता ही नहीं तो समझ में आता था, लेकिन बुख़ारी की प्रेस कांफ्रेंस में कौन सा पत्रकार नहीं जाता? इसलिए वे मीडिया के ख़ास तो हैं ही। फिर उनके सार्वजनिक दुराचरण पर ये मौन कैसा और क्यों? कहीं आपकी समझ ये तो नहीं की ऐसा कर के आप ‘बेचारे दबे-कुचले मुसलमानों’ को कोई रिआयत दे रहे हैं? नहीं भई! बुख़ारी के आपराधिक आचरण पर सवाल उठा कर भारत के मुस्लिम समाज पर आप बड़ा एहसान ही करेंगे इसलिए जो ज़रूरी है वो कीजिये ताकि आइन्दा वो ऐसी फूहड़, दम्भी और आपराधिक प्रतिक्रिया से भी बचें और मुस्लिम समाज पर उनकी बदतमीज़ी का ठीकरा कोई ना फोड़ सके।
इसी बहाने कुछ और बातें भी; भारतीय मीडिया अरसे से बिना सोचे-समझे इमाम बुखारी के नाम के आगे ‘शाही’ शब्द का इस्तेमाल करता आ रहा है। भारत एक लोकतंत्र है, यहाँ जो भी ‘शाही’ या ‘रजा-महाराजा’ था वो अपनी सारी वैधानिकता दशकों पहले खो चुका है। आज़ाद भारत में किसी को ‘शाही’ या ‘राजा’ या ‘महाराजा’ कहना-मानना संविधान की आत्मा के विरुद्ध है। अगर अहमद बुखारी ने कोई महान काम किया भी होता तब भी ‘शाही’ शब्द के वे हकदार नहीं इस आज़ाद भारत में। और पिता से पुत्र को मस्जिद की सत्ता हस्तांतरण का ये सार्वजनिक नाटक जिसे वे (पिता द्वारा पुत्र की) ‘दस्तारबंदी’ कहते हैं, भी भारतीय लोकतंत्र को सीधा-सीधा चैलेंज है।
रही बात बुख़ारी बंधुओं के आचरण की तो याद कीजिये की क्या इस शख्स से जुड़ी कोई अच्छी ख़बर-घटना या बात आपने कभी सुनी? इस पूरे परिवार की ख्याति मुसलमानों के वोट का सौदा करने के अलावा और क्या है? अच्छी बात ये है की जिस किसी पार्टी या प्रत्याशी को वोट देने की अपील इन बुख़ारी-बंधुओं ने की, उन्हें ही मुस्लिम वोटर ने हरा दिया। मुस्लिम मानस एक परिपक्व समूह है। हमारे लोकतंत्र के लिए ये शुभ संकेत है। लेकिन पता नहीं ये बात भाजपा जैसी पार्टियों को क्यों समझ में नहीं आती ? वे समझती हैं की ‘गुजरात का पाप’ वो ‘बुख़ारी से डील’ कर के धो सकती हैं।
एक बड़ी त्रासदी ये है कि दिल्ली की जामा मस्जिद जो भारत की सांस्कृतिक धरोहर है और एक ज़िन्दा इमारत जो अपने मक़सद को आज भी अंजाम दे रही है। इसे हर हालत में भारतीय पुरातत्व विभाग के ज़ेरे-एहतेमाम काम करना चाहिए था, जैसे सफदरजंग का मकबरा है जहाँ नमाज़ भी होती है। क्योंकि एक प्राचीन निर्माण के तौर पर जामा मस्जिद इस देश की अवाम की धरोहर है, ना की सिर्फ़ मुसलमानों की। मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने इसे केवल मुसलमानों के चंदे से नहीं बनाया था बल्कि देश का राजकीय धन इसमें लगा था और इसके निर्माण में हिन्दू-मुस्लिम दोनों मज़दूरों का पसीना बहा है और श्रम दान हुआ है। इसलिए इसका रख-रखाव, सुरक्षा और इससे होनेवाली आमदनी पर सरकारी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए ना की एक व्यक्तिगत परिवार की? लेकिन पार्टियां ख़ुद भी चाहती हैं की चुनावों के दौरान बिना किसी बड़े विकासोन्मुख आश्वासन के, केवल एक तथाकथित परिवार को साध कर वे पूरा मुस्लिम वोट अपनी झोली में डाल लें। एक पुरानी मस्जिद से ज़्यादा बड़ी क़ीमत है ‘मुस्लिम वोट’ की, इसलिए वे बुख़ारी जैसों के प्रति उदार हैं ना की गुजरात हिंसा पीड़ितों के रिफ्यूजी कैम्पों से घर वापसी पर या बाटला-हाउज़ जैसे फ़र्ज़ी मुठभेढ़ की न्यायिक जांच में!
ये हमारी सरकारों की ही कमी है कि वह एक राष्ट्रीय धरोहर को एक सामंतवादी, लालची और शोषक परिवार के अधीन रहने दे रहे हैं। एक प्राचीन शानदार इमारत और उसके संपूर्ण परिसर को इस परिवार ने अपनी निजी मिलकियत बना रखा है और धृष्टता ये की उस परिसर में अपने निजी आलिशान मकान भी बना डाले और उसके बाग़ और विशाल सहेन को भी अपने निजी मकान की चहार-दिवारी के अन्दर ले कर उसे निजी गार्डेन की शक्ल दे दी। यही नहीं परिसर के अन्दर मौजूद DDA/MCD पार्कों को भी हथिया लिया जिस पर इलाक़े के बच्चों का हक़ था। लेकिन प्रशासन/जामा मस्जिद थाने की नाक के नीचे ये सब होता रहा और सरकार ख़ामोश रही। जिसके चलते ये एक अतिरिक्त-सत्ता चलाने में कामयाब हो रहे हैं। इससे मुस्लिम समाज का ही नुक्सान होता है की एक तरफ़ वो स्थानीय स्तर पर इनकी भू-माफिया वा आपराधिक गतिविधियों का शिकार हैं, तो दूसरी तरफ़ इनकी गुंडा-गर्दी को बर्दाश्त करने पर, पूरे मुस्लिम समाज के तुष्टिकरण से जोड़ कर दूसरा पक्ष मुस्लिम कौम को ताने मारने को आज़ाद हो जाता है।
बुख़ारी परिवार किसी भी तरह की ऐसी गतिविधि, संस्थान, कार्यक्रम, आयोजन, या कार्य से नहीं जुड़ा है जिससे मुसलमानों का या समाज के किसी भी वर्ग का कोई भला हो। न तालीम से, न सशक्तिकरण से, न कोई हिन्दू-मुस्लिम समरसता से, और न ही किसी भलाई के काम से इन बेचारों का कोई मतलब-वास्ता है…. तो फिर ये किस बात के मुस्लिम नेता?
शीबा असलम फहमी
umda jaankari,
जवाब देंहटाएंyah baat aam musalmanon ko bhi maloom honi chahiye
निश्पक्ष और उमदा आलेख। शीबा जी को शुभकामनायें व धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंफिर भी भारत के मुसलमान इन पर फिदा है!
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ईश्वर सुबुद्दि दे!
शीबा जी, आप सही कह रही हैं। लेकिन धर्म के ठेकेदारों से समाज के हित की उम्मीद करना क्या उनके साथ ज्यादती नहीं :)
जवाब देंहटाएंबेहद सटीक, बेबाक और ज़रूरी पोस्ट ... हिन्दुस्तान का मुसलमान निश्चित रूप से बाकी दुनिया के मुसलमानों से अलग और सुदृढ़ सोच रखता है ... अब ये साबित होने लगा है ... लेकिन कुछ कठमुल्ले इन्हें जब तब बदनाम करने की साजिश से बाज़ नहीं आते ...
जवाब देंहटाएंनयी जानकारी मिली ...अधिक दिन कोई भी मूर्ख नहीं बना सकता ...एक न एक दिन असली चेहरा सामने आ जाता है ! शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंशीबा, आपने इन झूठे झंडाबरदारों के खिलाफ लिख कर देश की जनता को एक भारी मुगालते से बाहर निकालने की कोशिश की है. देखना ये है कि बचपन से ही मज़हब के नाम की घुट्टी पी कर बड़े हुए विभिन्न दलों/ कट्टरपंथियों और इंसानियत नाम से दूर भागने वाले लोगों की क्या प्रतिक्रिया होती है इस सच्चाई को झुठलाने के लिए.
जवाब देंहटाएंइस मामले में आवाज मुस्लिम समुदाय से उठेगी तो ज्यादा कारगर होगी, इसी समुदाय के वोटों के थोक व्यापारी बनने के नाम पर चंद लोग सियासत करते हैं।
जवाब देंहटाएंधर्म की विरासत को लोकतंत्र से क्या ? आपने काफी मेहनत से ये लेख लिखा है ! आपका नज़रिया ज़ायज़ भी है पर आप इन्हें भाव क्यों दे रही हैं ! देश की राजनीति में उनका रोल है ही कितना ? मस्जिदों /मठों की सम्पत्तियों पर किनके कब्ज़े हैं और कौन कौन उनका बेज़ा इस्तेमाल कर रहा है , क्या आपको पता नहीं ! वे एक छोटी सी एक मछली और मगरमच्छ कितनें ?
जवाब देंहटाएंशायद आपको याद नहीं कि जनता पार्टी के समय में वे आरएसएस के साथ थे ! अब नहीं हैं तो क्या किया जाये ! वे मुसलमानों के रहनुमा हैं किसनें कहा ? वे खुद कहते हैं तो कहने दीजिये :)
देश की स्थिति चिन्तनीय है।
जवाब देंहटाएंजानकारक पोस्ट
जवाब देंहटाएंएक अच्छी और काबिल ए तारीफ पोस्ट
जवाब देंहटाएंअपने आप में अनोखी पोस्ट है वाह
जवाब देंहटाएंमिसफ़िट:सीधी बात
6.5/10
जवाब देंहटाएंतथ्यात्मक सामयिक सरोकार रखती बढ़िया पोस्ट.
इन शाही साहब का प्रभाव एक छोटे से हिस्से भर में है लेकिन पूरे देश की मीडिया और हमारी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने इनको खामखां सिर पर बैठा रखा है. इन जैसे जितने भी लोग हैं उनको उनकी हैसियत बताना बहुत जरूरी हो गया है.
सामयिक...
जवाब देंहटाएंकितनी हैरत की बात है कि आज के इस लोकतान्त्रिक समाज में भी ऎसे लोगों की पूछ बनी हुई है....
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जवाब देंहटाएंदीपक जी सब बात सही है लेकिन इन राजनीतिज्ञों से यह अपेक्षा रखना की ये किसी भी मस्जिद को अब सांस्कृतिक धरोहर के रूप में संभाल पायें मुर्खता है बाबरी मस्जिद जैसी ऐतिहासिक धरोहर को सिर्फ इसलिए तुडवा दिया गया कि यह बाबर ने बनवाया है जबकि आदालत में यह कहा गया है कि बाबर यहाँ कभी आया ही नहीं. फिर किस वज़ह से हमारे नेताओं ने इसे तुड़वाया क्यों ? क्यों साम्प्रदाईकता की आग लगवाई जिसमें कितने बेगुनाह व्यक्ति झुलस गए. हम आज भी दिल से मुसलमान को अपना नहीं पाए.
जवाब देंहटाएंSecond reading meM bhee prabhaawi laga
जवाब देंहटाएं___________________________
एक नज़र इधर भी
मिसफ़िट:सीधी बात
बच्चन जी कृति मधुबाला पर संक्षिप्त चर्चा
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शीबा साहिबा से ब्लॉग जगत को अवगत कराने के लिए आभार. इनकी धारदार और निर्भीक लेखनी बहुत कुछ कह जाती जो सोंचने को विवश करती है......
जवाब देंहटाएंआँखें खोलने वाला लेख है ... बहुत से नए तथ्य उजागर करता हुवा ....
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार आलेख रहा दीपक जी। आपकी 'मशालÓ से निकली यह रोशनी राजनेताओं की कुंद बुद्धि तक पहुंचे यही कामना है।
जवाब देंहटाएंआपको और आपके परिवार को महापर्व दीपोत्सव की शुभकामनाएं।
मैंने आपके पास इन्हें भेजा है.... इन लोगों का अपने घर पर दीवाली ( 5 Nov 2010) शुक्रवार को स्वागत करें.
जवाब देंहटाएंhttp://laddoospeaks.blogspot.com/
true.. but rest u know..
जवाब देंहटाएंचिंतनीय !
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