गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

खबर (लघुकथा)/ दीपक मशाल

 
साँझ ढलने के साथ-साथ उसकी चिड़चिड़ाहट बढ़ती जा रही थी, मनसुख को लगा कि 
- दिन भर की भूखी-प्यासी है और ऊपर से थकी-माँदी… इसीलिए गुस्सा आ रहा होगा, ये करवाचौथ का व्रत होता भी तो बहुत कठिन है। 
राजपूताना रेजीमेंट में ड्राइवर की नौकरी पर तैनात मनसुख आज ड्यूटी ख़त्म होते ही सीधा घर को भागा आया, लेकिन आज प्रतिमा का व्यवहार उसे और दिनों से अलग सा लगा। वह खुद से मशविरा करने लगा 
- पिछले साल भी तो व्रत रखा था, तब तो ऐसा मूड उखड़ा न था जबकि तब तो यह पहली बार था। फिर इस बार क्या ऐसी बात हो गई जो रह-रहकर चौके के बर्तन भड़भड़ाए जा रहे हैं।
पानी पीने के बहाने वह चौके में गया तो देखा कि वह सिसक भी रही थी। एकबारगी सोचा कि पूछ लिया जाए कि वज़ह क्या है लेकिन उसकी हिम्मत न हुई, उसे याद आया कि
- सुबह ड्यूटी जाने के वक़्त देर हो रही थी सो वह चिल्ला पड़ा था कहीं वही वजह तो नहीं?
चाँद निकलने का वक़्त हुआ तो प्रतिमा चलनी, करवा, सींकें और बाकी पूजा सामग्री लेकर छत पर जा पहुँची, मनसुख भी साथ में आ खड़ा हुआ। पूजा पूरी होने के बाद जब वह व्रत तुड़वाने के लिए पानी का गिलास अपनी ब्याहता के होंठों तक ले जाने को हुआ तो प्रतिमा ने पानी पिए बिना ही गिलास परे हटाते हुए कँपकँपाती आवाज़ में पूछा
- अखबार में ऐसी खबर है, क्या सच में जंग छिड़ सकती है?

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