गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

जूतियाँ/ (लघुकथा) दीपक मशाल


कितनी ही महँगी जूतियाँ आज़मा चुके थे पर 'बात' ना बनी, चलने पर चुर्र-चुर्र की आवाज़ ही ना आती.


जबसे किसी ने उन्हें बताया कि

-जूतियों की ये ख़ास आवाज़ व्यक्ति के आत्मविश्वास को दर्शाती है 


तब से उन्हें गूँगी जूतियाँ रास ना आतीं. आज ही मिली पगार में से दो हज़ार रुपये चपरासी को देकर फिर नई जूतियाँ मँगाईं. 


कमाल हो गया!! इस बार, नई चमचमाती काली जूतियाँ पहिन जब वो फर्श पर चले तो कमरा चुर्र-चुर्र की ख़ास ध्वनि से गूँज उठा.चलते हुए वो सोच रहे थे

- अपनी जेब से पैसा गया तो गया पर आत्मविश्वास तो आया


चित्र: गूगल से साभार 

3 टिप्‍पणियां:

  1. जूतियां, जमीन, फर्श और चलना - चार हों तो आत्मविश्वास आयेगा ही देर सबेर।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (13-12-2014) को "धर्म के रक्षको! मानवता के रक्षक बनो" (चर्चा-1826) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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