सोमवार, 23 सितंबर 2013

क़यामत / दीपक मशाल

क़यामत पूरी नहीं आती 
फुटकर-फुटकर आती है 
ज़िंदगी के कुकून को 
इत्मिनान के साथ 
नाज़ुक कीड़े में 
तब्दील होते देखने में 
मज़ा आता है उसे

क़यामत
सिर्फ देखती है लगातार 
टुकुर-टुकुर 
बिना अतिरिक्त प्रयास के 

जानती है 
ये खुद ही खा जायेंगे खुद को 
इसलिए अलसा जाती है 
क्यों बेवजह हिलाए हाथ-पैर 
दीपक मशाल 

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