सोमवार, 17 जून 2013

ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद

ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद

ये दुनिया वो नहीं थी
जो देखी तुमने
बिन सूरज वाली
आँखों की खुद की रौशनी में

ये दुनिया वो नहीं थी
जो सोची तुमने देकर के जोर दिल पे
ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद

अगर नहीं है ये
शोर से, उमस और पसीने की बू से भरी रेलगाड़ी
तो आसमानों के बिजनेस क्लास का केबिन भी नहीं 
ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद

तुलसी, ताड़
कभी तेंदू पत्तों के बीच से
हौले से कभी खड़खड़ाकर
गुजरती हवा जैसा साया ये
आम, चन्दन, नीम या सोंधी मिट्टी में सिमटता है
ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद 

ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद
ये धुआँ जो हिल सकता है
हिला नहीं सकता
ज्यों फूल खिलता है
खिला नहीं सकता
इतना कमज़ोर भी नहीं
ख्वाब देखे चाँद के
और चाँद पा न सके
उतना मजबूर भी नहीं

मगर मूँद लेता है आँखें
जब सहेजता है सूरज कल के लिए
रेत सितारों की बिखेरता है
और सितारों को झाड़ देता है फूँक से अपनी
फिर धरत़ा है सूरज उसी चबूतरे पर

बेवजह तैरता, रेंगता, दौड़ता, फिसलता
नाचता- कूदता, चलता और उड़ता बेवजह साया है दुनिया
ये गाता है बेवजह, खाता है बेवजह
जाने क्या-क्या और कैसे कराता है बेवजह
ये मानोगे तुम एक उम्र के बाद
दीपक मशाल


8 टिप्‍पणियां:

  1. सच कहा, सब समझ आने लगता है, धीरे धीरे।

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  2. बहुत अच्छे , लिखते रहिए

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  3. Bahut dinon baad tumhen padh rahee hun....bemisaal lekhan!

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  4. ये रचना जीवन में प्रेरणा देती है....... सुंदर प्रस्तुति।

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  5. चमक और महक छुपती नहीं. सुंदर रचना.

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  6. मान लिया आपकी बात को भी और लेखनी को भी । बेहद सुंदर ।

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