मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

गर्भनाल के दिसंबर अंक में प्रकाशित एक लघुकथा 'कृपा'----->>>दीपक मशाल

गर्भनाल के दिसंबर अंक में प्रकाशित एक लघुकथा 'कृपा'(पेज ५५)
पूरी पत्रिका पढ़ने के लिए देखिएगा- http://issuu.com/dipakmashal/docs/garbhanal_49th.


 कृपा 
एक समय था जब बरसात के जाते-जाते मलेरिया के मारे मरीज उनके क्लीनिक के फेरे लगाने लगते थे और वो पूरी ईमानदारी से कम से कम समय में मरीज को ठीक भी कर देते थे... पर चाहे अमीर हो या गरीब सबको समान भाव से देखते हुए ताक़त के सीरप के नाम पर कुछ अनावश्यक दवाएं लिख ही दिया करते थे. उन दवाओं में होता सिर्फ चीनी का इलायची या ओरेंज फ्लेवर्ड घोल. लेकिन ये सब पता किसे था सिवाय खुद उनके, एम.आर. और केमिस्ट के.. उनमें भी केमिस्ट तो घर का आदमी था, रही बात एम.आर. की तो उसे अपनी सेल बढ़ानी थी, अब वो चाहे कैसे भी बढ़े. उस छोटे कस्बे के अल्पशिक्षित लोगों की डॉक्टर में बड़ी आस्था थी, डॉक्टर सा'ब के मरीज को छू लेने भर से आधी बीमारी ठीक हो जाती थी. 
लेकिन अभी कुछ सालों से लोग कुछ ज्यादा ही चतुर हो गए थे... उधर एक लम्बे अरसे से किसी बीमारी ने इधर का रुख भी तो नहीं किया था, धंधा मंदा हो चला था और अब डॉक्टर सा'ब खुद ही मरीजों की तरह लगने लगे थे.
पर इस बार लगता है सावन-भादों-वसंत सब एक साथ आ गए. मच्छरों ने डॉक्टर का आर्तनाद सुन लिया शायद. तभी तो दोनों शिफ्टों में बीमारियाँ फैलाने लगे. दिन वाले मच्छर डेंगू और रात वाले मलेरिया. 
डॉक्टर सा'ब आजकल बहुत खुश हैं , उनके साथी.. केमिस्ट, एम.आर. सब फिर से काफी व्यस्त हो गए. 
मैं भी कल ज़रा हरारत महसूस कर रहा था तो मजबूरन उनके मोबाइल पर फोन लगाना पड़ गया.. 
नंबर मिलते ही डॉक्टर सा'ब की कॉलर टोन सुनाई पड़ने लगी- ''मेरा आपकी कृपा से सब काम हो रहा है... करते हो तुम....''
इधर मेरे दूसरे कान के पास एक मच्छर मस्ती में अपनी तान छेड़े हुए था.
दीपक मशाल 


साथ में मेरी पसंद- http://objectionmelord.blogspot.com/2011/02/blog-post_13.html?showComment=1297724498229#c3162034556731430027

27 टिप्‍पणियां:

  1. काम मिलते रहने की प्रसन्नता दोनों कानों में गूंज रही थी.

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  2. चलो अच्छा है काम चलते रहना चाहिए.

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  3. आज ही एक दोस्त से बात हो रही थी, बताया उसने कि कुछ परेशानी के कारण डाक्टर के पास गया तो एक दो टेस्ट करवाने के बाद टी.बी. घोषित कर दी और बारह महीने की दवा शुरू करवा दी। दूसरे डाक्टर को कंसल्ट किया तो उसने दोबारा से टैस्ट करवाये और सब बेकार बताकर एक सप्ताह एंटी बायोटिक खिलाये हैं और अब वो स्वस्थ है।

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  4. मस्त जी आखिर ड्रा० ने भी तो अपना बंगला बनवाना हे.

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  5. वहाँ भी पढ़ ली थी..और यहाँ फिर आनन्द लिया.

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  6. सच्चाई वयां करती हुई रचना ,बधाई

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  7. दरअसल ये बातें इतनी आम हो गई हैं कि पढ़कर मन ने भी बेचैन होना छोड़ दिया है।

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  8. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (17-2-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  9. भगवान की माया है। अच्छी लघु कथा के लिये बधाई। आज कल लगता है मेरी तरह व्यस्त हो। शुभकामनायें, आशीर्वाद।

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  10. यही तो हाल है...क्या कहा जाय...

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  11. बिलकुल यथार्थवादी लघु-कथा.

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  12. शिल्प मे और कसावट की ज़रूरत है ।

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  13. ब्लॉग लेखन को एक बर्ष पूर्ण, धन्यवाद देता हूँ समस्त ब्लोगर्स साथियों को ......>>> संजय कुमार

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  14. मच्‍छर के बारे में एक खास तथ्‍य यह है कि‍ यह उन लोगों के प्रति‍ ज्‍यादा आकर्षि‍त होते हैं जि‍नके आसपास कार्बनडायऑक्‍साइड ज्‍यादा हो, इसके अलावा पसीने, आक्‍टेनॉल और लेक्‍ि‍टक एसि‍ड रसायनों की मौजूदगी में भी मच्‍छरों को इंसान के पास आने का चाव आता है।

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  15. यथार्थ का आइना है यह लघुकथा।

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  16. hhehheheeehehehe...
    सही है...
    इसमें बहुत सी बातें थी... पहली बात, जितना छोटा शहर उतनी कम बीमारियाँ...
    ऐसा लगता कि डॉक्टर्स भे सोचते हैं, कि मरीज़ है तो मरेगा है ही, हम अपना दिमाग क्यों खर्च करें???
    और ऐसे डॉक्टर्स के भी कमी नहीं है जिनका आपने व्याख्यान किया...
    चाहे इन्हें ५ साल पढ़ो या फ़िर साढ़े छः साल... परिणाम एक ही रहेगा...

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  17. डॉक्‍टर का धंधा मंदा, कभी ऐसा भी हुआ क्‍या.

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