ठेस / दीपक मशाल
- फ़िल्म तो अच्छी थी लेकिन इस एक्टर के बजाय किसी मस्क्युलर हीरो को लेते तो ये और बड़ी हिट होती
अच्छा सौदा/ दीपक मशाल
क्रिसमस के अगले दिन आज बॉक्सिंग डे सेल का दिन होने की वजह से बाज़ार की रौनक देखने लायक थी, हर कोई दुम में रॉकेट लगाए भाग रहा था। लगता था मानो ज़रा सी देर हुई नहीं कि दुनिया का आखिरी सामान बिक चुका होगा और उनके हिस्से कुछ ना आएगा।
१- चाबुक / दीपक मशाल
- फ़िल्म तो अच्छी थी लेकिन इस एक्टर के बजाय किसी मस्क्युलर हीरो को लेते तो ये और बड़ी हिट होती
शो ख़त्म होने पर सिने कॉम्प्लेक्स का एग्जिट गेट धकेलकर बाहर निकलते हुए प्रेमी ने प्रेमिका पर अपना फ़िल्मी ज्ञान झाड़ा
- हम्म, हो सकता है
प्रेमिका ने धीरे से कहा
- क्या हुआ तुम इतनी चुप क्यों हो?
प्रेमिका की उँगलियों में उँगलियाँ डाल उसका हाथ थामे लड़के ने शिकंजा कसते हुए पूछा
- नहीं हुआ कुछ नहीं समीर, बस तुम्हें बताना था कि अगले एक-दो हफ़्तों के लिए तुम्हें कहीं किसी दोस्त के यहाँ शिफ्ट करना होगा
- अरे ये क्या बात हुई
दोनों के हाथ छूट चुके थे
- समझा कर यार, सुबह पापा का फोन आया था। परसों वो किसी काम के सिलसिले में यहाँ आ रहे हैं, इसी बहाने मेरे साथ रहेंगे और शहर भी घूम लेंगे। मैं नहीं चाहती कि घर वाले जानें कि मैं लिव-इन में रहती हूँ
- ऐसे कैसे विधि! चार दिन बाद तो वैलेंटाइन्स डे है
लड़का परेशान हो उठा और उसने तंज मारा
- तुम तो कहती थीं कि तुम्हारी फैमिली बड़ी ब्रॉडमाइंडेड है, तुम्हारे मम्मी-पापा ने भी तो लव मैरिज की है? फिर दिक्क़त क्या है यार, उन्हें बता दो ना
- तुम तो कहती थीं कि तुम्हारी फैमिली बड़ी ब्रॉडमाइंडेड है, तुम्हारे मम्मी-पापा ने भी तो लव मैरिज की है? फिर दिक्क़त क्या है यार, उन्हें बता दो ना
- समीर मैं तुम्हें सिर्फ एक महीने से जानती हूँ, अभी हमें एक दूसरे को जानने को कुछ और वक़्त चाहिए और अगर पापा मेरे किसी फैसले में दीवार नहीं बनते तो इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं मर्यादा का पर्दा भी गिरा दूँ।
लड़का फिर हँसने लगा और प्यार से बोला
- तुम भी अजीब हो सुमी, एक तरफ़ मॉडर्न बनती हो और दूसरी तरफ़ मर्यादा की बात करती हो, फिर प्यार तो एक नज़र में होता है
- अच्छा! तो इसका मतलब अगर तुम्हारी बहिन तुमसे अपने लिव-इन रिलेशन के बारे में बताये तो तुम खुशी-खुशी मान जाओगे?
- सुमी!!!
समीर भीड़ की परवाह किए बिना चीख पड़ा और इस बार आवाज़ में प्यार नहीं गुस्सा था, ठीक वही गुस्सा जो ठेस से उपजता है।
क्रिसमस के अगले दिन आज बॉक्सिंग डे सेल का दिन होने की वजह से बाज़ार की रौनक देखने लायक थी, हर कोई दुम में रॉकेट लगाए भाग रहा था। लगता था मानो ज़रा सी देर हुई नहीं कि दुनिया का आखिरी सामान बिक चुका होगा और उनके हिस्से कुछ ना आएगा।
सिटी सेंटर के पास की संकरी गली के अन्दर बने कपड़ों के जिस छोटे से शो-रूम में आम दिनों में इक्का-दुक्का ग्राहक ही जाते थे, आज की सुबह उसकी भी किस्मत जागी थी। शो-रूम के भीतर कई जगह बड़े-बड़े और मोटे अंग्रेज़ी अक्षरों में 'सेल में बिका हुआ माल ना वापस होगा और ना ही बदला जाएगा' की उद्घोषणा करते पम्पलेट चिपकाए गए थे। शायद यह वाक्य ही दुकान के कपड़ों की क्वालिटी का साक्षी बना हुआ था जिसका नतीजा यह हुआ कि सुबह के दस बजते-बजते एक को छोड़कर शो-रूम में टँगे बाकी सभी कोट बिक चुके थे। तभी एक के बाद एक दो नवयुवक शोरूम में घुसे और सीधे कोट सेक्शन की ओर बढ़ गए. उनमे से एक थोड़ा तेज़ निकला, उसने कोट हैंगर समेत निकाला और ट्रायल-रूम की तरफ बढ़ गया। दूसरे को देखकर लगता था कि वह भी अगले ही पल उसी कोट को देखने वाला था। खैर पहले नवयुवक को वह कोट पहनकर देखने पर बिलकुल फिट आया। उसने सेल में आधी कीमत में मिल रहे उस कोट का काउंटर पर भुगतान किया और बाहर आ गया। वह खुश था कि उसने बढ़िया सौदा किया, उसे अपने पसंदीदा रंग और डिजाइन का कोट इतने सस्ते में मिल गया।
कोट की तरफ बढ़ने वाला दूसरा नवयुवक मन मसोस कर रह गया, उसे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों वह ज़रा सी देर से रह गया। उसे गुस्सा इस बात पर भी था कि वह आज सुबह जल्दी सोकर क्यों ना उठा। अगर वह उठ गया होता तो इतना अच्छा सौदा उसके हाथ से ना निकलता. इस वक़्त उसे लग रहा था जैसे कोहिनूर हीरा उसके हाथ से फिसल किसी और की झोली में जा गिरा हो।
दुकान मालिक खुश था कि आठ महीने से दुकान में पड़ा वह पुराना कोट आखिरकार सही कीमत में बिक गया वर्ना दोपहर बाद वह उस कोट की कीमत और भी कम करने की सोच रहा था। मगर अब तो उसे लागत निकलने के अलावा कुछ फायदा भी हो गया था, अच्छा सौदा रहा।
दुकान के सेल्स-मैन के चेहरे पर भी इस सौदे से खुशी झलक रही थी क्योंकि कल रात की क्रिसमस पार्टी में वह यही बिक चुका कोट पहन कर गया था जहाँ किसी से टकराने से रेड वाइन से भरा पैग उस कोट पर गिर गया था, लेकिन गहरे रंग का होने की वजह से उस पर पड़ा दाग ग्राहक की नज़र में ना आया और वह मालिक की डाँट खाने व खुद कोट का भुगतान करने से बच गया। १- चाबुक / दीपक मशाल
नए समय की
आंदोलनकारी औरतों की नई खेप
मुड़कर देखेगी पुरानी फ़िल्में
देखेगी उनमें
सास की फटकार सुनतीं
खाली पेट बर्तन माँजतीं आदर्श बहुएं
जीवन के विशेषतम लक्ष्य शादी के
न हो पाने की दशा में कलपतीं नायिकाऐं
'दुल्हन बनतीं हैं.… नसीबोंवालियाँ' गाती हुईं
विधवा हो दर-दर भटकतीं
कपास की फूल बनीं
लालाओं के क़र्ज़ तले दबीं
गिरवीं और गहनों में अनुप्रास स्थापित करतीं
घसीटी-खसोटी-नोचीं जातीं
पुरुषों से भरी महफ़िल में नाचने को होतीं मजबूर
या बदबू से महकते मुँहवालों के हाथों
रोज शाम होतीं प्रताड़ित
उनका हुआ ये शोषण न कर पाएगी बर्दाश्त
वो नई खेप
मुँह मोड़ेगी सेंसर की कैंची का
भूत में जाने के लिए
उनके अगुआ करेंगे भर्त्सना
उन गुजर चुके बदचलन 'रिवाजों' की
उन अभिनेताओं, निर्माताओं-निर्देशकों, दर्शकों को
किया जाएगा कठघरे में खड़ा
जिनके या तो पैर होंगे कब्र में
या समूचे ही कब्र में होंगे
नेत्रियाँ गरियाएंगी उन कलमों को
जिन्होंने उकेरे ऐसे चरित्र
और मानेंगीं दोषी
उस दुर्दशा के लिए पुरुष को
पुरुष जो है
जो आज है
जो अभी है
जो सामने खड़ा होगा
जो प्रायश्चित करता पाया जाएगा
वो सजा का हक़दार होगा
रची जायेगी पुरुष की परिभाषा
किसी महाखलनायक की तस्वीर सामने रखकर
वो ज़ुल्म वो क़हर बरपाने वाला
सितम ढाने वाला पुरुष
सोते हुए मुस्कुरा रहा होगा कहीं
कलेजे में ठंडक के वास्ते
चाबुक वाले हाथ बदलेंगे
कठोर से कोमल होंगे
छिलने वाली पीठें बदलेंगीं
मुलायम की जगह मोटी खालों वालीं
सब होगा
बजाय उस चाबुक पर मिट्टी का तेल छिड़क
उसे जलती दियासलाई दिखाने के
भड़याई का दौर/ दीपक मशाल
नामी उतरनें पहन
पुरस्कारों के किलों की
दीवारों पर
चढ़तीं कवितायें
महलों में सेंध लगातीं
लाँघती खाइयाँ रिश्तों की बिना पर
टाट पर लिखी कवितायें
लिपटना चाहतीं मखमल में
अलमुनियम के कटोरों की नमी के ऐवज में
सोने की थालियाँ चाहतीं
ढूँढतीं अखबारों में
ख़बरों को अपनी मोटी दीवारों के बीच पीसते
दर्द के बदले दवा के एक्सचेंज ऑफर
नया युग न रीमिक्स का
न पैरोडी का
कवितायें अब सीधे चोरी देखतीं
अंधेरों में अंधेर करतीं
उठातीं फायदा अंधेरों का
भड़याई के दौर से गुजरतीं
दिन आयेंगे
खंजर की नोंक पर
इनकी डकैतियों के भी जल्द
लाठियों और भैंसों के मुहावरों की
चर्चा वाली रातों की जगवार होगी
जल्द नाम कमाने के आकुर्त के तिलिस्म
क्या इसी ज़माने में हुए पैदा
या निकलते रहते हैं वक़्त-बेवक़्त के हाइबरनेशन से
नामी उतरनें पहन
पुरस्कारों के किलों की
दीवारों पर
चढ़तीं कवितायें
महलों में सेंध लगातीं
लाँघती खाइयाँ रिश्तों की बिना पर
टाट पर लिखी कवितायें
लिपटना चाहतीं मखमल में
अलमुनियम के कटोरों की नमी के ऐवज में
सोने की थालियाँ चाहतीं
ढूँढतीं अखबारों में
ख़बरों को अपनी मोटी दीवारों के बीच पीसते
दर्द के बदले दवा के एक्सचेंज ऑफर
नया युग न रीमिक्स का
न पैरोडी का
कवितायें अब सीधे चोरी देखतीं
अंधेरों में अंधेर करतीं
उठातीं फायदा अंधेरों का
भड़याई के दौर से गुजरतीं
दिन आयेंगे
खंजर की नोंक पर
इनकी डकैतियों के भी जल्द
लाठियों और भैंसों के मुहावरों की
चर्चा वाली रातों की जगवार होगी
जल्द नाम कमाने के आकुर्त के तिलिस्म
क्या इसी ज़माने में हुए पैदा
या निकलते रहते हैं वक़्त-बेवक़्त के हाइबरनेशन से
३- विचार की फ्रेज़ाइलगी
विचार कितने फ्रेजाइल हो तुम
पल के हज़ारवें हिस्से में होकर विलीन
सुदूर ब्रह्माण्ड की किसी दूसरी आकाशगंगा में
के समा जाते हो समुद्र की भँवर में
या कहीं नहीं बस यहीं
दिमाग के अथाह डस्टबिन में
नहीं पता
कुछ भी नहीं पता
बस कयास हैं सारे
प्रश्न उठाते नये सामाजिक समीकरण, आधुनिकता से उद्वेलित रचनायें।
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन नेताजी की ११७ वीं जयंती - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसोचने को विवश करती पोस्ट।
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